- आदिवासियों को अचंभित करता है बाहरी दुनिया का हर एक चीज
- पहली बार लोस चुनाव में किया मतदान
- बच्चों को पहली बार दी गयी पोलियो की खुराक
गया। जिले के फतेहपुर प्रखंड से महज 40 किलोमीटर की दूरी पर कठौतिया केवाल पंचायत है। यह बिहार और झारखंड की सीमा पर जंगल में बसा है। यहीं घनघोर गुरपा जंगल में अनुसूचित जनजाति के लोग रहते हैं। ये सभी आदिवासी मुंडा हैं। करीब 70 सालों से यहां रह रहे हैं। छोटे-छोटे 9 टोलों में 995 आदिवासी रहते हैं। नक्सल प्रभावित क्षेत्र तथा पहाड़ और जंगल से घिरे होने के कारण राज्यकर्मियों की आवाजाही यहां नहीं होती है। इस क्षेत्र का नाम सुनते ही इनके हाथ-पांव फूलने लगते हैं।
इन्हीं आदिवासी टोलों में एक टोला है बकवारा आदिवासी टोला। यहां 21 घरों में आदिवासी मुंडा रहते हैं। करीब 105 की जनसंख्या है। लोग पिछले 70 सालों से बसे हैं। सभी सरना धर्म को मानते हैं। यहां पहाडि़यों के बीच ही महिलाओं का असुरक्षित प्रसव होता रहा। एक जन भी मैट्रिक पास नहीं है। आठवीं कक्षा पास शनिक्का मुंडा बच्चों को पढ़ाते हैं। लोग मिलकर गुरुकुल जैसा विद्यालय खोल लिए हैं। इसी में 20 बच्चे पढ़ते हैं। किसी को सरकारी नौकरी नहीं। बीपीएल का तो नामोनिशान तक नहीं है।
वाटर एंड इंडिया के सहयोग से प्रगति ग्रामीण विकास समिति के कार्यकर्ताओं ने मार्च, 2012 में आदिवासियों के इन 9 टोलों को खोज निकाला। बाद में पता चला कि इन आदिवासी टोलों का नाम सरकारी दफ्तरों में नदारद था। काफी मशक्कत के बाद सरकारी दफ्तर में इनकी पहचान हो सकी। तब पहली बार 5 आदिवासी टोलों में 5 चापाकल लगाये गये। और तभी पहली बार वोटर कार्ड बना। इसी साल पूरी जिन्दगी में पहली बार ये लोकसभा के चुनाव में वोट डाल सके। अब मनरेगा से 170 लोगों का जाॅब कार्ड बन गया है। आजादी के 65 साल बीत जाने पर पहली बार मुंडा आदिवासियों के 300 बच्चों को पोलियो की खुराक पिलायी गयी।
गैर सरकारी संस्था के यहां पहुंचने से पहले बकवारा की महिलाओं का प्रसव जंगल में ही जैसे-तैसे होता था। लेकिन, अब हालात बदले हैं। एम्बुलेंस सेवा प्राप्त कर प्रसव पीड़ा झेलने वाली चम्पा देवी ने प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र में एक बच्ची को जना है। शनि नाम रखा है इसका। जननी सुरक्षा योजना के तहत चम्पा को 14 सौ रुपए मिले हैं। प्रगति ग्रामीण विकास समिति के परियोजना समन्वयक बृजेन्द्र कुमार कहते हैं कि चम्पा देवी का एम्बुलेंस से प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र जाना और वहां एक स्वस्थ बच्ची को जन्म देना इस आदिवासी बस्ती के लिए इतिहास बदलने जैसा है।
बकवारा आदिवासी टोला पहुंचने पर किसी अजनबी को देखकर एक-एक कर सभी आदिवासी जमा होने लगे। ये आदिवासी बस उतनी ही हिन्दी बोल सकते हैं, जितने में आप समझ जाएं। एक जगह बैठक लगी। किसी तरह शंकरी देवी समझा पायी कि हमलोगों को जमीन का पट्टा नहीं मिला है। लोगों ने बताया कि पहले ही बिहार राज्य अनुसूचित जनजाति आयोग के उपाध्यक्ष ललित भगत एक बार आए थे। बहुत आश्वासन दिए। लेकिन, कोई फायदा नहीं मिला। संस्था से जुड़े लोगों ने बताया कि अभी तक वनाधिकार कानून, 2006 के तहत बिहार में 76 लोगों को ही पट्टा प्राप्त है। बांका जिले के 54 और गया के 22 लोग ही भाग्यशाली हैं, जिन्हें पट्टा मिला है।
यहां आवागमन का कोई साधन नहीं है। पैदल ही लोग पास के बाजार जाते हैं। सिर पर थैला और बगल में अपने बच्चे को दबाये! यहीं जंगल में आदिवासी खेती करते हैं। पास बहती नदी के पानी को रोककर उसे संग्रहित रखते हैं ताकि पटवन हो सके। सरकारी चापाकल लगने से पहले आदिवासी गड्ढे का पानी पीते थे। इसे आदिवासी अपनी भाषा में चुआं, हाड़ी या चुमडाअ कहते हैं। इसी पानी से सभी घरेलू कार्य किया जाता था।
खुद बिहार विधान सभा के अध्यक्ष उदय नारायण चैधरी एक सभा में कह चुके हैं कि इस देश में दो तरह के लोग रहते हैं। एक मिनरल वाटर पीते हैं, दूसरा गड्ढा का पानी। लेकिन यह दुखद है कि आजादी के एक लंबे अंतराल के बाद भी देश में सभी लोगों को पीने के लिए स्वच्छ पेयजल नसीब नहीं हो सक रहा है।
आॅक्सफैम इंडिया के क्षेत्रीय प्रबंधक प्रविन्द कुमार प्रवीण कहते हैं कि एक साजिश के तहत लोगों को पानी के लिए तरशाया जा रहा है और बंद बोतल में पानी बेचा जा रहा है। बिहार राज्य खाद्य निगम के प्रबंध निदेशक डाॅ. दीपक प्रसाद कहते हैं कि पहले सरकार की नजर में गरीबों को रोटी, कपड़ा और मकान उपलब्ध कराना भर था। अगर रोटी, कपड़ा और मकान सरकार उपलब्ध करा देती थी, तो वह खुद को सफल मान लेती थी। अब सरकार ने इसे बढ़ाकर आठ तरह के न्यूनतम साधन को रेखांकित किया है। रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, वातावरण और स्वच्छता। इसे ईमानदारी से लागू करने की जरूरत है।
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