कुदागड़ा आठ टोलों का एक राजस्व गांव है। यह झारखंड के रांची जिलान्तर्गत नामकुम प्रखंड के हेसो जंगल में स्थित है। यहां 347 आदिवासी परिवारों की कुल आबादी लगभग 1,500 है। इन आदिवासियों की आजीविका कृषि और वन पर आधारित है। अधिकांश लोगों के पास कुछ रैयती और वन भूमि है, जिसपर वे वर्षों से खेती करते आ रहे हैं। 2008 में वन अधिकार कानून इनके जीवन में एक नई उम्मीद लेकर आया था। गांव में ग्रामसभा के अन्तर्गत वन अधिकार समिति का गठन हुआ और 36 आदिवासी परिवारों ने वनभूमि पर अधिकार हेतु दावा-पत्र पेश किया। जांच-पड़ताल के बाद ग्रामसभा ने उसे नामकुम अंचल कार्यालय को सौंप दिया, लेकिन सिर्फ 6 परिवारों को ही जमीन का पट्टा मिल सका। उसमें भी कहीं 2 डिसमिल तो कहीं 5 डिसमिल दर्ज है, जबकि उन्होंने 5 से 10 एकड़ जमीन का दावा-पत्र जमा किया था। कुदागड़ा के आदिवासियों ने 26 जनवरी, 2011 को 700 एकड़ जंगल पर सामुदायिक अधिकार का दावा-पत्र भी पेश किया। इसके बाद नामकुम के अंचलाधिकारी ने उनका दावा-पत्र शेखर जमुअर की अनुमंडलस्तरीय समिति को पेश किया। समिति ने उन्हें वन का क्षेत्रफल 70 से 100 एकड़ रखने का सुझाव दिया। जब वे नहीं माने, तो उन्हें बताया गया कि उनका फाईल कार्यालय में खो गया है इसलिए वे पुनः दावा-पत्र पेश करें। उन्होंने पुनः दावा-पत्र पेश किया, लेकिन उसपर कोई कार्रवाई नहीं की गई।
मानवाधिकार कार्यकर्ता ग्लैडसन डंुगडुंग ने पूरी सच्चाई से पर्दा उठाते हुए बताया कि कुदागड़ा की कहानी झारखंड में वन अधिकार कानून, 2006 की सही तस्वीर पेश करती है। सरकारी आंकड़ा से स्थिति और भी ज्यादा स्पष्ट होती है। झारखंड में 30 जून, 2013 तक 42,003 लोगों ने दावा-पत्र पेश किया था, जिसमें से सिर्फ 15,296 लोगों को 37,678.93 एकड़ से संबंधित जमीन का पट्टा दिया गया है, लेकिन राज्य में आजतक एक भी सामुदायिक अधिकार का पट्टा निर्गत नहीं हुआ है। यह शर्मनाक है, क्योंकि झारखंड को सामुदायिक अधिकार का चैंपियन होना चाहिए था। अंग्रेजों ने छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम, 1908 के माध्यम से मुंडारी खूटकट्टी जैसे सामुदायिक अधिकार को कानूनी मान्यता देकर इतिहास रचा था और यह राज्य देश में एकमात्र आदिवासी राज्य के रूप में भी जाना जाता है। लेकिन, हकीकत में झारखंड के पड़ोसी राज्य आदिवासियों को वन एवं वनभूमि पर अधिकार देने के मामले में बहुत आगे निकल चुके हैं। वन अधिकार कानून के तहत ओडि़सा में 5,24,162 दावा-पत्र पेश किया गया था, जिसमें 3,20,149 पट्टे निर्गत किये जा चुके हैं, जिसमें 3,18,375 व्यक्तिगत एवं 1,774 सामुदायिक पट्टे शामिल हैं। इसी तरह छŸाीसगढ़ में 4,92,068 दावा-पत्र पेश किये गये थे, जिसमें से 2,15,443 पट्टे निर्गत किये गये हैं, जिसमें 2,14,668 व्यक्तिगत एवं 775 सामुदायिक पट्टे शामिल हैं।
यहां सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि झारखंड सरकार आदिवासियों को वन एवं वनभूमि पर अधिकार क्यों नहीं देना चाहती है? इस सवाल का जवाब सारंडा जंगल में बहुत असानी से ढूंढ़ा जा सकता है। ग्लैडसन डंुगडुंग बताते हैं कि यहां देश का 25 प्रतिशत लौह-अयस्क मौजूद है। हो और मुंडा आदिवासी सारंडा जंगल में कई दशकांे से वन और वनभूमि पर अधिकार हासिल करने की लड़ाई लड़ रहे हैं और उनपर पुलिस अत्याचार जारी है। 1980 से 1958 के बीच 19 पुलिस फायरिंग की घटना घटी, जिसमें 36 आदिवासी मारे गये एवं 4,100 लोगों को पेड़ काटने के आरोप में जेल भेजा गया था। वन अधिकार कानून के तहत अधिकार हासिल करने के लिए 17,000 आदिवासियों ने दावा-पत्र भरा था, जिसे अंचल कार्यालय, मनोहरपुर से गायब कर दिया गया। ऐसा इसलिए किया गया, क्योंकि सारंडा जंगल में 12 खनन कंपनियां 50 जगहों पर लौह-अयस्क का उत्खनन कर रही हैं और उत्खनन हेतु 19 नयी माईनिंग लीज दी गई है। ऐसी स्थिति में अगर आदिवासियों को वन एवं वनभूमि पर अधिकार दे दिया जाता है, तो लौह-अयस्क का उत्खनन बड़े पैमाने पर प्रभावित होगा।
दूसरा मसला यह है कि वन विभाग देश का सबसे बड़ा जमींदार है और वह अपनी जमींदारी नहीं छोड़ना चाहता। वन अधिकार कानून, 2006 लागू होने के साथ ही वन विभाग का अस्तित्व समाप्त हो जाना चाहिए था, लेकिन सरकार की मंशा साफ नहीं है। वन विभाग के अधिकारी आदिवासियों को जंगल पर अधिकार इसलिए नहीं देना चाहते, क्योंकि वे टिम्बर माफिया और पोचरों से मिलकर करोड़ो रुपये कमा रहे हैं। इतना ही नहीं, वन विभाग के अधिकारियों और कर्मचारियों को मुफ्त में लाखों रुपये की लकड़ी अपने घरों को सजाने के लिए मिलती है। तीसरी बात यह कि वनभूमि या वन पर उत्खनन करनेवाली कंपनियों से सरकार को भारी रकम राजस्व के रूप में फोरेस्ट क्लियारेंस के समय मिलता है, जिसे सरकार किसी भी कीमत पर आदिवासियों के हाथ में जाने नहीं देना चाहती है। असल में जंगल खनिज पदार्थों से भरे पड़े हैं, इसलिए आदिवासियों को अधिकार से वंचित रखा जा रहा है।
यहां वन अधिकार कानून, 2006 का औचित्य समझना जरूरी है। केन्द्र सरकार ने पहली बार कानूनी रूप से स्वीकार किया कि आदिवासियों के साथ अन्याय हुआ है, इसलिए कानून द्वारा उन्हें न्याय देना इसका मूल मकसद था। अतीत में जीवन जीने के संसाधन खासकर जल, जंगल और जमीन पर आदिवासी समुदाय का अधिकार था। वे अपने रोजमर्रा की जरूरतों को पूरा करने के लिए इनका उपयोग करते थे। अंग्रेज जब भारत आये, तो उन्हें समझ में आया कि यहां प्राकृतिक संसाधनों का आकूत भंडार है, जिससे काफी पैसा कमाया जा सकता है। और इसके लिए उन्हें सŸाा पर काबिज होना जरूरी था। सŸाा हथियाने के साथ ही कानून को हथियार बनाकर संसाधनों पर कब्जा करना शुरू कर दिया गया। 1793 में पहली बार ‘परमानेंट सेटलमेंट एक्ट’ लाया गया। इससे आदिवासियों की जमीन जमींदारों के हाथ में चली गई। 1855 में जंगल पर भी कब्जा करने हेतु सरकारी नीति लायी गयी। यहां तक कहा गया कि जंगल सरकार का है और उसपर कोई व्यक्ति अपना अधिकार नहीं जता सकता है। 1865 में भारत में पहला ‘वन अधिनियम’ बना। उसके बाद तो मानो वन कानूनों की बारिश सी हो गई। जहां भी उन्हें कानून में छेद दिखाई देता, नये कानून लाये गये। वन अधिनियम, 1927 द्वारा सभी तरह के वनोपज पर लगान लगा दिया गया।
जब देश आजाद हुआ, तो स्थिति और बद से बदतर हो गई। 1952 में ही राष्ट्रीय वन नीति लायी गई। इसके तहत आदिवासियों को जंगल उजाड़ने हेतु दोषी ठहराया गया। 1972 में वन्यजीवन की सुरक्षा के नाम पर कानून बनाया गया और लाखों लोगों को जंगल से हटा दिया गया। वर्ष 1976 में राष्ट्रीय कृषि आयोग ने तो यहां तक कहा कि आदिवासी ही जंगलों को बर्बाद करते हैं, इसलिए अगर जंगल बचाना है तो आदिवासियों को जंगलों से बाहर निकालना जरूरी है। 1980 में तो हद हो गया। ‘वन संरक्षण अधिनियम’ लागू किया गया, जिसमें जंगल का एक पŸाा तोड़ने को भी अपराध की श्रेणी में रखा गया। इस तरह से जंगल को आदिवासियों से छिन लिया गया। 2002 में भारत सरकार ने वन संरक्षण अधिनियम एवं सर्वाेच्य न्यायालय के आदेश को हाथियार बनाते हुए जंगलों में रह रहे 1 करोड़ आदिवासियों को समय सीमा के अन्दर जंगलों को खाली करने का आदेश दे दिया। आदेश में कहा गया कि आदिवासी वन एवं वन्यजीवन की सुरक्षा के लिए खतरा बन गए हैं। इस प्रक्रिया में देश भर से 25,000 आदिवासी परिवारों के घर तोड़ दिए गए, खेतों में लहलहाते अनाज बर्बाद कर दिए गए। असम और महाराष्ट्र में तो स्थिति यह थी कि बूलडोजर और हाथियों को इस कार्य में लगाया गया। वहीं जंगलों को बर्बाद करने वाले ठेकेदारों, पूंजिपतियों, नौकरशाहों और सŸाा के दलालों पर एक उंगली तक नहीं उठाई गई। इतना ही नहीं, एक लाख आदिवासियों पर फर्जी मुकदमा कर जेलों में बंद कर दिया गया था। प्राकृतिक संसाधनों से बेदखल करना, वन विभाग द्वारा जुल्म व अत्याचार एवं राज्य प्रायोजित हिंसा आदिवासियों के खिलाफ अन्याय नहीं तो और क्या है।
मानवाधिकार कार्यकर्ता ग्लैडसन डंुगडुंग ने पूरी सच्चाई से पर्दा उठाते हुए बताया कि कुदागड़ा की कहानी झारखंड में वन अधिकार कानून, 2006 की सही तस्वीर पेश करती है। सरकारी आंकड़ा से स्थिति और भी ज्यादा स्पष्ट होती है। झारखंड में 30 जून, 2013 तक 42,003 लोगों ने दावा-पत्र पेश किया था, जिसमें से सिर्फ 15,296 लोगों को 37,678.93 एकड़ से संबंधित जमीन का पट्टा दिया गया है, लेकिन राज्य में आजतक एक भी सामुदायिक अधिकार का पट्टा निर्गत नहीं हुआ है। यह शर्मनाक है, क्योंकि झारखंड को सामुदायिक अधिकार का चैंपियन होना चाहिए था। अंग्रेजों ने छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम, 1908 के माध्यम से मुंडारी खूटकट्टी जैसे सामुदायिक अधिकार को कानूनी मान्यता देकर इतिहास रचा था और यह राज्य देश में एकमात्र आदिवासी राज्य के रूप में भी जाना जाता है। लेकिन, हकीकत में झारखंड के पड़ोसी राज्य आदिवासियों को वन एवं वनभूमि पर अधिकार देने के मामले में बहुत आगे निकल चुके हैं। वन अधिकार कानून के तहत ओडि़सा में 5,24,162 दावा-पत्र पेश किया गया था, जिसमें 3,20,149 पट्टे निर्गत किये जा चुके हैं, जिसमें 3,18,375 व्यक्तिगत एवं 1,774 सामुदायिक पट्टे शामिल हैं। इसी तरह छŸाीसगढ़ में 4,92,068 दावा-पत्र पेश किये गये थे, जिसमें से 2,15,443 पट्टे निर्गत किये गये हैं, जिसमें 2,14,668 व्यक्तिगत एवं 775 सामुदायिक पट्टे शामिल हैं।
यहां सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि झारखंड सरकार आदिवासियों को वन एवं वनभूमि पर अधिकार क्यों नहीं देना चाहती है? इस सवाल का जवाब सारंडा जंगल में बहुत असानी से ढूंढ़ा जा सकता है। ग्लैडसन डंुगडुंग बताते हैं कि यहां देश का 25 प्रतिशत लौह-अयस्क मौजूद है। हो और मुंडा आदिवासी सारंडा जंगल में कई दशकांे से वन और वनभूमि पर अधिकार हासिल करने की लड़ाई लड़ रहे हैं और उनपर पुलिस अत्याचार जारी है। 1980 से 1958 के बीच 19 पुलिस फायरिंग की घटना घटी, जिसमें 36 आदिवासी मारे गये एवं 4,100 लोगों को पेड़ काटने के आरोप में जेल भेजा गया था। वन अधिकार कानून के तहत अधिकार हासिल करने के लिए 17,000 आदिवासियों ने दावा-पत्र भरा था, जिसे अंचल कार्यालय, मनोहरपुर से गायब कर दिया गया। ऐसा इसलिए किया गया, क्योंकि सारंडा जंगल में 12 खनन कंपनियां 50 जगहों पर लौह-अयस्क का उत्खनन कर रही हैं और उत्खनन हेतु 19 नयी माईनिंग लीज दी गई है। ऐसी स्थिति में अगर आदिवासियों को वन एवं वनभूमि पर अधिकार दे दिया जाता है, तो लौह-अयस्क का उत्खनन बड़े पैमाने पर प्रभावित होगा।
दूसरा मसला यह है कि वन विभाग देश का सबसे बड़ा जमींदार है और वह अपनी जमींदारी नहीं छोड़ना चाहता। वन अधिकार कानून, 2006 लागू होने के साथ ही वन विभाग का अस्तित्व समाप्त हो जाना चाहिए था, लेकिन सरकार की मंशा साफ नहीं है। वन विभाग के अधिकारी आदिवासियों को जंगल पर अधिकार इसलिए नहीं देना चाहते, क्योंकि वे टिम्बर माफिया और पोचरों से मिलकर करोड़ो रुपये कमा रहे हैं। इतना ही नहीं, वन विभाग के अधिकारियों और कर्मचारियों को मुफ्त में लाखों रुपये की लकड़ी अपने घरों को सजाने के लिए मिलती है। तीसरी बात यह कि वनभूमि या वन पर उत्खनन करनेवाली कंपनियों से सरकार को भारी रकम राजस्व के रूप में फोरेस्ट क्लियारेंस के समय मिलता है, जिसे सरकार किसी भी कीमत पर आदिवासियों के हाथ में जाने नहीं देना चाहती है। असल में जंगल खनिज पदार्थों से भरे पड़े हैं, इसलिए आदिवासियों को अधिकार से वंचित रखा जा रहा है।
यहां वन अधिकार कानून, 2006 का औचित्य समझना जरूरी है। केन्द्र सरकार ने पहली बार कानूनी रूप से स्वीकार किया कि आदिवासियों के साथ अन्याय हुआ है, इसलिए कानून द्वारा उन्हें न्याय देना इसका मूल मकसद था। अतीत में जीवन जीने के संसाधन खासकर जल, जंगल और जमीन पर आदिवासी समुदाय का अधिकार था। वे अपने रोजमर्रा की जरूरतों को पूरा करने के लिए इनका उपयोग करते थे। अंग्रेज जब भारत आये, तो उन्हें समझ में आया कि यहां प्राकृतिक संसाधनों का आकूत भंडार है, जिससे काफी पैसा कमाया जा सकता है। और इसके लिए उन्हें सŸाा पर काबिज होना जरूरी था। सŸाा हथियाने के साथ ही कानून को हथियार बनाकर संसाधनों पर कब्जा करना शुरू कर दिया गया। 1793 में पहली बार ‘परमानेंट सेटलमेंट एक्ट’ लाया गया। इससे आदिवासियों की जमीन जमींदारों के हाथ में चली गई। 1855 में जंगल पर भी कब्जा करने हेतु सरकारी नीति लायी गयी। यहां तक कहा गया कि जंगल सरकार का है और उसपर कोई व्यक्ति अपना अधिकार नहीं जता सकता है। 1865 में भारत में पहला ‘वन अधिनियम’ बना। उसके बाद तो मानो वन कानूनों की बारिश सी हो गई। जहां भी उन्हें कानून में छेद दिखाई देता, नये कानून लाये गये। वन अधिनियम, 1927 द्वारा सभी तरह के वनोपज पर लगान लगा दिया गया।
जब देश आजाद हुआ, तो स्थिति और बद से बदतर हो गई। 1952 में ही राष्ट्रीय वन नीति लायी गई। इसके तहत आदिवासियों को जंगल उजाड़ने हेतु दोषी ठहराया गया। 1972 में वन्यजीवन की सुरक्षा के नाम पर कानून बनाया गया और लाखों लोगों को जंगल से हटा दिया गया। वर्ष 1976 में राष्ट्रीय कृषि आयोग ने तो यहां तक कहा कि आदिवासी ही जंगलों को बर्बाद करते हैं, इसलिए अगर जंगल बचाना है तो आदिवासियों को जंगलों से बाहर निकालना जरूरी है। 1980 में तो हद हो गया। ‘वन संरक्षण अधिनियम’ लागू किया गया, जिसमें जंगल का एक पŸाा तोड़ने को भी अपराध की श्रेणी में रखा गया। इस तरह से जंगल को आदिवासियों से छिन लिया गया। 2002 में भारत सरकार ने वन संरक्षण अधिनियम एवं सर्वाेच्य न्यायालय के आदेश को हाथियार बनाते हुए जंगलों में रह रहे 1 करोड़ आदिवासियों को समय सीमा के अन्दर जंगलों को खाली करने का आदेश दे दिया। आदेश में कहा गया कि आदिवासी वन एवं वन्यजीवन की सुरक्षा के लिए खतरा बन गए हैं। इस प्रक्रिया में देश भर से 25,000 आदिवासी परिवारों के घर तोड़ दिए गए, खेतों में लहलहाते अनाज बर्बाद कर दिए गए। असम और महाराष्ट्र में तो स्थिति यह थी कि बूलडोजर और हाथियों को इस कार्य में लगाया गया। वहीं जंगलों को बर्बाद करने वाले ठेकेदारों, पूंजिपतियों, नौकरशाहों और सŸाा के दलालों पर एक उंगली तक नहीं उठाई गई। इतना ही नहीं, एक लाख आदिवासियों पर फर्जी मुकदमा कर जेलों में बंद कर दिया गया था। प्राकृतिक संसाधनों से बेदखल करना, वन विभाग द्वारा जुल्म व अत्याचार एवं राज्य प्रायोजित हिंसा आदिवासियों के खिलाफ अन्याय नहीं तो और क्या है।
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