COPYRIGHT © Rajiv Mani, Journalist, Patna

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शनिवार, 28 सितंबर 2013

बापू ने कहा था

भाग एक
नव भारत के निर्माण में महात्मा गांधी के योगदान को उनके भाषण से समझा जा सकता है। अहिंसा के बल पर उन्होंने जो आन्दोलन चलाया, आगे चलकर उसने पूरे विश्व को एक नई दिशा दी। उन्होंने न सिर्फ अंग्रेजों के खिलाफ अपना आन्दोलन चलाया, बल्कि एक स्वस्थ भारत के निर्माण में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। दरअसल बापू भारत में पैठ जमा चुके ऊंच-नीच, छुआछूत और जाति, वर्गों में बंट रहे समाज को लेकर भी काफी चिंतित थे। उनके भाषणों से यह साफ दिखता है। सूचना एवं जनसम्पर्क विभाग, उत्तर प्रदेश ने एक किताब प्रकाशित किया है। इस पुस्तक का नाम है ‘उत्तर प्रदेश में गांधी जी’। इसके लेखक हैं श्रीरामनाथ ‘सुमन’। बापू के भाषणों के अंश यहां इसी पुस्तक से दिए जा रहे हैं। आशा है, पाठक इससे लाभान्वित हो सकेंगे। 
1934 में भारत के विभिन्न प्रान्तों में अस्पृश्यता निवारण कार्य के लिए दौरा करने के बाद गांधीजी उत्तर प्रदेश, तब संयुक्त प्रान्त, में आये और 22 जुलाई से 2 अगस्त तक उन्होंने प्रमुख स्थानों और नगरों का दौरा किया। बापू की यात्रा के कुछ अंश यहां दिये जा रहे हैं। 
22 जुलाई को कानपुर नगरपालिका और जिला बोर्ड ने एक ही जगह अपने-अपने मानपत्र गांधीजी को दिये। ये मानपत्र भी डाॅ. जवाहरलाल रोहतगी के बंगले पर, जहां गांधीजी ठहराये गये थे, दिये गये। नगरपालिका की विवरणी से ज्ञात हुआ कि उन्होंने प्रशंसनीय हरिजन सेवा की है। 1932 के पूर्व ही उसने पन्द्रह हजार रुपए खर्च करके हरिजन कर्मचारियों के लिए कुछ मकान बनवा दिये थे। बा. ब्रजेन्द्रस्वरूप के अध्यक्ष चुने जाने के बाद से इस दिशा में और भी प्रगति हुई। एक साल के अंदर ही नगरपालिका ने 48,000 रुपए मूल्य के 188 अच्छे हवादार और साफ-सुथरे मकानों की व्यवस्था अपने हरिजन कर्मचारियों के लिए कर दी। 
कानपुर की जिला परिषद् ने यह निश्चय किया कि अन्य जाति के विद्यार्थियों की तरह हरिजन विद्यार्थी भी परिषद् के स्कूलों में भरती किये जाए और जो अध्यापक इस निश्चय के विरूद्ध जाएं, उन्हें अर्थदंड दिया जाए। प्राइमरी पाठशालाओं में हरिजन लड़कों से कोई फीस नहीं ली जाती। लड़कियों को सूत कातना सिखाया जाता है। 
जिला परिषद् की कन्याशालाओं में सूत कताई सिखाने की चर्चा करते हुए गांधीजी ने कहा - ‘‘खादी में मेरा आज भी वैसा ही अटल विश्वास है। हरिजनों से तो खादी का बहुत अधिक संबंध है। सैकड़ों-हजारों हरिजन स्त्रियों और जुलाहों की इससे सेवा हो रही है। कातने या बुनने का काम अगर हम इन्हें न देते, तो ये भूखों मर जाते, क्योंकि अन्य धंधों के रास्ते तो उनके लिए बिल्कुल ही बंद हैं। इसी तरह खादी से कितने ही मुसलमानों का भी काम चल रहा है। ...हजारों अधभूखे भारतीयों की कुछ न कुछ सहायता तो चरखा कर ही रहा है। दरिद्रनारायण की सेवा बिना खादी के हो ही नहीं सकती। ...’’
22 जुलाई को सार्वजनिक सभा हुई। इसमें गांधीजी को नागरिकों की ओर से मानपत्र और ग्यारह हजार की थैली भेंट की गयी। गांधीजी ने इस अवसर पर भाषण करते हुए कहा - ‘‘आपने मुझे जो यह 11,000 रुपए की थैली दी है, उसके लिए मैं आपका आभारी हूं। ...कानपुर में कुछ लोग ऐसे हैं, जो मेरी हरिजन प्रवृति को पाप कार्य समझते हैं। इनकी ओर से जनता में बहुत से पर्चे बांटे गये हैं जो सरासर असत्य से भरे हुए हैं। बड़े दुख की बात है कि सनातन धर्म के नाम पर मिथ्या बातों का प्रचार किया जा रहा है। मैं सनातनियों से प्रार्थना करता हूं कि वे मिथ्या प्रचार की इस हीन प्रवृति को रोकें।’’ 
‘‘आपने यदि इस हरिजन प्रवृति का महत्व समझा होता, तो मुझे हजारों की जगह लाखों रुपए दिये होते। परन्तु धन तो अस्पृश्यता का अंत नहीं कर सकता। वह तो तभी हो सकता है, जब सवर्ण हिन्दुओं के हृदय पिघल जाए। दाताओं ने यदि अनुभव कर लिया है कि अस्पृश्यता धर्म पर कलंक है, तो उनके दान का महत्व सैकड़ों गुना बढ़ जाता है। यह तो आत्मा शुद्धि की प्रवृति है। संख्या से इस प्रवृति का कोई संबंध नहीं। ...धर्म के नाम पर अपने पांच करोड़ भाइयों के प्रति हम जो अत्याचार कर रहे हैं, उसके लिए यदि दुनिया हमारे धर्म से घृणा करे तो यह उचित ही है। यदि कोई शुद्ध रीति से शास्त्रों को, गीता को और वेदों को पढ़े, तो उस धर्मग्रन्थों में उसे कहीं अस्पृश्यता नहीं मिलेगी। आज तो हम हिन्दू धर्म को भूल बैठे हैं।’’ 
‘‘...काली झंडियां दिखानेवालों का मुझे उतना ही ख्याल है, जितना सुधारकों का ...पर सत्य के अनुकूल आचरण करना मैं अपना धर्म समझता हूं। धर्म को कैसे छोड़ दूं ? ईश्वर क्या कहेगा ? सवर्ण हिन्दू मेरा निरादर करें, मुझ पर पत्थर फेंके या बम या रिवाल्वर चलावें, ऐसी बातों से मैं डिगने का नहीं। ...जो सनातनी धर्म का इजारा लेकर बैठ गये हैं, उनसे मैं कहना चाहता हूं कि जिन शास्त्रों को वे मानते हैं, मैं भी उन्हीं को मानता हूं, परन्तु हमारा मतभेद तो शास्त्रों का अर्थ लगाने में है।’’ 
‘‘...हरिजन आन्दोलन ऊंच-नीच के भाव तक ही सीमित है, रोटी-बेटी संबंध से इसका कोई वास्ता नहीं। ...मंदिर प्रवेश के विषय में यह बात है कि जब तक किसी मंदिर में पूजा करने वाले सवर्ण हिन्दुओं का काफी बहुमत उसके पक्ष में न हो, तब तक वह हरिजनों के लिए न खोला जाए। मंदिर तो हमारे प्रायश्चित स्वरूप ही खुलने चाहिए...।’’ 
24 जुलाई को कानपुर में तिलक हाॅल का उद्घाटन करते हुए गांधीजी ने कहा - ‘‘...जब मैं पहली बार कानपुर आया था, तब मेरी यहां किसी से जान-पहचान नहीं थी। कानपुर आकर मैं गणेश शंकर विद्यार्थी को कैसे भूल सकता हूं ? उन्होंने ही मुझे अपने यहां टिकाया था। उस समय किसी और में यह हिम्मत नहीं थी। ...सद्भावना से तिलक महाराज भी उसी दिन इस नगर में आये थे। उनको उस जमाने में अपने घर टिकाना आसान काम न था। निर्भीक युवक गणेश शंकर से ही वह संभव था। इस नगर के साथ उनकी स्मृति हमारे हृदय में जुड़ी हुई है। ...उन्होंने वीर मृत्यु पायी। उनको इस अवसर पर मैं कैसे भूल सकता हूं ?’’ 
‘‘...तिलक महाराज ने अपना सारा ही जीवन भारत की उन्नति के लिए दे दिया। ...यदि वह हिन्दू धर्म को नहीं जानते थे, तो उसे कोई नहीं जानता। ...परन्तु उन्होंने कभी ख्याल नहीं किया कि हम उच्च हैं और वे नीच हैं। उनके साथ मैंने इस विषय पर काफी बहस की थी। ...उनकी विद्वता, उनकी आत्मशुद्धि और उनका संयम तो जब तक हिन्दुस्तान जीवित रहेगा, सारी दुनिया में अमर रहेगा। ...तिलक महाराज का यह स्मारक अमर रहे, ईश्वर से मेरी यही प्रार्थना है।’’ 
24 जुलाई को कानपुर में प्रान्त के विविध स्थानों से आये हरिजन कार्यकर्ताओं को लगभग तीन घंटे का समय गांधीजी ने दिया और कार्य करने की पद्धति तथा उनकी कठिनाइयों के संबंध में उन्हें उपयुक्त परामर्श दिया। 
शाम को विद्यार्थियों एवं हरिजनों की एक संयुक्त सभा में भाषण करते हुए गांधीजी ने कहा - ‘‘...यदि हिन्दुस्तान के विद्यार्थी अपने अवकाश का समय हरिजन सेवा में लगा दें, तो अस्पृश्यता निवारण की गति दस गुनी तेज हो जाए। अपने भाइयों की सेवा करना ही तो शिक्षा का श्रेष्ठ अंश है।’’ मेहतरों के मानपत्र का उत्तर देते हुए उन्होंने कहा - ‘‘आप लोग समाज की जो सेवा करते हैं, वह एक पवित्र धंधा है। जो आपसे घृणा करते हैं, अधर्म करते हैं, पर आप भी शौचादि के नियमों का पालन करें, मुर्दार मांस खाना छोड़ दें, दारू पीना और जुआ खेलना छोड़ दें।’’ 
गंधीजी ने लगातार दो दिनों तक कानपुर नगर की हरिजन बस्तियों का निरीक्षण किया। उन्होंने फाब्र्स कंपाउण्ड, विपत खटिक का हाता, लक्ष्मीपुरवा, हड्डी गोदाम, मीरपुर, मोतीमहल, बैरहना, केटल बैरक और ग्वालटोली की बस्तियों को बड़े ध्यान से देखा और वहां रहनेवाले हरिजनों से पूछताछ की। लक्ष्मीपुरवा, हड्डी गोदाम, बैरहना और ग्वालटोली की बस्तियों की दुर्दशा देखकर उन्हें बड़ा क्लेश हुआ और उन्होंने इनमें तुरन्त सुधार किये जाने की आवश्यकता की ओर नागरिकों तथा म्युनिस्पल अधिकारियों का ध्यान आकर्षित किया।
25 जुलाई को सुबह कुछ घंटे गांधीजी ने लखनऊ में बिताये। यहां उन्होंने दो भाषण दिये। पहले महिलाओं की सभा में, बाद में सार्वजनिक सभा में। सनातनियों का एक मानपत्र भी उन्होंने स्वीकार किया। इन सभी सभाओं में उन्होंने यही कहा कि अस्पृश्यता हिन्दू धर्म पर लगा हुआ महान कलंक और मनुष्यता के विरूद्ध अपराध है तथा हिन्दू धर्म की रक्षा के लिए ही यह आवश्यक है कि हम अपनी त्रुटियों का सुधार करें और प्रायश्चित भावना से हरिजन भाइयों को गले लगायें। 
गंधीजी 27 जुलाई को कानपुर से काशी आ गये। इस पवित्र पुरी में ही आत्मशुद्धि के इस प्रवास यज्ञ की पूर्णाहुति वह करना चाहते थे। पर शुरू के कई दिन अन्य कार्यो में ही निकल गये। 29 जुलाई को अखिल भारतीय हरिजन सेवक संघ की बैठक में वह जरूर शामिल हुए और संघ के आय-व्यय, उसके प्रबंधन कार्य और हरिजन सेवकों के लिए एक प्रशिक्षण संस्था स्थापित करने की आवश्यकता पर एक घंटे से भी ज्यादा बोले। 
28-29 जुलाई को काशी विद्यापीठ में हरिजन सेवक संघ के केन्द्रीय बोर्ड की बैठक हुई थी। 29 जुलाई को बैठक के अंत में सदस्यों को संबोधित करते हुए गांधीजी ने कहा - ‘‘दो प्रश्न हैं जिनके संबंध में मुझे आप लोगों से कुछ कहना है- एक तो यह कि संघ का गठन किस प्रकार का हो, दूसरे एक ऐसी प्रशिक्षण संस्था, जिसमें सदस्य या कार्यकर्ता हरिजन सेवा की शिक्षा पा सकें। ...मैं इस नतीजे पर पहुंचा हूं कि चुनाव या जनतंत्र जैसी किसी चीज के लिए हमारे संघ में स्थान नहीं है। हमारी संस्था तो एक भिन्न प्रकार की है। मामूली अर्थ में वह कोई लोक संस्था नहीं है। हम तो एक प्रकार के ट्रस्टी हैं, जिन्हें हमने अपने आप नियुक्त कर रखा है। पैसा केवल ट्रस्टी के रूप में हम अपने पास रखते हैं और केवल हरिजनों के हितार्थ उसका उपयोग करते हैं और इस ढंग से कि वह सीधे हरिजनों की जेब में जाए। हमारे संघ का संगठन इस विचार को सामने रखकर हुआ है कि जिन भाइयों को हमने सदियों से तुच्छ मान रखा है, उनके प्रति हम अपना कर्तव्य पालन करें। ...कुछ लोग कहते हैं कि प्रबंध कार्य में पैसा देने वालों की भी आवाज होनी चाहिए। मेरी राय में वे भूलते हैं। मेरी दृष्टि में तो एक पाई देनेवाला और दस से पचास हजार तक देनेवाला ...समान दाता है। ...घनश्यामदास के दस हजार रुपयों से भी उस एक पाई की कीमत स्यात अधिक हो। उड़ीसा में मैंने खुद अपनी आंखों देखा है कि वहां के गरीब आदमी किस प्रकार अपने फटे-पुराने चीथड़ों की गांठ में बड़े जतन से बंधे हुए पैसे-पाई को बड़े प्रेम से हमारी झोली में डालते थे। हजारों रुपयों की अपेक्षा ...मुझे तो गरीब की गांठ की वह कौड़ी ही पाकर अधिक आशा और प्रसन्नता हुई है। आत्मशुद्धि के इस यज्ञ में गरीब की कौड़ी के बिना हजारों की थैलियां किसी अर्थ की नहीं। किन्तु आपके उस जनतंत्र में उन हजारों गरीबों को तो वोट मिलेगा नहीं, प्रबंध में उन बेचारों की तो आवाज होगी नहीं। हम उनके नाम तक तो जानते नहीं। फिर भी हमारी उनके प्रति उतनी ही या उससे भी अधिक जवाबदेही है, जितनी हजारों की थैलियां देनेवाले बड़े-बड़े धनियों के प्रति। हमारी तो यह एक दातव्य संस्था है, जिसका अस्तित्व प्रामाणिक और योग्य प्रबंध पर निर्भर करता है। ...मेरे लिए तो यह विशुद्ध सेवा और प्रायश्चित का ही आन्दोलन है। ...’’ 
इसके बाद गांधीजी ने आजीवन हरिजन सेवा करनेवालों का महत्व बताते हुए उनके लिए दक्षिण अफ्रीका के ट्रेपिस्ट मिशन जैसी कोई शिक्षण संस्था बनाने की आवश्यकता पर जोर दिया। 
31 जुलाई को गांधीजी विविध हरिजन शिक्षणशालाओं के लगभग 500 बच्चों से मिले। उन्होंने कहा - ‘‘बच्चों को देखकर हमें संतोष नहीं हुआ। वे ठीक तरह से साफ-सुथरे नहीं रखे जाते। हरिजन पाठशालाओं के शिक्षकों को सबसे पहले तो सफाई पर ही ध्यान देना चाहिए। स्वच्छता ही तो धर्म का सार है।’’ 
31 जुलाई को सार्वजनिक सभा हुई। सभा कई दृष्टियों से अपूर्व थी। गांधीजी के विरूद्ध जहर उगलनेवाले बड़े ही गंदे पर्चे बांटे गये थे। आशंका थी कि सभा में कहीं कोई अनिष्ट न हो, परन्तु सब आशंकाएं निर्मूल निकलीं। सभा बड़े शान्त वातावरण में हुई। काशी के विद्वान पंडितों के मंडल ने भी गांधीजी को एक मानपत्र भेंट किया। एक विशेष आनंद की बात यह थी कि वर्णाश्रम स्वराज्य संघ तथा भारत धर्म महामंडल के प्रतिनिधि स्वरूप पं. देवनायकाचार्य जी को मुख्य शिकायत मंदिर प्रवेश बिल के संबंध में थी। उनके बाद मालवीयजी महाराज ने अस्पृश्यता निवारण के समर्थन में संक्षिप्त किन्तु जोरदार भाषण दिया तथा शास्त्रों से अनेक प्रमाण देते हुए यह सिद्ध किया कि हरिजनों को भी अन्य हिन्दुओं की तरह समस्त सामाजिक और धार्मिक अधिकार मिलने चाहिए। इस सभा में भाषण देते हुए गांधीजी ने कहा - ‘‘...हरिजन आन्दोलन धार्मिक आन्दोलन है। इसमें दुराग्रह को स्थान नहीं है। मैं कितना ही जतन क्यों न करूं, मुझसे भी गलतियां हो सकती हैं और हुई भी हैं। ...जिस रूप में अस्पृश्यता इस समय मौजूद है, उसके लिए शास्त्र में स्थान नहीं है। अस्पृश्यता हिन्दू धर्म पर कलंक है। ...जलाशय पर एक कुत्ता भले ही चला जाए, परन्तु प्यासा हरिजन बालक वहां नहीं जा सकता। यदि गया तो मार खाने से बच नहीं सकता। इस समय की अस्पृश्यता मनुष्य को कुत्ते से भी हीन मानती है। ...ऐसी अस्पृश्यता को शास्त्र सम्मत न मेरी बुद्धि मान सकती है, न मेरा हृदय। ...काशी के पंडितों की ओर से मुझे जो स्वागत पत्र मिला है, उसके लिए मैं आभार मानता हूं। उसे मैं आप लोगों का आशिर्वाद समझता हूं।’’ 
1 अगस्त को हिन्दू विश्वविद्यालय की सभा में भाषण करते हुए गांधीजी ने कहा - ‘‘हिन्दू विश्वविद्यालय मेरे लिए कोई नयी वस्तु नहीं है। जब से यह आरंभ हुआ, तभी से मालवीयजी महाराज ने मेरा संबंध उससे बांध दिया है और आजतक वैसा ही बना हुआ है। ...मुझे आशा है कि विद्यार्थी लोग विद्या प्राप्त करके उसका सद्व्यय करेंगे और संकुचित अर्थ में धर्म को ग्रहण नहीं करेंगे।’’ इसके बाद आचार्य ध्रुव के अनुरोध पर गीता द्वारा अपने जीवन पर पड़े प्रभावों का उन्होंने उल्लेख किया। 
2 अगस्त को हरिश्चन्द्र हाई स्कूल में जुड़ी महिलाओं की सभा में भाषण करते हुए गांधीजी बोले - ‘‘...हिन्दू धर्म में बहुत दिनों से छुआछूत का भूत दाखिल हो गया है, जिससे दया और धर्म प्रतिदिन क्षीण होते जा रहे हैं। हम सब एक ही ईश्वर के बनाये हैं। तब कोई उनमें भेद-भाव कैसे कर सकता है ? ...शास्त्र यही समझता है कि सबसे महान यज्ञ इस जगत में सत्य है। आप माताओं से मेरी प्रार्थना है कि छुआछूत के भूत को भूल जाए। ...दूसरी बात यह है कि आपको विदेशी तथा मिलों के वस्त्र को त्याग देना चाहिए और खद्दर पहनना चाहिए। तीसरी बात, सब माताओं को कुछ न कुछ विद्याभ्यास करना चाहिए। चैथी बात यह कि आभूषणों का त्याग करें। माताओं की शोभा आभूषणों से नहीं, हृदय से है। ...हे राष्ट्र की माताओं, हे धर्म की रक्षिकाओं, तुम्हारा कल्याण हो। भगवान हमारी पवित्र भारत भूमि का भला करें।’’ 
2 अगस्त को गांधीजी ने इंग्लिसिया लाइन, चेतगंज, मलदहिया और कबीरचैरा की बस्तियां देखीं। फिर कबीर मठ में गये। वहां की स्वच्छता और सादगी से तथा इस सूचना से उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुई कि कबीरपंथियों में अस्पृश्यता नहीं मानी जाती। 
इस प्रकार गांधीजी का देशव्यापी हरिजन प्रवास समाप्त हुआ। इस यात्रा में लगभग 8 लाख रुपए एकत्र हुए। करोड़ों व्यक्तियों तक अस्पृश्यता निवारण का संदेश पहुंचा और देश में अभूतपूर्व जागृति आयी, छुआछूत की भावना कम हुई, सैकड़ों मंदिरों के द्वार हरिजनों के लिए खुल गये और उनकी दुर्दशा की ओर सरकार, स्थानीय सभाओं तथा जनता का ध्यान गया।

गुरुवार, 26 सितंबर 2013

बापू ने कहा था

भाग दो आखिरी
नव भारत के निर्माण में महात्मा गांधी के योगदान को उनके भाषण से समझा जा सकता है। अहिंसा के बल पर उन्होंने जो आन्दोलन चलाया, आगे चलकर उसने पूरे विश्व को एक नई दिशा दी। उन्होंने न सिर्फ अंग्रेजों के खिलाफ अपना आन्दोलन चलाया, बल्कि एक स्वस्थ भारत के निर्माण में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। दरअसल बापू भारत में पैठ जमा चुके ऊंच-नीच, छुआछूत और जाति, वर्गों में बंट रहे समाज को लेकर भी काफी चिंतित थे। उनके भाषणों से यह साफ दिखता है। सूचना एवं जनसम्पर्क विभाग, उत्तर प्रदेश ने एक किताब प्रकाशित किया है। इस पुस्तक का नाम है ‘उत्तर प्रदेश में गांधी जी’। इसके लेखक हैं श्रीरामनाथ ‘सुमन’। बापू के भाषणों के अंश यहां इसी पुस्तक से दिए जा रहे हैं। आशा है, पाठक इससे लाभान्वित हो सकेंगे। 
23 नवम्बर, 1920 को महात्मा गांधी ने आगरा के विद्यार्थियों की सभा में भाषण करते हुए कहा - ‘‘...प्रचलित शिक्षा पद्धति हमें कायरता सिखाती है। ...जो तालीम हमारे भय को पुष्ट करती है, वह किस काम की ? जिस शिक्षा में सच्चाई से चलने का अवकाश नहीं, देश-भक्ति का अवकाश नहीं, वह कैसी शिक्षा है ?’’ 
26 नवम्बर, 1920 को काशी में ‘‘...आप जिन परिस्थितियों में पढ़ते हैं, उनमें ऐसी ही शिक्षा मिलती है कि मन में मनुष्य का डर रखना पड़े। परन्तु मैं तो उसे सच्चा एम.ए. कहूंगा जिसने मनुष्य का डर छोड़ कर ईश्वर का डर रखना सीखा हो। ...अंग्रेज इतिहासकार कहते हैं, भारत में तीन करोड़ लोगों को दिन में दो बार पेट भर खाने को नहीं मिलता। बिहार में अधिकांश लोग सत्तू नामक निःसत्व खुराक खाकर रहते हैं। जब भुनी हुई मक्की का यह आटा, पानी और लाल मिर्चों के साथ गले के नीचे उतारते हुए मैंने लोगों को देखा, तो मेरी आंखों से आग बरसने लगी। ...ऐसी स्थिति में आप निश्चिन्त होकर कैसे बैठ सकते हैं? ...यदि हमें आजादी से खाने को न मिले, तो हममें भूखों मरकर आजाद होने की ताकत आनी चाहिए। ...मैं कहता हूं कि यह हुकूमत राक्षसी है, इसलिए उसका त्याग करना हमारा धर्म है। ...शान्तिमय असहयोग करने की ताकत आप में न आये, तो भारत नष्ट हो जायेगा।’’ 
18 अक्तूबर, 1925 को सीतापुर में अस्पृश्यता विरोधी सम्मेलन था। यह सम्मेलन शाम के वक्त हुआ। राजा साहब महेवा इसके अध्यक्ष थे। इसमें गांधीजी ने कहा - ‘‘मैं स्वर्गीय गोखले के इस कथन से पूरी तरह सहमत हूं कि भारतीय अपने कुछ देशवासियों को अस्पृश्य मानकर सारी दुनिया में अस्पृश्य हो गये हैं। ...मेरा निश्चित विश्वास है कि हिन्दू धर्म में अस्पृश्यता का कोई स्थान नहीं है। किसी भी मानव के प्रति अस्पृश्यता का व्यवहार करना पाप है, इसलिए तथाकथित उच्च जाति के लोगों को अस्पृश्यों के बजाय अपनी ही शु़ि़द्ध करनी चाहिए।’’ 
.... 1931 में जब गांधीजी गोलमेज सम्मेलन में गये थे, तब अल्पसंख्यक जातियों के विशेष प्रतिनिधित्व पर बोलते हुए हरिजनों को अलग प्रतिनिधित्व देकर सदा के लिए उनको हिन्दुओं से अलग कर देने की नीति की जबर्दस्त टीका की और यह भी कह दिया था कि ऐसे किसी प्रयत्न का मैं प्राणों की बाजी लगाकर भी विरोध करूंगा। जेल में भी उन्होंने 11 मार्च, 1933 को भारत सचिव को अपना निश्चय दोहराते हुए सूचना दे दी थी। अगस्त में ब्रिटिश सरकार की ओर से प्रधानमंत्री श्री रैमजे मैकडानल्ड का निर्णय प्रकाशित हुआ। इसमें वही सब बातें थीं। 18 अगस्त को गांधीजी ने उन्हें लिखा कि निर्णय में परिवर्तन न होने की स्थिति में 21 सितम्बर से मैं आमरण अनशन करूंगा। ठीक समय पर गांधीजी ने अपना आमरण उपवास शुरू किया। इससे बड़ा तहलका मचा। अंत में 26 सितम्बर को उच्चवर्गीय हिन्दू नेताओं एवं अछूतों के नेताओं के बीच एक समझौता हो गया, जिसे सरकार द्वारा भी स्वीकार कर लिया गया और गांधीजी का उपवास समाप्त हुआ। उच्च वर्ण के हिन्दू नेताओं ने अस्पृश्यता निवारण का कलंक दूर करने की जिम्मेदारी ली थी, इसलिए दिल्ली में अस्पृश्ता निवारण संघ (बाद में हरिजन सेवक संघ) की स्थापना की गयी और इस दिशा में काफी काम भी हुआ, किन्तु गांधीजी को ऐसा प्रतित हुआ कि आन्दोलन पूर्ण सच्चाई और पवित्रता के साथ नहीं चल रहा है। सवर्ण हिन्दुओं का दिल जैसा बदलना चाहिए, नहीं बदला है। इससे उन्हें दुख हुआ और इसे अपनी ही आत्मिक अपूर्णता मानकर उन्होंने बिना किसी शर्त के 8 मई, 1933 से 21 दिन का उपवास करने की घोषणा की। पिछले उपवास में 6 दिनों में ही उनकी हालत बड़ी खराब हो गयी थी, इसलिए न सरकार, न जनता को यह आशा थी कि वह 21 दिन का उपवास पूरा कर सकेंगे। सरकार ने उन्हें रिहा कर दिया, किन्तु छूटने के बाद भी पूना (पर्णकुटी) में रहकर उन्होंने अपना उपवास जारी रखा। प्रभु की कृपा से उपवास पूरा हुआ। 
उनके उपवास से सारे देश का ध्यान उधर ही खिंच गया। 14 जुलाई को सामूहिक सत्याग्रह का आन्दोलन उठा लिया गया। हां, व्यक्तिगत सत्याग्रह की छूट रही। गांधीजी ने साबरमती का सत्याग्रह आश्रम तोड़ दिया और अपना यह निश्चय प्रकट किया कि 1 अगस्त को आश्रम के 32 साथियों के साथ रास स्थान की ओर प्रस्थान करेंगे, जहां किसानों की स्थिति बहुत खराब हो रही थी। 31 जुलाई की रात में उन्हें गिरफ्तार कर पूना के यरवदा जेल में भेज दिया गया। 4 अगस्त को वह इस शर्त के साथ छोड़ दिये गये कि पूना नगर की सीमा के बाहर न जाए, किन्तु गांधीजी ने आज्ञा भंग की और गिरफ्तार कर लिये गये तथा उन्हें एक वर्ष की सादी कैद हुई। 
जेल में हरिजन कार्यों की सुविधा न देने पर गांधीजी ने पुनः उपवास करने का निश्चय किया। बार-बार उपवास से उनका स्वास्थ्य काफी खराब हो गया था। 21 अगस्त को वह सासून अस्पताल ले जाये गये। उनकी हालत तेजी से बिगड़ने लगी। 23 अगस्त को जब उनकी स्थिति खतरनाक हो गयी, सरकार ने उन्हें बिना शर्त रिहा कर दिया। उन्होंने अस्पताल छोड़ने के पूर्व उपवास तोड़ा और पर्णकुटी में रहने लगे। छूटने पर उन्होंने अपना ध्यान हरिजन कार्य में केन्द्रित करने का इरादा जाहिर किया। 
सितम्बर, 1933 में वह सत्याग्रह आश्रम वर्धा चले गये। वहां 6 सप्ताह तक विश्राम करने के बाद उन्होंने अस्पृश्यता निवारण के लिए संपूर्ण देश का दौरा करने का निश्चय किया। यह दौरा वर्धा से ही 7 नवम्बर, 1933 को शुरू हुआ। 
अप्रैल, 1936 में कांग्रेस का अधिवेशन लखनऊ में हुआ। जवाहरलाल जी इसके अध्यक्ष थे। इस अवसर पर कुछ पहले से ही चरखा संघ तथा अखिल भारतीय ग्रामोद्योग संघ ने मिलकर एक विशाल प्रदर्शनी का आयोजन किया था। 28 मार्च को गांधीजी ने इस प्रदर्शन का उद्घाटन किया। इस अवसर पर भाषण देते हुए गांधीजी ने कहा - ‘‘ ...इस तरह की प्रदर्शनी के बारे में बरसों से अपने दिल में जो कल्पना मैं रखता आया था, उसको मैं इस प्रदर्शनी में देखता हूं। 1920 में पहली बार हमारा ध्यान गांवों की ओर गया। ...अहमदाबाद की कांग्रेस के साथ जो प्रदर्शनी हुई थी, उसमें मैंने इस विषय में, अपनी कुछ कल्पनाओं को मूर्त रूप देने की चेष्टा की थी। ...मैंने सदा ही कहा है कि हिन्दुस्तान हमारे चंद शहरों से नहीं, सात लाख गांवों से बना है। ...इन देहातों की जो हालत है, उसे मैं खूब जानता हूं। मेरा ख्याल है कि हिन्दुस्तान को घूमकर जितना मैंने देखा है, उतना कांग्रेस के नेताओं में से किसी ने नहीं देखा है। ...हिन्दुस्तान के देहातों को शहरवालों ने इतना चूसा है कि उन बेचारों को अब रोटी का एक टुकड़ा भी समय पर नहीं मिलता। कहीं तो सिर्फ सत्तू खाकर जीते हैं। ...खादी के अलावा दूसरे भी धंधे हैं, जो गांव वालों के जीवन के लिए बहुत आवश्यक और उपयोगी है और जिनसे उनकी हालत, एक बड़ी सीमा तक सुधारी जा सकती है। इसके लिए हमें यह देखना है कि देहातवाले कैसे रहते हैं, क्या काम करते हैं और उनके काम को कैसे तरक्की दी जा सकती है। 
‘‘ ...इस बार की प्रदर्शनी अपने ढंग की पहली प्रदर्शनी है। इसकी रचना के पीछे कल्पना मेरी है। ...इस नुमाइश के जरिये हम दिखाना चाहते हैं कि भूख से बेहाल इस हिन्दुस्तान में भी आज ऐसे हुनर, उद्योग-धंधे और कला-कौशल मौजूद हैं, जिनका हमें कभी ख्याल भी नहीं होता। इस नुमाइश की यही विशेषता है। ...इसे कुछ सीखने की दृष्टि से देखें, तमाशे की दृष्टि से नहीं। जो एक बार इस नुमाइश को देख लेगा, उसे फौरन ही पता चल जाएगा कि हिन्दुस्तान के देहातों में अब भी इतनी ताकत भरी पड़ी है। देहातों की इस ताकत को पहचान कर जो 28 करोड़ देहातियों की सेवा करता है, वही कांग्रेस का सच्चा सेवक है। जो इन करोड़ों की सेवा नहीं करता है, वह कांग्रेस का सरदार या नेता हो सकता है, सेवक या बंदा नहीं बन सकता।’’ गांधीजी लगभग 15 दिन लखनऊ रहे। वह कांग्रेस अधिवेशन में शरीक नहीं हुए।

बुधवार, 25 सितंबर 2013

बिहार महादलित विकास मिशन की योजनाएं

खास रपट
दशरथ मांझी कौशल विकास योजना: योजना का मकसद महादलित युवकों एवं युवतियों को निःशुल्क व्यावसायिक प्रशिक्षण देकर उनके लिए रोजगार सुनिश्चित करना, जिससे महादलितों का आर्थिक एवं शैक्षणीक विकास हो सके। प्रशिक्षण के दौरान मिशन के द्वारा स्टाईपेंड (75 रुपये प्रति प्रशिक्षण दिन) एवं प्रशिक्षण पाठ्य-सामग्री, प्रशिक्षण टूल-किट दिया जाएगा। दशरथ मांझी कौशल विकास योजना के अंतर्गत नौ व्यावसायिक प्रशिक्षण पाठ्यक्रम राज्य के जिला मुख्यालय में चलाया जा रहा है। इस योजना में महिलाओं को विशेष प्राथमिकता दी जा रही है। 
मुख्यमंत्री महादलित पोशाक योजना: इस योजना के तहत सरकारी विद्यालयों में पढ़ने वाले 1 से 5 वर्ग तक के सभी महादलित छात्र-छात्राओं को 500 रुपए पोशाक, जूता आदि क्रय करने हेतु नगद राशि उपलब्ध करायी जाती है। अगले वर्ष इस योजना के अंतर्गत पहले और दूसरे वर्ग के छात्र-छात्राओं को मिशन के द्वारा लाभांवित किया जायेगा। तीसरे से पांचवे वर्ग तक के छात्र-छात्राओं को मानव संसाधन विकास विभाग द्वारा लाभांवित किया जायेगा। 
विकास मित्र: विकास मित्र सरकार के सभी योजनाओं को महादलितों के विकास हेतु प्रभावी ढंग से कार्यान्वयन के लिए प्रत्येक पंचायत (ग्रामीण) एवं वार्ड (शहरी) में एक-एक विकास मित्र का चयन करने की योजना है। प्रत्येक पंचायत एवं वार्ड समूह में जिस महादलित जाति की बहुलता होगी, उसी जाति से विकास मित्र का चयन किया जायेगा। विकास मित्र के चयन में 52 प्रतिशत महिलाओं का चयन किया जायेगा। प्रतिमाह 3000 रुपए मानदेय का भुगतान किया जायेगा। विकास मित्र सरकार एवं महादलित परिवारों के बीच एक कड़ी की रुप में एवं महादलित समुदाय में एक एजेंट के रुप में कार्य करेंगे। संपूर्ण राज्य में लगभग 10,000 विकास मित्रों का चयन मार्च, 2010 तक करने की योजना है। 
महादलित शौचालय निर्माण योजना: संपूर्ण स्वच्छता अभियान के तहत व्यक्तिगत शौचालय निर्माण हेतु महादलित परिवार (लाभार्थी) के  सहांश (योगदान) 300 रुपए प्रति परिवार को बिहार महादलित विकास मिशन की ओर से देकर निःशुल्क शौचालय निर्माण की कार्रवाई सभी जिलों में की जा रही है। इस योजना के तहत 7.00 करोड़ रुपए की राशि मिशन के द्वारा जिला जल एवं स्वच्छता समिति को उपलब्ध करा दी गई है, जिससे 2,33,333 शौचालयों का निर्माण किया जाना है। 
मुख्यमंत्री महादलित रेडियो योजना: महादलितों को मुख्यधारा में जोड़ने एवं प्रभावी जीवन दृष्टि बनाने हेतु इस योजना के तहत प्रत्येक परिवार को ट्रांजिस्टर क्रय करने के लिए 400 रुपए दिया जाना है। 
सामुदायिक भवन-सह-वर्कशेड: सामुदायिक भवन-सह-वर्कशेड का मकसद महादलित टोला में एक ऐसे भवन का निर्माण करना है, जहां महादलितों के सामाजिक कार्यों के निर्वाहन के साथ-साथ बौद्धिक, सांस्कृतिक एवं खेलकूद की गतिविधियों का विकास हो सके। जिला प्रशासन द्वारा चयनित एवं अनुशंसित पंचायतों, जहां महादलितों की अधिक आबादी है, में कम से कम एक सामुदायिक भवन निर्माण करने का लक्ष्य है। 
सहायता (कॉल सेंटर): ‘सहायता’ बिहार महादलित विकास मिशन द्वारा स्थापित पूर्णतः कम्प्यूटरीकृत आधुनिक सुविधाओं से युक्त कॉल सेंटर है। इस कॉल सेंटर की स्थापना मुख्य रुप से अनु. जाति एवं अनु. जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम 1989 एवं नियम 1995 के अंतर्गत की गई है। ‘सहायता’ अनु. जाति एवं अनु. जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम के अंतर्गत आने वाले शिकायतों को प्राप्त करेगा और उसका समुचित निराकरण करने में अभिवंचित वर्ग की सहायता करेगा। इस कार्य के अतिरिक्त ‘सहायता’ बिहार महादलित विकास मिशन एवं अनु. जाति एवं अनु. जनजाति कल्याण विभाग की योजनाओं से संबंधित जानकारी मांगकर्ता तक पहुंचाएगी। साथ ही मिशन एवं विभाग से जुड़ी समस्याओं को भी लाभुकों, जो अभिवंचित वर्ग के सदस्य हैं, से प्राप्त कर समाधान के लिए संबंधित अधिकारी एवं विभाग को प्रेषित करेगी। ‘सहायता’ कॉल सेंटर की तरह कार्य कर रहा है। इस हेतु एक टॉल फ्री नं. 18003456345 बीएसएनएल से लिया गया है, जिसपर एक साथ 30 कॉल आने जाने की सुविधा है। 
महादलित आवास भूमि योजना: भूमिहीन, आवासहीन महादलित परिवारों का सर्वेक्षण कराकर, चिन्हित कर प्रति परिवार 3 डेसिमल भूमि उपलब्ध कराने का प्रावधान है। राजस्व एवं भूमि सुधार विभाग द्वारा इस हेतु एक हाउस साइट स्कीम तैयार कर इस योजना को क्रियान्वित किया जा रहा है। भूमि की बंदिबस्ति महिलाओं के नाम से किया जायेगा। 
महादलित जलापूर्ति योजना: महादलित जलापूर्ति योजना में प्रत्येक महादलित बस्ती, जिसकी अबादी कम से कम 125 हो, में एक स्वच्छ पेयजल का स्त्रोत उपलब्ध कराना है। इससे महिलाओं को पानी लाने के लिए अतिरिक्त श्रम नहीं करना पड़ेगा। साथ ही लोगों की स्वास्थ्यगत स्थिति में सुधार आयेगी। 
मुख्यमंत्री नारी ज्योति कार्यक्रम: इस योजना के अंतर्गत महादलित महिलाओं का स्वयं सहायता समूह गठित कर उनका आर्थिक सशक्तिकरण किया जाना है। गया, मुजफ्फरपुर, खगडि़या, नवादा जिलों में डेयरी, बकरी एवं कुकुट पालन हेतु स्वयं सहायता समुहों को आर्थिक सहायता दिया जायेगा। 
महादलित क्रेश: महादलित बस्तियों में आंगनबाड़ी केन्द्र के साथ एक-एक क्रेश खोलने का भी प्रस्ताव है। इसमें तीन वर्ष तक के बच्चों की देखरेख करने की व्यवस्था होगी। क्रेश खोलने से वे बच्चियां विद्यालय जा सकेंगी, जिन्हें घर में बच्चों की देखभाल के लिए रुक जाना पड़ता है। प्रायोगिक स्तर पर गया जिला में इस योजना की शुरुआत की जायेगी। 
धनवंतरी मोबाइल चिकित्सा योजना: महादलितों की बस्ती में स्वास्थ्य परीक्षण के लिए विशेष मोबाइल आयुर्वेदिक वैन चलाया जायेगा। योजना के कार्यांवयन के संबंध में विचार-विमर्श कर एक कार्ययोजना का निर्माण किया गया है, जिसके तहत राज्य को विभिन्न जोन मे बांटकर चिकित्सा, औषधि एवं जांच किट सहित वैन निश्चित स्थान एवं समय पर महादलित टोलों में उपलब्ध कराया जायेगा। इस योजना का कार्यान्वयन स्वास्थ्य विभाग द्वारा किया जायेगा। इसमें महिलाओं के स्वास्थ्य पर विशेष ध्यान दिया जायेगा। 
महादलित स्वास्थ्य-कार्ड योजना: महादलित बस्ति में स्वास्थ्य परीक्षण के लिए विशेष अभियान चलाने हेतु परिवार को एक स्वास्थ्य कार्ड दिये जाने की योजना है। इस योजना का कार्यान्वयन स्वास्थ्य विभाग द्वारा किया जा रहा है। 
सामुदायिक रेडियो: महादलित वर्ग के कलाकारों को सम्मिलित कर रेडियो कार्यक्रम तैयार किया जायेगा एवं लोकगीत, लोककथा, लोकनृत्य आदि को प्रसारित किया जाएगा। अतः विभिन्न भाषायी केन्द्रों पर रेडियो खोलने का प्रस्ताव है। इसमें प्रथमिकता के आधार पर उनके लोकज्ञान को तो प्रदर्शित किया जाएगा, साथ ही सरकारी कार्यक्रमों की भी जानकारी दी जाएगी। 
महादलित बस्ती संपर्क योजना: महादलित बस्ती संपर्क योजना महादलित बस्तियों को ग्रामीण पथ से जोड़ने की एक महत्वपूर्ण योजना है। 
अनुसूचित जाति आवासीय विद्यालय: जिले के सभी अनुसूचित जाति आवासीय विद्यालयों में केन्द्रीयकृत प्रवेश परीक्षा प्रणाली को लागू कराकर 60 प्रतिशत स्थान को महादलित समुदाय के लिए आरक्षित किया गया है। इसके अतिरिक्त महादलित वर्ग के छात्र-छात्राओं के लिए शिक्षण संबंधी कई योजनाओं को अंतिम रुप दिया जा रहा है। इसे शीघ्र ही कार्यान्वित किया जायेगा। 
महादलित आंगबाड़ी: महादलित बस्तियों में 500 परिवार पर कम-से-कम एक मिनी आंगंबाड़ी खोलने की योजना है।

भारत में दलितों की दशा और दिशा

खास रपट
दलित हजारों वर्षों तक अस्पृश्य समझी जाने वाली उन तमाम जातियों के लिए सामूहिक रूप से प्रयुक्त होता है जो हिंदू समाज व्यवस्था में सबसे निचले पायदान पर स्थित है। संवैधानिक भाषा में इन्हें ही अनुसूचित जाति कहा गया है। भारत की जनसंख्या में लगभग 85 प्रतिशत आबादी दलितों की है। 
दलित शब्द का शाब्दिक अर्थ है दलन किया हुआ। इसके तहत वह हर व्यक्ति आ जाता है जिसका शोषण-उत्पीडन हुआ है। रामचंद्र वर्मा ने अपने शब्दकोश में दलित का अर्थ लिखा है, मसला हुआ, मर्दित, दबाया, रौंदा या कुचला हुआ, विनष्ट किया हुआ। पिछले छह-सात दशकों में ’दलित’ का अर्थ काफी बदल गया है। डॉ. भीमराव अंबेडकर के आंदोलन के बाद यह शब्द हिंदू समाज व्यवस्था में सबसे निचले पायदान पर स्थित हजारों वर्षों से अस्पृश्य समझी जाने वाली तमाम जातियों के लिए सामूहिक रूप से प्रयोग होता है। अब दलित पद अस्पृश्य समझी जाने वाली जातियों की आंदोलनधर्मिता का परिचायक बन गया है। भारतीय संविधान में इन जातियों को अनुसूचित जाति नाम से अभिहित किया गया है। भारतीय समाज में वाल्मीकि या भंगी को सबसे नीची जाति समझा जाता रहा है और उसका पारंपरिक पेशा मानव मल की सफाई करना रहा है। आज भी गांव से शहरों तक में सफाई के कार्यो में इसी जाति के लोग सर्वाधिक हैं। 
भारत में दलित आंदोलन की शुरूआत ज्योतिराव गोविंदराव फुले के नेतृत्व में हुई। ज्योतिबा जाति से माली थे और समाज के ऐसे तबके से संबध रखते थे, जिन्हें उच्च जाति के समान अधिकार नहीं प्राप्त थे। इसके बावजूद ज्योतिबा फूले ने हमेशा ही तथाकथित ‘नीची’ जाति के लोगों के अधिकारों की पैरवी की। भारतीय समाज में ज्योतिबा का सबसे दलितों की शिक्षा का प्रयास था। ज्योतिबा ही वो पहले शख्स थे, जिन्होंने दलितों के अधिकारों के साथ-साथ दलितों की शिक्षा की भी पैरवी की। इसके साथ ही ज्योति ने महिलाओं के शिक्षा के लिए सहारनीय कदम उठाए। भारतीय इतिहास में ज्योतिबा ही वो पहले शख्स थे जिन्होंने दलितों की शिक्षा के लिए न केवल विद्यालय की वकालत की, बल्कि सबसे पहले दलित विद्यालय की भी स्थापना की। ज्योति में भारतीय समाज में दलितों को एक ऐसा पथ दिखाया था, जिसपर आगे चलकर दलित समाज और अन्य समाज के लोगों ने चलकर दलितों के अधिकारों की कई लड़ाई लड़ी। यूं तो ज्योतिबा ने भारत में दलित आंदोलनों का सूत्रपात किया था, लेकिन इसे समाज की मुख्यधारा से जोड़ने का काम बाबा साहब अम्बेडकर ने किया। एक बात और, जिसका जिक्र किए बिना दलित आंदोलन की बात बेमानी होगी, वो है बौद्ध धर्म। ईसा पूर्व 600 ईसवी में ही बौद्ध धर्म ने समाज के निचले तबकों के अधिकारों के लिए आवाज उठाई। बुद्ध ने इसके साथ ही बौद्ध धर्म के जरिए एक सामाजिक और राजनीतिक क्रांति लाने की भी पहल की। इसे राजनीतिक क्रांति कहना इसलिए जरूरी है, क्योंकि उस समय सत्ता पर धर्म का आधिपत्य था और समाज की दिशा धर्म के द्वारा ही तय की जाती थी। ऐसे में समाज के निचले तलबे को क्रांति की जो दिशा बुद्ध ने दिखाई, वो आज भी प्रासांगिक है। भारत में चार्वाक के बाद बुद्ध ही पहले ऐसे शख्स थे, जिन्होंने ब्राह्मणवाद के खिलाफ न केवल आवाज उठाई, बल्कि एक दर्शन भी दिया। जिससे कि समाज के लोग बौद्धिक दासता की जंजीरों से मुक्त हो सकें। 
यदि समाज के निचले तबकों के आदोलनों का आदिकाल से इतिहास देखा जाए, तो चार्वाक को नकारना भी संभव नहीं होगा। यद्यपि चार्वाक पर कई तरह के आरोप लगाए जाते हैं, इसके बावजूद चार्वाक वो पहला शख्स था, जिसने लोगों को भगवान के भय से मुक्त होना सिखाया। भारतीय दर्शन में चार्वाक ने ही बिना धर्म और ईश्वर के सुख की कल्पना की। इस तर्ज पर देखने पर चार्वाक भी दलितों की आवाज उठाते नजर आता हैं ....खैर बात को लौटाते हैं उस वक्त जहां दलितों के अधिकारों को कानूनी जामा पहनाने के लिए भारत रत्न बाबा साहेब भीम राव अंबेडकर ने लड़ाई शुरू कर दी थी। वह वक्त था, जब हमारा देश ब्रिटिश उपनिवेश की श्रेणी में आता था। लोगों के लिए यह दासता का समय रहा हो, लेकिन दलितों के लिए कई मायनों में यह स्वर्णकाल था। 
आज दलितों को भारत में जो भी अधिकार मिले हैं, उसकी पृष्ठभूमि इसी शासन की देन थी। यूरोप में हुए पुनर्जागरण और ज्ञानोदय आंदोलनों के बाद मानवीय मूल्यों का महिमा मंडन हुआ। यही मानवीय मूल्य यूरोप की क्रांति के आदर्श बने। इन आदर्शों की जरिए ही यूरोप में एक ऐसे समाज की रचना की गई, जिसमें मानवीय मूल्यों को प्राथमिकता दी गई। ये अलग बाद है कि औद्योगिकीकरण के चलते इन मूल्यों की जगह सबसे पहले पूंजि ने भी यूरोप में ली। लेकिन, इसके बावजूद यूरोप में ही सबसे पहले मानवीय अधिकारों को कानूनी मान्यता दी गई। इसका सीधा असर भारत पर पड़ना लाजमी था और पड़ा भी। इसका असर हम भारत के संविधान में देख सकते हैं। भारतीय संविधान की प्रस्तावना से लेकर सभी अनुच्छेद इन्हीं मानवीय अधिकारों की रक्षा करते नजर आते हैं। भारत में दलितों की कानूनी लड़ाई लड़ने का जिम्मा सबसे सशक्त रूप में डॉ. अम्बेडकर ने उठाया। डॉ. अम्बेडकर दलित समाज के प्रणेता हैं। बाबा साहब अंबेडकर ने सबसे पहले देश में दलितों के लिए सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक अधिकारों की पैरवी की। साफ तौर पर भारतीय समाज के तात्कालिक स्वरूप का विरोध और समाज के सबसे पिछडे़ और तिरस्कृत लोगों के अधिकारों की बात की। राजनीतिक और सामाजिक हर रूप में इसका विरोध स्वाभाविक था। यहां तक की महात्मा गांधी भी इन मांगों के विरोध में कूद पड़े। बाबा साहब ने मांग की, दलितों को अलग प्रतिनिधित्व (पृथक निर्वाचिका) मिलना चाहिए। यह दलित राजनीति में आजतक की सबसे सशक्त और प्रबल मांग थी। देश की स्वतंत्रता का बीड़ा अपने कंधे पर मानने वाली कांग्रेस की सांसें भी इस मांग पर थम गई थीं। कारण साफ था, समाज के ताने-बाने में लोगों का सीधा स्वार्थ निहित था और कोई भी इस ताने-बाने में जरा सा भी बदलाव नहीं करना चाहता था। महात्मा गांधी जी को इसके विरोध की लाठी बनाया गई और बैठा दिया गया आमरण अनशन पर। आमरण अनशन वैसे ही देश के महात्मा के लिए सबसे प्रबल हथियार था और वो इस हथियार को आये दिन अपनी बातों को मनाने के लिए प्रयोग करते रहते थे। बाबा साहब किसी भी कीमत पर इस मांग से पीछे नहीं हटना चाहते थे। वो जानते थे कि इस मांग से पीछे हटने का सीधा सा मतलब था दलितों के लिए उठाई गई सबसे महत्वपूर्ण मांग के खिलाफ में हामी भरना। लेकिन, उन पर चारों ओर से दबाव पड़ने लगा। और अंततः पूना पैक्ट के नाम से एक समझौते में दलितों के अधिकारों की मांग को धर्म की दुहाई देकर समाप्त कर दिया गया। इन सबके बावजूद डॉ. अंबेडकर ने हार नहीं मानी और समाज के निचले तबकों के लोगों की लड़ाई जारी रखी। अंबेडकर की प्रयासों का ही ये परिणाम है कि दलितों के अधिकारों को भारतीय संविधान में जगह दी गई। यहां तक कि संविधान के मौलिक अधिकारों के जरिए भी दलितों के अधिकारों की रक्षा करने की कोशिश की गई।
इस समाज के महापुरुष हैं कबीरदास, रैदास, ज्योतिबा फुले, सावित्री बाई फुले, डॉ॰ भीमराव आंबेडकर, जगजीवन राम, केआर नारायणन, कांशीराम।
भारत में आरक्षण: सरकारी सेवाओं और संस्थानों में पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं रखने वाले पिछड़े समुदायों तथा अनुसूचित जातियों और जनजातियों से सामाजिक और शैक्षिक पिछड़ेपन को दूर करने के लिए भारत सरकार ने अब भारतीय कानून के जरिये सरकारी तथा सार्वजनिक क्षेत्रों की इकाइयों और धार्मिक, भाषाई अल्पसंख्यक शैक्षिक संस्थानों को छोड़कर सभी सार्वजनिक तथा निजी शैक्षिक संस्थानों में पदों तथा सीटों के प्रतिशत को आरक्षित करने की कोटा प्रणाली प्रदान की है। भारत के संसद में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के प्रतिनिधित्व के लिए भी आरक्षण नीति को विस्तारित किया गया है। भारत की केंद्र सरकार ने उच्च शिक्षा में 27 फीसदी आरक्षण दे रखा है और विभिन्न राज्य आरक्षणों में वृद्धि के लिए कानून बना सकते हैं। सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के अनुसार 50 फीसदी से अधिक आरक्षण नहीं किया जा सकता, लेकिन राजस्थान जैसे कुछ राज्यों ने 68 फीसदी आरक्षण का प्रस्ताव रखा है, जिसमें अगड़ी जातियों के लिए 14 फीसदी आरक्षण भी शामिल है। 
आम आबादी में उनकी संख्या के अनुपात के आधार पर उनके बहुत ही कम प्रतिनिधित्व को देखते हुए शैक्षणिक परिसरों और कार्य स्थलों में सामाजिक विविधता को बढ़ाने के लिए कुछ अभिज्ञेय समूहों के लिए प्रवेश मानदंड को नीचे किया गया है। कम-प्रतिनिधित्व समूहों की पहचान के लिए सबसे पुराना मानदंड जाति है। भारत सरकार द्वारा प्रायोजित राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य और राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के अनुसार, हालांकि कम-प्रतिनिधित्व के अन्य अभिज्ञेय मानदंड भी हैं, जैसे कि लिंग (महिलाओं का प्रतिनिधित्व कम है), अधिवास के राज्य (उत्तर पूर्व राज्य, जैसे कि बिहार और उत्तर प्रदेश का प्रतिनिधित्व कम है), ग्रामीण जनता आदि। 
मूलभूत सिद्धांत यह है कि अभिज्ञेय समूहों का कम-प्रतिनिधित्व भारतीय जाति व्यवस्था की विरासत है। भारत की स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारत के संविधान ने पहले के कुछ समूहों को अनुसूचित जाति (अजा) और अनुसूचित जनजाति (अजजा) के रूप में सूचीबद्ध किया। संविधान निर्माताओं का मानना था कि जाति व्यवस्था के कारण अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति ऐतिहासिक रूप से दलित रहे और उन्हें भारतीय समाज में सम्मान तथा समान अवसर नहीं दिया गया और इसलिए राष्ट्र-निर्माण की गतिविधियों में उनकी हिस्सेदारी कम रही। संविधान ने सरकारी सहायता प्राप्त शिक्षण संस्थाओं की खाली सीटों तथा सरकारी, सार्वजनिक क्षेत्र की नौकरियों में अजा और अजजा के लिए 15 फीसदी और 7.5 फीसदी का आरक्षण रखा था, जो पांच वर्षों के लिए था, उसके बाद हालात की समीक्षा किया जाना तय था। यह अवधि नियमित रूप से अनुवर्ती सरकारों द्वारा बढ़ा दी जाती रही।
बाद में, अन्य वर्गों के लिए भी आरक्षण शुरू किया गया। 50 फीसदी से अधिक का आरक्षण नहीं हो सकता, सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले से (जिसका मानना है कि इससे समान अभिगम की संविधान की गारंटी का उल्लंघन होगा) आरक्षण की अधिकतम सीमा तय हो गयी। हालांकि, राज्य कानूनों ने इस 50 फीसदी की सीमा को पार कर लिया है और सर्वोच्च न्यायालय में इन पर मुकदमें चल रहे हैं। उदाहरण के लिए जाति-आधारित आरक्षण भाग 69 फीसदी है और तमिलनाडु की करीब 87 फीसदी जनसंख्या पर यह लागू होता है।
साभार: विकिपीडिया

मंगलवार, 24 सितंबर 2013

पाषाण युग की याद दिलाता बंगालगढ़

खास खबर
बांका जिले में धनुवसार प्रखंड है। यहीं एक गांव है बंगालगढ़। यह गांव महादलितों व आदिवासियों का है। आजादी के 66 साल बाद भी यहां के लोग ताड़ के पत्तों से झोपड़ी बनाकर रहने को बाध्य हैं। कहीं-कहीं तो नजारा बिलकुल पाषाण युग की तरह है। जैसे-तैसे लोगों का जीवन बस कट जा रहा है। सुविधा के नाम पर शून्य! सरकार की तरफ से यहां के लोगों के लिए क्या किया गया, यह अब कहने को नहीं रह गया। यहां रहने वाले लोग वनाधिकार कानून - 2006 के तहत परवाना हासिल करने के पात्र हैं। बावजूद इसके वन विभाग द्वारा परवाना निर्गत नहीं किया जा रहा है। 
यहां के लोग नदी-नाले का दूषित पानी पीने को बाध्य हैं। यहां चापाकल और कुआं निर्माण नहीं होने के कारण यह स्थिति है। करीब 54 परिवार के गरीब लोगों के पास रकम नहीं है कि वे चापाकल या कुआं का निर्माण कर सके। मरता क्या न करता! बंगालगढ़ के लोगों ने नदी-नाले के गंदला पानी को साफ करने का जुगाड़ निकाल लिया। नदी से पानी नाली के रूप में बहकर आगे की ओर बढ़ते चला जाता है। वहां से पानी हटने पर किनारे पर कुछ बालू रह जाता है। इसी किनारे पर लोगों ने पानी को साफ करने में अपना दिमाग लगाया। नाली के किनारे बालू को हटाकर गड्ढा बना लिया जाता है। इसे आदिवासी चुवाड़ी करके संग्रह करना कहते हैं। नाली का पानी बालू से छनकर गड्ढा में एकत्र होने लगता है। इसी गड्ढे के पानी को कटोरा से लेकर दूसरे बर्तनों में डालते हैं। इसी पानी को घरेलू और पेयजल के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है। इस पानी को पीकर लोग रोग के मुंह में समाते चले जा रहे हैं। सरकार पोलियो उन्मूलन के लिए करोड़ों रुपए पानी की तरह बहा रही है। परन्तु बंगालगढ़ के लोगों को शुद्ध पेयजल की व्यवस्था नहीं कर पा रही है। 
यहां के अनुसूचित जाति एवं जनजाति समुदाय के लोगों ने सूबे के मुख्यमंत्री से आग्रह किया है कि जिस प्रकार ग्रामीण क्षेत्र में एक अश्व शक्ति की मशीन लगाकर पेयजल की व्यवस्था की जा रही है। उसी तरह एक अश्व शक्ति वाला मोटर पंप बंगालगढ़ में भी लगवा दें। ऐसा करने से लोगों को शुद्ध पेयजल मिलने लगेगा। ज्ञात हो कि यह एक अश्व शक्ति वाली मशीन दूसरे गांवों में जहां लगी है, सोलर सिस्टम से चलायी जा रही है। 

सुशासन के सरकारी बाबू और वनाधिकार कानून!

बिहार में वनाधिकार कानून-2006 के तहत राज्य सरकार संवेदनशील नहीं है। 7 साल के अंदर केवल 76 लोगों को वनाधिकार कानून के तहत लाॅलीपाॅप की तरह पर्चा थमा दिया गया है। इससे वनभूमि क्षेत्र में रहने वाले लोगों के बीच आक्रोश है। स्वंयसेवी संगठन एकता परिषद, बिहार की संचालन समिति की सदस्या मंजू  डुंगडुंग का कहना है कि जमुई जिले में वनभूमि का परवाना मांगने पर प्रशासन द्वारा फर्जी मुकदमा दर्ज कर दिया जाता है। चांदन प्रखंड की समन्वयक वीणा हेम्ब्रम का कहना है कि लोगों को जल्द से जल्द परवाना मिलनी चाहिए। लोग आज भी अपने हक के लिए विभागों का चक्कर लगाने को मजबूर हैं और उन्हें वन विभाग की प्रताड़ना झेलना पड़ रहा है।  
राज्य अनुसूचित जनजाति आयोग के पूर्व उपाध्यक्ष ललित भगत कहते हैं कि केन्द्र सरकार ने वनाधिकार कानून-2006 बनाया है। इसके तहत वनभूमि पर रहने वालों को वनभूमि का पर्चा देकर मालिकाना हक देना है। अभी तक बिहार में सिर्फ 76 लोगों को पर्चा दिया गया है। इसमें दो जिले भाग्यशाली हैं। जिनको वनभूमि पर काबिज रहने का परवाना मिल सका है। फिलवक्त बांका जिले में 54 और गया जिले में 22 लोगों को पर्चा मिला है।
बिहार में बांका, जमुई, मधेपुरा, गया, पश्चिम चम्पारण, अररिया, कटिहार आदि जिलों में वनभूमि है। इस वनभूमि क्षेत्र में 13 दिसंबर, 2005 से पूर्व रहने वाले अनुसूचित जनजाति और 3 पीढ़ी रहने वाले गैर अनुसूचित जनजाति के लोगों को वनाधिकार कानून-2006 के तहत परवाना देना है। 
वनाधिकार कानून के प्रावधान के तहत ग्राम पंचायत के मुखिया के द्वारा वनभूमि क्षेत्र में रहने वाले अनुसूचित जनजाति और गैर अनुसूचित जनजाति के लोगों का चयन किया जाता है। ग्राम पंचायत के मुखिया के द्वारा प्रस्ताव पारित कर पंचायत समिति में अग्रसारित किया जाता है। इसके बाद जिला स्तर पर अग्रसारित किया जाता है। ग्राम पंचायत के मुखिया के द्वारा अग्रसारित होने के बाद पंचायत समिति द्वारा अनुमोदित होती है और गहन रूप से जांच वन कमिटी के द्वारा होती है। आवेदन को स्वीकार अथवा अस्वीकार करना वन कमिटी के अधिकार क्षेत्र में आता है। वन कमिटी की अनुशंसा के बाद ही वनभूमि क्षेत्र में रहने वाले को वनभूमि का परवाना दिया जाता है। अभी तक कई जिलों में वन कमिटी का निर्माण नहीं किया जा सका है। 
वन अधिकार समिति के सचिव शिव कुमार दास ने बांका जिले के चांदन प्रखंड के अंचलाधिकारी महोदय के नाम से आवेदन दिया है। आजतक यहां से किसी तरह की कार्रवाई नहीं की जा सकी है। अतरी प्रखंड के नरावट पंचायत के वनवासी पहाड़ के नीचे रहते हैं। गैर अनुसूचित जनजाति श्रेणी के महादलित 4-5 पीढ़ी से यहां रहते आ रहे हैं। इनका आवेदन सीओ को दिया गया है। पर कार्रवाई नगण्य है।

जब भगत पर सवार होता है मरणदेवा

न्यूज@ई-मेल 
  • मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के गृह क्षेत्र में महादलितों के बीच फैला है अंधविश्वास

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के गृह क्षेत्र नालंदा जिले के महादलित अब भी अंधविश्वास से निकल नहीं पाये हैं। महादलितों ने सालाना पूजा जश्न में अपने मरण देवा और सात बहिनों काली देवी, मंसा देवी, दुर्गा देवी, सरस्वती देवी, शीतला देवी, पटन देवी और लक्ष्मी देवी को खुश किया। इस अवसर पर शीतला देवी को पाठी और गौरेया स्थान पर खस्सी चढ़ाया जाता है। वैसे सभी देवी-देवताओं को खुश करने की परंपरा को निभाया जाता है। इसके लिए महीनों से तैयारी के बाद पूजा की जाती है। हालांकि कुछ लोग सालाना पूजा आसाढ़ में करते हैं। वहीं कुछ लोग रक्षा बंधन के पहले ही कर लेते हैं। खास बात यह कि सभी जगहों पर बेजुबानों का कत्ल कर ही सालाना पूजा किया जाता है। 
इस बार पूजा का आयोजन आसाढ़ माह के आखिरी सप्ताह में एकंगरसराय प्रखंड के एकंगरडीह गांव के दक्षिणी चमर टोली में किया गया। यहां पर करीब दो सौ सालों से महादलित रविदास रहते आ रहे हैं। ये कुछ मिट्टी और कुछ पक्के मकान वाले 60 घरों में रहते हैं। आबादी साढे़ तीन सौ से ऊपर है। अभी तक सिर्फ 10 बच्चों ने मैट्रिक उत्र्तीण किया है। इनमें अंजू कुमारी और प्रतिमा कुमारी मैट्रिक पास हैं। तंगहाली के बावजूद अंजू कुमारी बीए की परीक्षा देने में सफल हो पायी है। इस समय भारी संख्या में बच्चे स्कूल जाते हैं। कारण कि बच्चों को मिड डे मील मोह रहा है। छपरा की घटना का यहां प्रभाव नहीं है। गांव के कुछ लोग पुश्तैनी धंधा में लगे हैं। ये मवेशी मर जाने के बाद उसे उठाकर अन्यत्र ले जाकर चमड़ा निकालते हैं। चमड़ा बेचने का धंधा पुराना है। दूसरी तरफ मृत मवेशी के मालिक से ही पांच सौ रुपए मवेशी को हटाने के लिए मिल जाते हैं। 
20 कट्ठे जमीन पर चमर टोली फैली है। बताया जाता है कि देवी-देवता गांव की सुरक्षा करते हैं, इसलिए ही इन्हें खुश करने के लिए सालाना पूजा का आयोजन किया जाता है। चमर टोली में काम करने वाले बिरजू रविदास कहते हैं कि हमलोग अपने पूर्वजों की राह पर चलकर देवी-देवाओं को खुश करने में लगे हैं। इसका मतलब है कि हम अपनी जमीन और संस्कृति से कटे नहीं हैं। 
सलाना पूजा से पहले बैठक की जाती है और इसी बैठक में आम राय बनती है। यहीं तय होता है कि पूजा के खर्च के लिए कितना चंदा लिया जाए। इस बार लोगों ने निर्णय लिया कि प्रत्येक परिवार से 140 रुपए चंदा के तौर पर लिया जाएगा। चंदा की राशि से एक बकरी, एक खस्सी, एक मुर्गा, एक मुर्गी, एक कबूतर और एक चेंगना खरीदी गयी। इसके अलावा शराब, गांजा, अगरबत्ती, धूप, चंदन की लकड़ी, अरवा चावल, कपूर, दियासलाई आदि की भी व्यवस्था की गयी। 
सालभर पोंगापथ चलाने वाले गांव के भगत धमेन्द्र रविदास, भक्तिनी भगिया देवी के अलावा बगल गांव की एक भक्तिनी बैठकी में शामिल हुए। यहां के लोग बीमार होने पर भगत के पास ही जाते हैं। उसी समय भगत सातों बहनों की शक्ति के बल पर तंत्र-मंत्र से रोगी को ठीक कर देता है। अगर झाड़-फंूक के बाद भी रोगी ठीक नहीं होता है तो, छोलाछाप चिकित्सकों की शरण में जाते हैं। जो रोगी मर जाता है, मरणदेवा बन जाता है। यहीं का निवासी राजकुमार रेल की चपेट में आकर मर गया था। गांव के लोग कहते हैं कि वह भी मरणदेवा बनकर भगत के ऊपर सवार हो गया। मरणदेवा के सवार होने पर उसे भगत के द्वारा खुश किया जाता है। तभी वह भगत के शरीर से उतरकर अपने ठिकाने की ओर जाता है। 
श्री श्री 108 श्री भगवती स्थान के पास आसन पर बैठने वाले भगत और भक्तिनी को चादर पर बैठाया जाता है। इसके चारो कोने पर कुछ पैसे रख दिये जाते हैं। इसके बाद भगत और भक्तिनी बैठ जाते हैं। मांदर की थाप पर भगत और भक्तिनी झुमने लगते हैं। आसन पर बैठे भगत और भक्तिनी पर एक के बाद एक देवता सवार होने लगते हैं। इसपर भगत और भक्तिनी खेलाने लगते हैं। भक्तिनी बाल खोलकर झूमने लगती है। आये देवताओं की इच्छा पूछी जाती है। उन देवताओं को खुश करने के लिए बेजुबान पशुओं की बलि दी जाती है। हर देवता को अलग-अलग ढंग से खुश किया जाता है। इस दौरान मांदर को जोर-जोर से बजाया जाता है। उपस्थित महिलाएं गीत गाती हैं। इस दौरान दुआ मांगने वालों को भगत आशीर्वाद के रूप में अक्षत देता है। 
गौरेया स्थान जाने के पहले शराब का जाप किया जाता हैं। इसके बाद बगल में स्थित गौरेया स्थान में जाकर पूजा की जाती है। यहां के देवताओं को गांजा चढ़ाया जाता है। भगत और भक्तिनी गांजा पीते हैं। बताया गया कि ऐसा करके देवताओं को समर्पित किया जाता है। अंत में भगत, भक्तिनी और अन्य लोग घर-घर जाकर भाबर करते हैं। जलती आग में अक्षत डालते हैं। ऐसा करने से अशुद्ध आत्मा का प्रवेश घर में नहीं होता है। देवताओं को खुश करने के बाद आसन उखाड़ दिया जाता है। इसके बाद बलि चढ़ाए गये बेजुबानों के मांस को प्रसाद के रूप में बांटा जाता है। कोई तीन घंटे तक जमकर यह सब ड्रामा चलता रहा। 
इस चमर टोली के ही बगल में राजकीय मध्य विद्यालय और प्राथमिक विद्यालय है। इसके बावजूद यहां शिक्षा भी अंधविश्वास को खत्म करने में कारगर हथियार साबित नहीं हो पा रही है। यहां सरकार ने उप स्वास्थ्य केन्द्र खोल रखा है। यहां पर दो एएनएम दीदी बहाल हैं। परन्तु, भवन के अभाव में एएनएम दीदी किसी स्कूल में ही बैठकर चिकित्सकीय सेवा करने को लाचार हैं।
आलोक कुमार

शनिवार, 21 सितंबर 2013

अब बदल रही है मुसहरी


न्यूज@ई-मेल
  • 125 साल बाद बड़की जलालपुर मुसहरी की दो लड़कियों ने मैट्रिक की परीक्षा पास की 
  • अब हैं जेडी वीमेंस कॉलेज, पटना में प्रथम वर्ष कला की छात्रा 
  • ‘पढ़ोगे, लिखोगे तो बनोगे नवाब’ वाली कहावत समझ रहे हैं मुसहरी के लोग
पटना स्थित रूपसपुर नहर के पूरब की ओर बड़की जलालपुर मुसहरी है। 125 साल पुरानी इस मुहसरी में करीब 55 घर हैं। जनसंख्या करीब 300 है। लड़कों में अभी तक रंजय मांझी, संजय मांझी, धर्मेन्द्र मांझी और धर्मेन्द्र मांझी (एक अन्य लड़का) मैट्रिक पास कर सका है। वहीं 2012 में स्व. महेन्द्र मांझी की पुत्री पिंकी कुमारी और जमीशन मांझी की पुत्री लीलावती कुमारी ने मैट्रिक पास कर लड़कों को चुनौती दे डाली। दोनों द्वितीय श्रेणी में पास हुईं। दोनों अब जेडी वीमेंस कॉलेज में प्रथम वर्ष कला की छात्रा हैं। यह मुसहरी के लिए कोई सामान्य नहीं, एक बड़ी घटना है। बड़ी घटना इसलिए कि यहां के लोगों का मुख्य पेशा कचरा से कागज, प्लास्टिक, लोहा चुनना है। सूअर पालना यहां आम है। ऐसे माहौल में भी पढ़ाई के महत्व को अब समझा जाने लगा है। मुसहरी के कई बच्चे अब पढ़ने स्कूल जाने लगे हैं। यह बदलाव किसी एक दिन का चमत्कार नहीं। 125 सालों में हो पाया है!
इसी क्षेत्र में बिरजू सिंह रहते हैं। इनकी पत्नी रीता देवी सर्वप्रथम ‘मंथन’, मानव संसाधन केन्द्र से जुड़कर शिक्षा का प्रसार शुरू की थी। वह प्रकाश मांझी के साथ मिलकर बच्चों को पढ़ाती हैं। रीता देवी बताती हैं कि वह 14 सालों से बच्चों को पढ़ा रही हैं। इसका परिणाम अब सामने आया है। बच्चे नियमित स्कूल आ रहे हैं। धीरे-धीरे ही सही, मुसहर समुदाय के बीच शिक्षा का प्रचार-प्रसार हो रहा है।
एक छात्रा लीलावती कुमारी कहती है कि पहले घर पर ही पढ़ाई की। इसके बाद 2006 में दानापुर स्थित नारी गूंजन द्वारा लालकोठी में खोले गये राजकीय मध्य विघालय, दानापुर में पढ़ाई की। यहां से आठवीं कक्षा पास करने के बाद धनेश्वरी उच्च विघालय, दानापुर से नौवीं व दसवीं कक्षा तक पढ़ी। यहां से मैट्रिक की परीक्षा न देकर राम लखन सिंह हाई स्कूल, पालीगंज से परीक्षा दी। मैं परीक्षा में द्वितीय श्रेणी से पास हो गयी। अभी जेडी वीमेंस कॉलेज, पटना में पढ़ाई कर रही हूं। 
लीलावती की मां प्रभावती देवी अपने बच्चों के लालन-पालन के लिए खेत में मजदूरी करती है। पति से अनबन होने के कारण प्रभावती देवी अलग-थलग पड़ गयी। इसके बावजूद वह हिम्मत नहीं हारी। अपने बच्चों को वह माता-पिता, दोनों, का प्यार देने लगी। इसी बीच किसी की सहायता से प्रभावती को राजकीय मध्य विघालय, रूपसपुर, जलालपुर में साफ-सफाई का काम मिल गया। उसे एक साल में सिर्फ पांच हजार रुपए प्राप्त होते हैं। 
लोगों का कहना है कि यहां आंगनबाड़ी ठीक से नहीं चलायी जा रही है। दूसरी तरफ बिहार में भले ही 4.50 लाख निःशक्ता हैं। इनको पेंशन देने के लिए 162 करोड़ रुपए स्वीकृत हैं। परन्तु बड़की मुसहरी के स्व. रामनाथ मांझी के पुत्र गोरख मांझी और उसके अनुज गोलू मांझी को स्वीकृत राशि में से एक कौड़ी भी नहीं मिल पायी है। 20 साल के गौरख मांझी जन्म से ही विकलांग हैं। वहीं 17 साल का गोलू मांझी पोलियो से ग्रस्त है। फिलवक्त दोनों सहोदर भाइयों को पेंशन से महरूम होना पड़ रहा है। हालांकि इसके लिए कई बार प्रयास किया गया। जब यह क्षेत्र ग्राम पंचायत में था, तो मुखिया के दरवाजे का चक्कर लगाता रहा। अब नगर निगम के अधीन आ जाने से नगर पार्षद के पास जाकर घिघियाना पड़ रहा है। गौरख मांझी कहते हैं कि यहां तो मनरेगा से भी काम नहीं मिलता। हम गरीबों को कोई देखने वाला नहीं है। बस, भगवान भरोसे जी रहे हैं।
आलोक कुमार

विशाल साम्राज्यों का गढ़ रहा है बिहार

परिचय
बिहार भारत का एक प्रशासनिक राज्य है। बिहार की राजधानी पटना है। बिहार के उत्तर में नेपाल, पूर्व में पश्चिम बंगाल, पश्चिम में उत्तर प्रदेश और दक्षिण में झारखण्ड स्थित है। बिहार नाम का प्रादुर्भाव संभवत: बौद्ध विहारों के विहार शब्द से हुआ है जिसे विहार के स्थान पर इसके विकृत रूप बिहार से संबोधित किया जाता है। यह क्षेत्र गंगा नदी तथा उसकी सहायक नदियों के उपजाऊ मैदानों में बसा है। प्राचीन काल के विशाल साम्राज्यों का गढ़ रहा यह प्रदेश, वर्तमान में देश की अर्थव्यवस्था के सबसे पिछड़े योगदाताओं में से एक गिना जाता है। 
प्राचीन काल में मगध का साम्राज्य देश के सबसे शक्तिशाली साम्राज्यों में से एक था। यहाँ से मौर्य वंश, गुप्त वंशतथा अन्य कई राजवंशो ने देश के अधिकतर हिस्सों पर राज किया। मौर्य वंश के शासक सम्राट अशोक का साम्राज्य पश्चिम में अफ़ग़ानिस्तान तक फैला हुआ था। मौर्य वंश का शासन ३२५ ईस्वी पूर्व से १८५ ईस्वी पूर्व तक रहा। छठी और पांचवीं सदी इसापूर्व में यहां बौद्ध तथा जैन धर्मों का उद्भव हुआ। अशोक ने, बौद्ध धर्म के प्रचार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और उसने अपने पुत्र महेन्द्र को बौद्ध धर्म के प्रसार के लिए श्रीलंका भेजा। उसने उसे पाटलिपुत्र (वर्तमान पटना) के एक घाट से विदा किया जिसे महेन्द्र के नाम पर में अब भी महेन्द्रू घाटकहते हैं। बाद में बौद्ध धर्म चीन तथा उसके रास्ते जापान तक पहुंच गया। बिहार का इतिहास बिहार का ऐतिहासिक नाम मगध है। बिहार की राजधानी पटना का ऐतिहासिक नाम पाटलिपुत्र है।
बारहवीं सदी में बख्तियार खिलजी ने बिहार पर आधिपत्य जमा लिया। उसके बाद मगध देश की प्रशासनिक राजधानी नहीं रहा। जब शेरशाह सूरी ने, सोलहवीं सदी में दिल्ली के मुगल बाहशाह हुमायूँ को हराकर दिल्ली की सत्ता पर कब्जा किया तब बिहार का नाम पुनः प्रकाश में आया पर यह अधिक दिनों तक नहीं रह सका। अकबर ने बिहार पर कब्जा करके बिहार का बंगाल में विलय कर दिया। इसके बाद बिहार की सत्ता की बागडोर बंगाल के नवाबों के हाथ में चली गई। बिहार का अतीत गौरवशाली रहा है।
1857 के प्रथम सिपाही विद्रोह में बिहार के बाबू कुंवर सिंह ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 1912 में बंगाल का विभाजन के फलस्वरूप बिहार नाम का राज्य अस्तित्व में आया। 1935 में उड़ीसा इससे अलग कर दिया गया। स्वतंत्रता संग्राम के दौरान बिहार के चंपारण के विद्रोह को, अंग्रेजों के खिलाफ बग़ावत फैलाने में अग्रगण्य घटनाओं में से एक गिना जाता है। स्वतंत्रता के बाद बिहार का एक और विभाजन हुआ और सन् 2000 में झारखंड राज्य इससे अलग कर दिया गया। भारत छोड़ो आंदोलन में भी बिहार की गहन भूमिका रही।
गंगा नदी राज्य के लगभग बीचों-बीच बहती है। उत्तरी बिहार बागमती, कोशी, बूढी गंडक, गंडक, घाघरा और उनकी सहायक नदियों का समतल मैदान है। सोन, पुनपुन, फल्गू तथा किऊल नदी बिहार में दक्षिण से गंगा में मिलनेवाली सहायक नदियाँ है। बिहार के दक्षिण भाग में छोटानागपुर का पठार, जिसका अधिकांश हिस्सा अब झारखंड है, तथा उत्तर में हिमालय पर्वत की नेपाल श्रेणी है। हिमालय से उतरने वाली कई नदियाँ तथा जलधाराएँ बिहार होकर प्रवाहित होती है और गंगा में विसर्जित होती हैं। वर्षा के दिनों में इन नदियों में बाढ़ एक बड़ी समस्या है।
विकिपीडिया से साभार

गुरुवार, 19 सितंबर 2013

काफी रोचक है पटना का इतिहास

पर्यटन
राजीव मणि 
बिहार की राजधानी पटना कभी राजा-महाराजाओं की पहली पसंद हुआ करता था। सूबे की बदलती तस्वीर और पटना को सजाने-संवारने के प्रयास ने एक बार फिर पर्यटकों को अपनी ओर खीचना शुरू किया है। अफगान सरदार शेरशाह सूरी ने हुमायंू से बगावत कर गंगा नदी के किनारे इस शहर को बसाया था। इतिहास के अनुसार, सम्राट अजातशत्रु ने अपनी राजधानी को राजगृह से पाटलीपुत्र स्थानांतरित किया था। बाद में चन्द्रगुप्त मौर्य ने यहां साम्राज्य स्थापित कर अपनी राजधानी बनाई।
राजा अशोक की राजधानी भी पाटलीपुत्र रही है। यही वजह है कि इतने सारे राजाओं और ब्रिटिश हुकूमत की छाप इस शहर पर पड़ी।
यह शहर मुख्यतः दो हिस्सों में बंटा हुआ है। पुराने व ऐतिहासिक शहर को आज पटना सिटी के नाम से जाना जाता है। पटना नवीन शहर है। विभिन्न शैलियों में निर्मित भवनों, धर्मिक स्थलों एवं आजादी के बाद के सुविख्यात निर्माणों से यह शहर पटा हुआ है। साथ ही इस शहर से सूबे के पर्यटक स्थलों का भ्रमण भी आसानी से किया जा सकता है।
दर्शनीय स्थल
यहां का गोलघर देश-विदेश के पर्यटकों को सर्वाधिक अपनी ओर खींचता रहा है। 1770 के भीष्ण अकाल के बाद अंग्रेजी सेना के लिए अन्न भंडार करने के उद्देश्य से इसका निर्माण अंग्रेज कैप्टन जॉन गैरिस्टन ने 1786 ई में करवाया था। नाम के अनुरूप इस भवन का आकार गोलाई लिए हुए है। बिना किसी स्तंभ के बने इस विशाल भवन की नींव 125 मीटर, दीवाल की मुटाई 3.6 मीटर और भवन की ऊंचाई 29 मीटर है। दो ओर से बने 29 मीटर लंबे धनुकार सीढ़ियों से 145 पादान चढ़कर इसके ऊपर जाया जा सकता है। जहां से आधुनिक पटना का विहंगम दृश्य दिखता है।
मुगल और राजपूत शैली में बना पटना म्यूजियम अपने आप में काफी अनोखा है। 200 मिलियन साल प्राचीन विश्व का सबसे बड़ा 17 मीटर ऊंचा फसील वृक्ष आल भी संजो कर रखा गया है। इसके अलावा भारत के प्रथम राष्ट्रपति डा. राजेन्द्र प्रसाद से जुड़ी अनेक चीजें पर्यटकों को अतीत में ले जाती हैं। साथ ही, मौर्य वंश, गुप्त वंश, जैन धर्म एवं कुषाण युग की सजीव मूर्तियां, पेंटिंग आदि यहां देखने को मिनते हैं। देश-विदेश की कीमती पेंटिंग्स के अलावा यहां देखने के लिए काफी कुछ है।
स्वतंत्रता संग्राम का गवाह रहा सदाकत आश्रम पटना-दानापुर मुख्य मार्ग पर अवस्थित है। यहीं भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने अंतिम सांसे ली थी। आज इस मकान को संग्रहालय का रूप दे दिया गया है। यहां राजेन्द्र बाबू से जुड़ी ऐतिहासिक चीजें काफी संभाल कर रखी गई हैं। इसी परिसर में बिहार विद्यापीठ का अवशेष भी देखा जा सकता है।
खुदाबख्श ओरियेंटल पब्लिक लाईब्रेरी भी पर्यटकों को आकर्षित करता रहा है। मुगल और राजपूत शैली के चित्र, अरबी और फारसी की पाण्डुलिपियां, स्पेन के करडोवा विश्वविद्यालय से लायी गयी दुर्लभ पुस्तकें, एक इंच चौड़ा कुरान व अन्य दुर्लभ पुस्तकें यहां-पढ़ी जा सकती हैं। इस लाईब्रेरी की स्थापना 1900 ई. में की गई है।
पटना सिटी रेलवे स्टेशन के पास ही स्थित है नवाब शहीद का मकबरा। इसे बंगाल के नवाब सिराजुदौला ने अपने पिता के मरने के बाद सफेद व काले संगमरमर से बनवाया था।
श्री हरमंदिर साहिब पटना सिटी में है। सिखों के दसवें व अंतिम गुरु गोविन्द सिंह के जन्म स्थान को केन्द्र में रखकर इसका निर्माण करवाया गया था। सिखों के पांच पवित्र तख्तों में हरमंदिर साहिब को तीसरा स्थान प्राप्त है तथा स्वर्ण मंदिर के बाद इसी का स्थान आता है।
इन सबके अलावा पटना में दर्जनों दर्शनीय स्थल हैं, इनमें शेरशाही मस्जिद, शेरशाह का किला हाऊस, पत्थर की मस्जिद, पादरी की हवेली, बिड़ला मंदिर, शहीद स्मारक, महात्मा गांधी सेतु, अगमकुआं, बड़ी पटनदेवी, छोटी पटनदेवी, पश्चिम दरवाजा, गांधी संग्रहालय, कुम्हरार, हरमंदिर, विधानसभा, उच्च न्यायालय, संजय गांधी जैविक उद्यान, हार्डिंग पार्क आदि का नाम उल्लेखनीय है।
कैसे पहुंचे
पटना, बिहार की राजधानी होने के कारण वायुमार्ग से सीधा जुड़ा हुआ है। अतः किसी भी बड़े शहर से यहां सीधा पहुंचा जा सकता है। रेलमार्ग से भी यहां पहुंचना आसान हैै। दिल्ली-कोलकाता मेन लाइन का मुख्य स्टेशन पटना जंक्शन है। सभी गाड़ियां यहां रूकती हैं। इसके अलावा पटना से नेशनल हाईवे-30 गुजरने के कारण यहां सड़क मार्ग से पहुंचना भी आसान है।
रहने-खाने की व्यवस्था
पटना में ठहरने के लिए कई छोटे-बड़े होटल हैं। मौर्या होटल, सम्राट इन्टनेशनल, होटल सत्कार इन्टरनेशनल, होटल मारवाड़ी आवास गृह, होटल चैतन्य, होटल रिपब्लिक, होटल चाणक्या, होटल कौटिल्य, होटल पाटलीपुत्र अशोक सहित दर्जनों होटल हैं, जहां सुरक्षित रहकर पटना का सैर किया जा सकता है। साथ ही कई होटलों में खाने की भी अच्छी व्यवस्था है। इसके अलावा बिड़ला धर्मशाला, हरमंदिरजी गुरुद्वारा, पाटलीपुत्र धर्मशाला, कदमकुआं धर्मशाला में भी सस्ते दर पर ठहरने की अच्छी व्यवस्था है। शहर में रेस्टूरेंटों की भरमार है, जहां उचित मूल्य पर देशी-विदेशी व्यंजनों का मजा लिया जा सकता है।
और कहां जाएं
राज्य के अन्य पर्यटक स्थलों की सैर भी पटना से की जा सकती है। इसके लिए बीरचन्द्र पटेल मार्ग स्थित बिहार राज्य पर्यटन विकास निगम की बसें विभिन्न स्थलों को जाती हैं। पर्याप्त संख्या में यात्री रहने पर निगम पटना शहर दिखाने की व्यवस्था भी करता है। दूसरी तरफ हर छोटे-बड़े शहर के लिए प्राइवेट बस अड्डा से हर आधे घंटे पर बस खुलती है। इसके अलावा भाड़े की टैक्सी से भी यात्रा की जा सकती है।
अन्य प्रमुख पर्यटक स्थलों की पटना से दूरी
शहर        दूरी (किलोमीटर में)
वैशाली      54
पावापुरी    80
नालंदा      89
गया         92
बोधगया   104
राजगीर   102
सासाराम  152
रक्सौल    206
रांची        326
बेतला       316
वाराणसी   246
इलाहाबाद  368