COPYRIGHT © Rajiv Mani, Journalist, Patna

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रविवार, 9 मार्च 2014

आदिवासियों से ‘सही लोकतंत्र’ सीखने की जरूरत

WRITER : Glaidsan Dungdung
दुनिया में बंदूक के बगैर सच्चा लोकतंत्र अगर कहीं है, तो वह सिर्फ आदिवासी समाज के पास। इसलिए जो लोग सही मायने में लोकतंत्र चाहते हैं, उन्हें आदिवासियों से सीखना चाहिए। कारण कि सही लोकतंत्र की स्थापना आदिवासियों को नाकार कर नहीं हो सकती है। 
न्यूज@ई-मेल
ग्लैडसन डुंगडुंग
देश के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, गृहमंत्री व नक्सल प्रभावित राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने नक्सलियों/माओवादियों से बार-बार अपील करते हुए कहा है कि वे बंदूक छोड़कर लोकतंत्र का हिस्सा बनें और समाज की मुख्यधारा से जुड़ें। वहीं माओवादियों की दुनिया में बेखौफ घुमने के लिए चर्चित केन्द्रीय मंत्री जयराम रमेश ने तो यहां तक कह डाला कि माओवादियों के विचार और मुद्दे दोनों सही हैं, लेकिन रास्ता गलत। क्या इसका मतलब यह समझा जाना चाहिए कि बंदूक को अलग कर देने से नक्सली/माओवादी सही हैं? क्या देश में सŸाा चलाने के लिए ही बंदूक बनाया गया है? माओवादी भी तो वही कह रहे हैं कि वे बंदूक के बल पर देश में सŸाा हासिल करेंगे। साथ ही जिनके साथ अन्याय हुआ है, उन्हें न्याय देंगे? इसलिए सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न यह होना चाहिए कि क्या बंदूक के बगैर लोकतंत्र संभव है?
अब बात लोकतंत्र के महापर्व चुनाव से शुरू करते हैं। क्या इस देश के आम चुनाव का एक भी ऐसा उदाहरण है जो बिना बंदूक, गुंडा और पैसों का हुआ हो? आजकल तो एक मामूली सा वार्ड सदस्य को भी लोग ईमानदारी से नहीं चुन सकते। उसे भी पैसा, बंदूक और गुंडा का सहारा लेना पड़ता है। क्या इन चीजों के बगैर चुनाव की कल्पना की जा सकती है? यानी यह कहना गलत नहीं होगा कि बंदूक के बगैर लोकतंत्र का महापर्व नहीं मनाया जा सकता। आजकल तो धर्मगुरु जो लोगों को दिन-रात शांति का पाठ पढ़ाते हैं और वोट बैंक को प्रभावित करते हैं, भी बंदूक रखते हैं।
देश, राज्य या किसी जिले में प्रशासन चलाने की बात कर लीजिए, तस्वीर साफ हो जायेगी। यह बात इसलिए जरूरी है क्योंकि सरकार बंदूक उठाकर न्याय की लड़ाई लड़ने वाले नक्सली/माओवादियों को बंदूक छोड़कर मुख्यधारा में शामिल करना चाहती है। यानी बंदूक ही उन्हें मुख्यधारा से अलग करती है। लोग कह सकते हैं कि कई राज्य नक्सल प्रभावित हैं, जहां बिना सुरक्षा बल के जाना संभव नहीं है। लेकिन, क्या नक्सलवाद की उत्पत्ति से पहले बिना बंदूक के सरकार चलती थी? इसका मतलब यह है कि बंदूक के सहारे ही सरकार चलती है। जब बंदूक में इतनी ताकत है तो फिर कोई बंदूक क्यों छोड़ना चाहेगा? प्रश्न यह भी है जब सरकार नक्सली/माओवादियों को बंदूक छोड़कर मुख्यधारा में शामिल होने की अपील करती है तो फिर मुख्यधारा से जुड़े ताकतवर लोगों के पास बंदूक क्यों है? और उन्हें क्यों मुख्यधारा का हिस्सा माना जाना चाहिए?
देश में औद्योगिक विकास की तस्वीर बंदूक की गोली से रक्तरंजित है। यहां संसद द्वारा बनाये गये कानून को ताक पर रखकर सरकारों ने बंदूक के बल पर आदिवासी और अन्य रैयतों की जमीन छिन ली है। जब लोग संविधान के अनुच्छेद 19 का उपयोग करते हुए पेसा कानून, वन अधिकार कानून या जमीन संबंधी कानूनों को लागू करने की मांग करते हैं, तो उनपर गोली चलायी जाती है। इसके सैकड़ों उदाहरण हमारे देश में मौजूद हैं। यह बात कैसे कोई भूल सकता है कि 19 आदिवासियों को उडि़सा के कलिंगनगर में टाटा कंपनी को जमीन देने के लिए गोलियों से उड़ा दिया गया? झारखंड के कोईकारो, काठीकुंड और गुआ गोलीकंड आज भी आदिवासियों के जेहान में हैं। बंदूक का दुरूपयोग किस तरह से सरकारी तंत्र करती है, यह किसी से छुपी नहीं है। फिर भी देश के नेता लोकतंत्र के नाम पर लोगों को गुमराह करते हैं।
यहां सवाल यह भी है कि क्या बंदूक हिंसा का प्रतीक है या शांति का! अगर यह हिंसा का प्रतीक है तो स्वाभाविक है कि बंदूक पकड़ने वाले सभी हिंसक होंगे। चाहे बंदूक पकड़ने वाला पुलिस व सेना की वर्दी में हो या नक्सली लिबास में! यह कैसे संभव है कि सुरक्षा बलों की बंदूक से शांति निकले और नक्सलियों/माओवादियों की बंदूक से हिंसा? कानून देखें तो अंतर सिर्फ इतना है कि सरकार ने ताकतवर लोगों को बंदूक पकड़ने के लिए लाईसेंस निर्गत किया है और गरीब बिना लाईसेंस के बंदूक उठाये हुए हैं। गरीबों से पहला सवाल पूछा जायेगा कि उन्हें बंदूक किसलिए चाहिए? क्या उन्हें झोपड़ी, गाय-बकरी और मुर्गी की सुरक्षा के लिए बंदूक की जरूरत है? और अगर वे लाईसेंसी बंदूक रख भी लेते हैं, तो उनका जेल जाना या उनसे बंदूक लुटना तय है।
इतिहास बताता है कि हम बंदूक के उपयोग को लेकर काफी स्लेक्टिव हैं। अगर बंदूक का उपयोग ताकतवर लोग करें तो यह गुनाह नहीं है, लेकिन गरीब इसका उपयोग नहीं कर सकता। गरीबों के पास बंदूक होने का मतलब अपराध से वास्ता! क्योंकि गरीब उस बंदूक का उपयोग उन ताकतवर लोगों के खिलाफ करेगा, जिन्होंने उसका शोषण किया है। ऐसे देखा जाये तो गांवों में कौन बंदूक रखता है? गांव का मुखिया या दबंग व्यक्ति।
जब देश के नेताओं पर बंदूक से हमला होता है तो उसे लोकतंत्र पर हमला कहा जाता है। छŸाीसगढ़ की घटना इसका ज्वलंत उदाहरण है। लेकिन जब वही हमला आम जनता या सुरक्षा बलों पर होता है तब उसे लोकतंत्र पर हमला नहीं कहा जाता। उसे प्रतिदिन घटने वाला आम मामला कहा जाता है। यह कैसा लोकतंत्र है, जिसमें सिर्फ चुने हुए लोग लोकतंत्र बन जाते हैं और बाकी लोगों की कोई अहमियत नहीं होती? क्या आम जनता के हाथ में लोकतंत्र सिर्फ पांच वर्षों में एक दिन रहता है और बाकी दिनों में वे लोकतंत्र के शिकार बन जाते हैं? उन्हें अपनी चुनी हुई सरकार की पुलिस लाठी-डंडा से पीटती है, गोली चलाती है और यातना देती है।
हमारे देश में सŸाा का विकेन्द्रिकरण आधुनिक लोकतंत्र का सबसे बड़ा सकारात्मक योगदान है, लेकिन उसी लोकतंत्र ने भ्रष्टाचार को प्रत्येक व्यक्ति, परिवार और गांव के अंदर घुसा दिया है। अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर नेता वोट खरीदते हैं। वोटर वोट बेचवा है, जिसमें पूंजिपति शेयर बाजार की तरह पैसा लगाते हैं। इसे लोकतंत्र की निर्मम हत्या नहीं तो और क्या कहेंगे? चुनाव बीतते ही नेता खास और वोटर आम हो जाता है। और वहीं लोकतंत्र का खात्मा हो जाता है। पूंजिपतियों को मुनाफा पहुंचाने के लिए नीति, नियम और कानून बनाये जाते हैं तथा जनहित में बने कानूनों को ताक पर रख दिया जाता है। लोकतंत्र का सही अर्थ लोगों का, लोगों के लिए और लोगों के द्वारा सिर्फ सिद्धांत में ही रह गया है। क्या देश के नेताओं के पास इसका जवाब है?
हकीकत यह है कि राज्य का गठन ही बंदूक के बल पर हुआ है। इसलिए इस लोकतंत्र से शांति की उम्मीद करना बेईमानी है। चाहे नेता कुछ भी कह दे, लेकिन आधुनिक लोकतंत्र बंदूक के बगैर संभव है? आज प्रत्येक गरीब, दलित और आदिवासियों को यह क्यों लगने लगा है कि इस लोकतंत्र में उन्हें कभी भी न्याय नहीं मिलेगा, जबतक कि वे स्वयं सŸाा हासिल नहीं करते हैं? क्या दुनिया के इस महान लोकतंत्र को इसका जवाब नहीं देना चाहिए? आज गरीब सŸाा पाने के लिए बंदूक का सहारा ले रहे हैं, क्योंकि उनके पास वोट खरीदने को पैसा नहीं है। साथ ही बूथ कब्जा करने के लिए गुंडे पालने की उनकी हैसियत भी नहीं है। सच्चाई यह है कि माओवादी/नक्सली उन्हें मुफ्त में बंदूक और प्रशिक्षण दे रहे हैं, इसलिए वे उनकी संगत में चले जा रहे हैं। यह निश्चित तौर पर लोकतंत्र के लिए खतरा है।
आदिवासी नेता जयपाल सिंह मुंडा ने संविधान सभा में देश के नेताओं से कहा था कि आप हमें लोकतंत्र का पाठ नहीं पढ़ा सकते, क्योंकि हमारे यहां लोकतंत्र सदियों से मौजूद है। आदिवासी अपना नेता चुनने के लिए न तो पैसा और न ही बंदूक का उपयोग करते हैं। लेकिन, देश ने आदिवासियों की एक न सुनी, जिसका परिणाम यह हुआ कि आधुनिक लोकतंत्र ने प्रकृति और समाज दोनों को खोखला कर दिया। दुनिया में बंदूक के बगैर सच्चा लोकतंत्र अगर कहीं है, तो वह सिर्फ आदिवासी समाज के पास। इसलिए जो लोग सही मायने में लोकतंत्र चाहते हैं, उन्हें आदिवासियों से सीखना चाहिए। कारण कि सही लोकतंत्र की स्थापना आदिवासियों को नाकार कर नहीं हो सकती है।
ग्लैडसन डुंगडुंग मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं और ये विचार लेखक के अपने हैं।

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