COPYRIGHT © Rajiv Mani, Journalist, Patna

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सोमवार, 6 जुलाई 2015

मानव की जाति

Kanchan Pathak
 फीचर@ई-मेल 
कंचन पाठक 
प्राचीन वैदिक काल से ही रीति, नीति एवं समृद्ध परम्पराओं से अलंकृत भारत भूमि में मनुष्य की पहचान उसके कर्म से होती रही है, वर्ण से नहीं। कुछ विद्वानों के मतानुसार भारतवर्ष में सनातन युग-काल से ही जाति-प्रथा का विभेद चला आ रहा है, परन्तु यह बात सत्य प्रतीत नहीं होती। पुरा वैदिक काल में वर्ण की बजाय कर्म की महत्ता स्थापित थी। कर्म-भ्रष्ट मनुष्य हीन माना जाता था। कालान्तर में विदेशी आक्रमणकारियों एवं संस्कृतियों के प्रभाववश पुराने रीति, नीति एवं मूल्य शनैः-शनैः लुप्त होते गए एवं मानसिक विभेद का वर्चश्व कायम होता चला गया। आगे चलकर यही विभेद जातीय एवं वर्णीय कट्टरता में परिणत हो गया। मनुष्य मनुष्य न रहकर जातियों एवं वर्णों में तब्दील हो गया! वह भूमि, जहां पहले सबकुछ सांझा हुआ करता था, धीरे-धीरे कई जाति, वर्ण और समुदाय में बंट गया। इस क्रम में मनुष्य का एक कमजोर वर्ग निरन्तर पिछड़ता चला गया और अन्ततः उसने स्वयं को अछूत, अस्पृश्य आदि की श्रेणी में विवश खड़ा पाया। 
खैर, अस्पृश्यता के मूल कारण चाहे जो भी रहे हों, पर इससे घृणित कार्य कुछ और हो ही नहीं सकता। 
मानव होकर मानव के एक समुदाय से जात-पात और छुआछूत का विभेद रखना, आतक-पातक जैसी वाहियात भावनाएं रखना, इन सबसे जघन्य और क्या होगा। एक समय था, जब अछूत कहे जाने वाले एक वर्ग के लिए विद्यालयों में अध्ययन की व्यवस्था नहीं थी। न केवल उन्हें सार्वजनिक जलाशयों या कुंओं से पानी लेने पर प्रतिबन्ध था, बल्कि मंदिरों में भी उनका प्रवेश वर्जित था। अब इससे बड़ी विडम्बना क्या होगी कि जिन पतितपावन प्रभु श्रीराम ने भीलों कीलों को गले लगाया, बड़े ही प्रेम से शबरी के जूठे बेर खाए, उन्हीं का द्वार इनके लिए बंद रखा गया। 
महात्मा गांधी में कहा था - अस्पृश्यता हमारे राष्ट्र का अभिशाप है। यह हिन्दू जाति का कलंक है। स्वामी दयानन्द और आचार्य विनोवा भावे ने भी इन अस्पृश्य कहे जाने वाले समुदाय को प्रेम से बाहों का सहारा दिया। 1955 ईस्वी में सरकार ने अस्पृश्यता उन्मूलन अधिनियन पारित कर कानून का मजबूत सहारा और सघन छांव भी इन्हें प्रदान किया। इसके अलावा बाबा साहब भीमराव अम्बेडकर ने जिन्होंने स्वयं दलितों की प्रताड़ना भोगी थी, का इन समुदायों के उत्थान के लिए किया गया प्रयास युगों तक भुलाया नहीं जा सकता। इन सबके बावजूद दलितोत्थान एक राजनीतिक और स्वार्थ का खेल ही बनकर रह गया। दलितों का एक वर्ग ही तरक्की कर पाया, जबकि जो वास्तविक जरुरतमन्द थे, वे वंचित ही रहे। कुछ अयोग्य और मतलबपरस्त लोग करोड़पति, अरबपति होकर भी जातिगत फायदा लेते ही गए और अन्य वास्तविक दलितों पिछड़ों तक वह लाभ पहुंचने ही नहीं दिया गया। इस प्रकार के असन्तुलित रवैये से किसी का भी भला नहीं हो सकता। 
अन्त में यही कहना चाहूंगी कि यदि हम अपने राष्ट्र और मानव समुदाय का उत्थान चाहते हैं, तो यह जातपात, भेदभाव आदि को खत्म कर समाज में नयी जागृति और नई चेतना का मंत्र फूंकना होगा। जाति के नाम पर समूचे राष्ट्र की केवल एक जाति हो ... मानव की जाति। और आरक्षण के लाभ के नाम पर एक ही नियम ...वास्तविक रूप से गरीब और पिछड़े के लिए। यह वास्तविक जरूरतमंद चाहे जिस भी जाति के हों, इन्हें फायदा मिले। कारण कि आज दलितों का एक और वर्ग भी सामने आ रहा है। सवर्ण दलितों का, जो अस्पृश्य तो नहीं माना जाता, पर आर्थिक, सामाजिक रूप से निरन्तर पिछड़ता हुआ उसी दयनीय अवस्था को प्राप्त है। 
परिचय : कंचन पाठक कवियित्री व लेखिका हैं। प्राणी विज्ञान से स्नातकोत्तर और प्रयाग संगीत समिति से हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत में प्रवीण हैं। दो संयुक्त काव्यसंग्रह ‘सिर्फ तुम’ और ‘काव्यशाला’ प्रकाशित एवं तीन अन्य प्रकाशनाधीन। आपकी रचनाएं विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में छपती रही हैं।