COPYRIGHT © Rajiv Mani, Journalist, Patna

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बुधवार, 29 जनवरी 2014

विश्व को आदिवासी अर्थ-दर्शन की जरूरत

GLAIDSAN  DUNGDUNG,  WRITER
न्यूज@ई-मेल
ग्लैडसन डुंगडुंग
 कोलकाता के एक प्रसिद्ध विद्वान अधिवक्ता ने ‘ईकोलाॅजी इकोनोमी’ नामक पुस्तक के लोकार्पण समारोह में देश के तथाकथित सभ्य, शिक्षित और विकसित समाज की एक विचित्र हकीकत को हमारे सामने रखने की हिम्मत जुटाई। समारोह में उन्होंने बताया कि वे अपनी पत्नी के साथ एक बंगले में रहते हैं। यहां उनके लिए तीन आधुनिक चारपहिया वाहन हैं। वे दोनों कामकाजी हैं, इसलिए दो चारपहिया वाहनों की जरूरत तो उन्हें समझ में आती है, लेकिन तीसरी वाहन की उपयोगिता उनकी समझ में नहीं आयी। वे कहते हैं कि उनके पास काफी पैसा है, जिसका वे ‘आॅवर कंज्यूम’ यानी जरूरत से ज्यादा उपभोग कर रहे हैं। उस पैसे से वे एक बेहतर जिन्दगी जीते हुए अन्य जरूरतमंदों की मदद कर सकते हैं। यह विषय गंभीर इसलिए है, क्योंकि देश में ऐसे करोड़ों लोग हैं, जो जरूरत से ज्यादा उपभोग कर रहे हैं। दूसरी ओर करोड़ों गरीब हैं, जो दो वक्त अपना पेट भी नहीं भर सकते हैं। क्या यह हमारे देश की विडंबना नहीं है?
दुनिया को विकासवादी सिद्धांत देनेवाले वैज्ञानिक चाल्र्स डारविन के वंशज प्रसिद्ध समाजशास्त्री फेलिक्स पडेल ने ‘इकोलाॅजी इकोनोमी’ पुस्तक को ऐसे समय में दुनिया के पटल पर रखा, जब विश्व के अधिकांश देश ‘ग्रीड बेस्ड मार्केट इकोनोमी’ (लालच पर आधारित बाजारू अर्थव्यवस्था) को अपनाने की वजह से भारी आर्थिक संकट के दौर से गुजर रहे हैं। यह पुस्तक आदिवासी अर्थदर्शन पर लिखी गई है। इसका मूल सार यह है कि धरती और मानव सभ्यता को बचाने के लिए ‘इकोलाॅजी इकोनोमी’ और ‘मार्केट इकोनोमी’ दोनों में से एक को चुनना ही होगा। कारण कि ये दोनों एक दूसरे के विपरीत हैं। इकोलाॅजी इकोनोमी को अपनाने से लोग अपने साथ धरती को भी बचा लेंगे, लेकिन मार्केट इकोनोमी धरती के साथ मानव सभ्यता का अस्तित्व ही समाप्त कर देगी। वजह है कि इसे बरकरार रखने के लिए प्राकृतिक संसाधनों को पैसे में बदलना होगा और इस प्रक्रिया में इकोलाॅजी बड़े पैमाने पर प्रभावित होगी। धरती गर्म होती जायेगी और बर्फ पिछलेगा। इससे धरती पर कयामत आ सकती हैै। दूसरी तरफ लोगों के लिए सबसे बड़ी चुनौती यह है कि अगर वे इकोलाॅजी इकोनोमी को चुनते हैं, तो विलासिता की जिन्दगी उन्हें हमेशा के लिए छोड़नी होगी। यह बहुसंख्यक आबादी के लिए असंभव नहीं तो मुश्किल जरूर है। 
लेकिन प्रश्न यह भी है कि क्या दुनिया सिर्फ इकोलाॅजी इकोनोमी से चल सकती है? क्या दुनिया में मार्केट इकोनोमी की जरूरत नहीं होगी? क्या इंसान को वर्तमान विकास प्रक्रिया को छोड़कर पाषाण काल की ओर मुड़ जाना होगा? क्या धरती को बचाने के लिए हमारे पास कोई दूसरा रास्ता नहीं है? और क्या हमलोग मूलभूत सुविधाओं से वंचित हो जायेंगे? इन प्रश्नों का जवाब ढ़ूढ़ने के लिए ‘इकोलाॅजी इकोनोमी’ यानी परिस्थितिकी पर आधारित अर्थव्यवस्था को समझाना होगा, क्योंकि इकोलाॅजी में इकोनोमी समाहित है, जिसे दुनिया ने नाकार दिया है। यही वजह है कि दुनिया आर्थिक संकट, ग्लोबल वार्मिंग, ग्लोबल कूलिंग जैसी समस्याओं से घिरती जा रही है। और अब धरती के अस्तित्व पर ही सवाल खड़ा हो गया है। इकोलाॅजी इकोनोमी असल में नीड बेस्ड यानी जरूरत पर आधारित अर्थव्यवस्था है। दुनिया के विद्वान अर्थशास्त्री इसे कम्यूनिटी इकोनोमी (सामुदायिक अर्थव्यवस्था) कहते हैं, जिसे हमेशा से ही नाकारात्मक दृष्टि से देखा गया, क्योंकि इसमें जरूरत के अनुसार अवश्यक चीजों को इक्ट्ठा कर आपस में आदान-प्रदान किया जाता है और सेवा तो बिल्कुल मुफ्त में मिलती है। वहीं मार्केट इकोनोमी में गुड्स और सर्विसेेस दोनों के लिए कीमत चुकानी पड़ती है, जिसमें एक व्यक्ति मुनाफा कमाकर उद्योग खड़ा कर लेता है और इस तरह से आर्थिक असामानता बढ़ती जाती है।
इकोलाॅजी इकोनोमी दुनिया में सिर्फ आदिवासियों की बीच मौजूद है। वे प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग अपने रोजमर्रा की जरूरतों को पूरा करने के लिए करते हैं, जबकि मार्केट इकोनोमी में जीने वाले लोग प्राकृतिक संसाधनों का दोहन मूलतः मुनाफा कमाने के लिए करते हैं, क्योंकि मार्केट इकोनोमी का मूल आधार ही मुनाफा कमाना है। मार्केट इकोनोमी हमें प्रत्येक चीज को मुनाफा के नजरिये से देखना सीखाता है। फलस्वरूप आजकल लोग रिश्तों को भी नफा-नुकशान की तराजू में तौलते हैं। आज महिलाओं के खिलाफ बड़े पैमाने पर हिंसा हो रही है।
इकोलाॅजी इकोनोमी का एक बेहतर नमूना सारंडा जंगल में दिखाई देता है। यहां ‘हो’ और ‘मुंडा’ आदिवासी निवास करते हैं। वे अपना घर-बारी बनाने के लिए सखुआ और अन्य पेड़ों का उपयोग करते हैं, लेकिन पेड़ काटकर मुनाफा नहीं कमाते हैं। यही वजह है कि वहां कई दशक पुराना भी सखुआ का पेड़ दिखाई देगा। दूसरी तरफ टिंबर माफिया और वन विभाग के अधिकारी सखुआ के पेड़ चोरी-छुपे काटवाकर लाखों का वारा-न्यारा कर रहे हैं।
मार्केट इकोनोमी दुनिया में लालच को बढ़ावा दे रही है। इससे जरूरत से ज्यादा उपभोग करने की प्रवृति बढ़ती जा रही है और उपभोग-संस्कृति को बढ़ावा मिल रहा है। अब तो दुनिया में कई जगहों पर मौजूद साम्यवाद पर भी खतरा मंडराता दिख रहा है। ऐसा प्रतित होता है कि दुनिया लालच पर आधारित अर्थव्यवस्था में डूब मरना चाहती है। हमारे देश में उदारीकरण से पहले यहां का बाजार लोगों की जरूरतों के हिसाब से वस्तुओं का उत्पादन करता था। उदारीकरण के बाद वस्तुओं का उत्पादन कर विज्ञापनों के द्वारा लोगों को उसकी जरूरत महसूस करायी जाती है। ऐसे में उपभोक्ता तय नहीं कर पाते हैं कि क्या अमुक वस्तु उनके लिए जरूरी है? इसमें बड़े पैमाने पर बच्चों और महिलाओं की भावनाओं का उपयोग कर उन्हें आॅवर कंज्यूम्पशन के लिए प्रेरित किया जाता है। इससे कंपनियों को बेहिसाब मुनाफा मिलता है। इस तरह से व्यक्ति, परिवार और समुदाय की अर्थव्यवस्था चैपट हो रही है। साथ ही जरूरत से ज्यादा उत्पादन करने के कारण इकोलाॅजी भी प्रभावित हो रही है।
दूसरी ओर जंगलों में निवास करने वाले आदिवासी इकोलाॅजी इकोनोमी के साथ जी रहे हैं। उन्हें विकास और आर्थिक तरक्की के नाम पर लालच आधारित बाजारू अर्थव्यवस्था में ढकेलने की पूरी कोशिश की जा रही है। ओडि़सा स्थित नियमगिरी के आदिवासियों ने कहा कि उन्हें कार की जरूरत ही नहीं है तो वे वेदांता कंपनी का पैसा लेकर क्यों कार खरीदेंगे? इसी तरह पोटका के आदिवासियों ने कहा कि उनके गांवों मंे विद्यालय हैं, स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध हैं, गांव में बिजली है, सड़क भी है और उनकी आर्थिक स्थिति भी अच्छी है। लोग अच्छी तरह से जीवन जी रहे हैं, इसलिए जिंदल और भूषण कंपनी को जमीन नहीं देंगे। लेकिन क्या प्रकृति का सौदा करनेवाले इसे समझ पायेंगे? वे तो उल्टे आदिवासियों को ही बेवकूफ कहने से नहीं चुकते? राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने कहा था कि प्रत्येक व्यक्ति की जरूरतों को पूरा करने के लिए धरती में चीजें पर्याप्त हंै, लेकिन लालच को पूरा करने के लिए यह पर्याप्त नहीं है।
क्या यह विडंबना नहीं है कि उद्योगपति मुकेश अंबानी का छह सदस्यी एक परिवार 4,400 करोड़ से निर्मित 27 मंजिला मकान में रहता है। दूसरी तरफ देश में करोड़ों लोगों के पास रहने को मकान नहीं हैं। उत्तराखंड की त्रासदी ने यह संकेत दे दिया है कि मौजूदा अर्थव्यवस्था में जीने वाले लोग आदिवासियों को ‘बोका’ तो बोल सकते हैं, लेकिन प्रकृति के साथ नहीं लड़ सकते। प्रकृति समय के अनुरूप बड़े-बड़े इकोनोमिक और डेवलाॅपमेंट थ्योरी को बदल देती है। ऐसी स्थिति में दुनिया, मानव सभ्यता और अन्य प्राणियों को बचाने के लिए ईकोलाॅजी ईकोनोमी को अपनाना ही होगा। क्योंकि, आदिवासी अर्थ-दर्शन के अलावा धरती को बचाने का कोई दूसरा रास्ता नहीं है। आवश्यकता अविष्कार की जननी है और आवश्यकताएं अनंत हैं। इसलिए हमें यह तय करना ही होगा कि मानव सभ्यता और प्रकृति दोनों के बीच संतुलन बनाकर रखने के लिए आवश्यकताओं की चादर कितनी दूर तक फैलायी जाये। भगवान बुद्ध ने कहा है कि लालसा ही मनुष्य के दुःख का कारण है, लेकिन क्या हम इसे समझने को तैयार है?
ग्लैडसन डुंगडुंग मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं।

शनिवार, 11 जनवरी 2014

केबीसी में 25 लाख जीतकर भी खाने को मोहताज

MANOJ  KUMAR  IN  KBC  2012
राजीव मणि
बिहार के दानापुर में जमसौत मुसहरी है। यहां महादलित वर्ग के लोग रहते हैं। एक सौ दस घरों की इस मुसहरी में करीब 400 मुसहर। अन्य मुसहरी की तरह यहां के लोगों का भी जीवन बेहाल। दो वक्त की रोटी मिल जाए तो बहुत है। सूअर पालना और उसे खाना इनकी मजबूरी है। ज्यादातर लोग मजदूरी करते हैं।
यहीं मनोज कुमार रहता है। वही मनोज जो 2012 में ही ‘कौन बनेगा करोड़पति’ की हाॅट सीट पर बैठकर 25 लाख रुपए जीता था।
जब वह केबीसी से लौटकर अपने घर पहुंचा, चारो ओर से खूब तारीफें मिलीं। अब पूरे एक साल बीत चुके हैं। इस पत्रकार द्वारा उसके घर जाकर जायजा लिया गया। कभी सरकार, मीडिया और बिहार के लोगों का हीरो बन चुका था मनोज। आज उसके घर की स्थिति ठीक वैसी ही है, जैसी पहले थी।
MANOJ  AT  HIS  HOME
मनोज कुमार पटना के जगदेव पथ स्थित शोषित समाधान केन्द्र का छात्र है। यहीं हाॅस्टल में रहकर पढ़ाई कर रहा है। संस्था शोषित समाधान केन्द्र मुसहर लड़कों को निःशुल्क शिक्षा देती है। रिटायर्ड आईएएस अधिकारी ज्योति कुमार सिन्हा की इस संस्था द्वारा संचालित विद्यालय में इण्टर का छात्र है मनोज। मनोज बताता है कि हमारे स्कूल में ही मनोज नाम के एक सर हैं। वे सभी बच्चों का काफी ध्यान रखते हैं। स्कूल में करीब 300 मुसहर लड़के रहकर पढ़ाई कर रहे हैं। सभी का व्यवहार काफी अच्छा है।
मनोज बताता है कि केबीसी में जाने से पहले ही यह तय हो गया था कि इनाम में जीती गई राशि संस्था को दे देनी है। उसे विद्यालय के विकास कार्यों में खर्च किया जाना है। सो, केबीसी से मिली राशि संस्था को दे दी गई।
मनोज की मां शान्ति देवी आंगनबाड़ी में सहायिका है। पिता महेश मांझी खेतिहर मजदूर हैं। बड़ी बहन सीमा की शादी हो चुकी है। दो छोटे भाई सनोज और अनोज हैं। गांव के ही स्कूल में सनोज चैथी और अनोज छठवीं वर्ग में पढ़ता है। मुसहर टोली में एक कमरे का मकान है। इंदिरा आवास योजना के तहत 45 हजार रुपए मिले थे। उसी से किसी तरह बन सका। पूरा परिवार बिना प्लास्टर वाले इस घर में रात बिता लेता है। सुविधा के नाम पर और कुछ नहीं।
SHANTI  DEVI,  MANOJ'S  MOTHER,  IN AANGANBARI
मनोज बताता है कि उसकी मां को पिछले सात माह से वेतन नहीं मिला है। पिता कुछ पैसे कमा लेते हैं। उसी से रोटी-दाल की व्यवस्था हो जाती है। मनोज की मां शान्ति देवी कहती है कि उसके घर की स्थिति देखकर उसे विश्वास था कि उसे भी 25 लाख में से कुछ मदद मिल जायेगी, लेकिन नहीं मिली।
अभी बात हो ही रही थी कि मनोज का छोटा भाई अनोज आ गया। एक हाथ में बकरी पकड़े और दूसरे में एक थाली। थाली में सब्जी और भात! घर के दरवाजे पर ही बकरी को बांधकर बगल में पड़ी खाट पर बैठकर सब्जी-भात खाने लगा। वहीं बगल में मनोज भी आ गया।
केबीसी में जाने के बारे में पूछे जाने पर वह थोड़ा मुस्कुराया। कहता है, मेरे साथ ही अभिनेता मनोज वाजपेयी जी भी गये थे। केबीसी के मंच पर पहुंचकर जब सदी के महानायक अमिताभ बच्चन से मिला, तो थोड़ी देर मैं उन्हें देखता ही रह गया। बच्चन जी काफी अच्छे इन्सान हैं। मनोज वाजपेयी जी ने भी मेरा काफी हौसला बढ़ाया। वे भी मुझे बहुत अच्छे लगे।
MANOJ  AND  SHANTI  DEVI
जब यह पूछा गया कि केबीसी से लौटने पर जमसौत में क्या हुआ। वह मायूस हो जाता है। कुछ सोचकर कहता है - मीडिया वाले आने लगे। चैनल और अखबारों में खूब छपा। कुछ तारीफ वैसी भी, जो सच नहीं थी। मसौढ़ी के विधायक अरुण मांझी भी बधाई देने आए थे। अगले ही दिन अखबारों में छपा मिला कि अरुण मांझी जमसौत मुसहरी के ही रहने वाले थे। और विधायक ने यह भी एलान कर दिया था कि मुझे उच्च शिक्षा के लिए सरकारी मदद दी जायेगी। लेकिन, यह सब झूठ था। मुझे आजतक कोई सरकारी सहायता नहीं मिली है।
मनोज की मां शान्ति देवी कहती है कि मुसहरों की स्थिति किसी से छिपी नहीं है। इसपर भी हमारा मजाक बनाया गया। अखबार और चैनल वाले भी बाद में भूल गये कि जो वायदे सरकार की ओर से किये गये थे, उसका क्या हुआ। हम जैसे थे, आज भी हैं।

शनिवार, 4 जनवरी 2014

मजदूरी से खुश ग्रामीण किसान

न्यूज@ई-मेल
दानापुर : यहां खेत मालिकों द्वारा धान काटने वाले मजदूरों को ‘बंधोडि़या धान’ देने का प्रचलन आज भी है। इस तरह की मजदूरी मिलने से महिला किसानों को फायदा हो रहा है। वहीं शहरों में मजदूरी के रूप में ‘फेकोडि़या’ दी जाती है। इससे किसानों को नुकसान होता है। ज्ञात हो कि मालिकों के यहां खेतों में काम करने वाले ज्यादातर मजदूर दलित हैं।
एक महिला किसान किरण देवी कहती है कि सबसे पहले खेत में तैयार धान को काटा जाता है। धान को काटने के बाद उसे खेत में ही सूखने के लिए छोड़ दिया जाता है। कोई चार-पांच दिनों के बाद धान सूख जाने पर इसे पुआल से बांध दिया जाता है। पुआल से बंधे पांच बंधन को एक गाही कहा जाता है। इसे 17 जगहों पर रखा जाता है। कुल मिलाकर 17 गाही में 85 बंधन होते है। इनमें से 16 गाही यानी 80 बंधन को मालिक के घर पहुंचा दिया जाता है। शेष एक गाही यानी पांच बंधन ही महिला किसान को मिलता है। इस तरह की मजदूरी को ‘फेकोडि़या’ कहा जाता है। इसमें ढाई किलोग्राम तक धान निकल जाता है। वहीं आज भी देहात में धान के तैयार बोझा में से एक बोझा महिला किसान को दिया जाता है। बोझा उठा पाने भर ही बांधा जाता है। देहात में महिला किसानों को ‘बंधोडि़या धान’ ही मजदूरी में दी जाती है। इसमें सात-आठ किलो धान निकल जाता है। धान कटाई से लेकर मालिक के घर तक पहुंचाने में 14-15 दिन लग जाते हैं।

विकलांगता बाधा नहीं

दानापुर : वीरहरन मांझी जब दस साल के थे, उनके पैर में एक घाव हुआ। ठीक से इलाज नहीं हो पाया। परिणाम यह हुआ कि वे सदा के लिए विकलांग हो गये। वीरहरन दानापुर स्थित कोथवां ग्राम पंचायत के निवासी हैं। यहीं महादलितों का एक टोला है। करीब सौ घर हैं यहां। इसी में से एक में वीरहरन रहते हैं।
वीरहरन कहते हैं कि पैर खराब होने के बाद से लाठी ही एकमात्र मेरा सहारा है। इसी की बदौलत मैं हर काम कर लेता हूं। दूसरों की खेत में काम करता हूं। मजदूरी में धान ज्यादा नहीं मिलता, फिर भी साल भर खाने लायक तो हो ही जाता है। अभी मेरी शादी नहीं हुई है। इसलिए कोई परेशानी नहीं। विकलांगता के सवाल पर वे कहते हैं कि मैं दूसरों को प्रेरणा देता रहा हूं। शारीरिक कमजोरी को लाचारी न बनाएं। प्रयास करने से तो हर काम आसान हो जाता है। इनके पिता करीबन मांझी कहते हैं कि सरकार द्वारा निःशक्ता सामाजिक सुरक्षा पेंशन मिल रहा है। प्रतिमाह दो सौ रुपए मिलते हैं। इससे क्या होगा। परिवार के लिए सभी को मिलकर मजदूरी करनी पड़ती है।

टेंट में आंगनबाड़ी केन्द्र!

दानापुर : सूबे के अधिकांश आंगनबाड़ी केन्द्रों की स्थिति किसी से छुपी नहीं है। यहां ना तो ‘आंगन’ है और न ही ‘बाड़ी’। कुछ इसी तरह की स्थिति बालवाड़ी केन्द्रों की भी है। यहां दलित, महादलित व पिछड़े वर्ग के बच्चे पढ़ने आते हैं।
फिलवक्त दानापुर स्थित आंगनबाड़ी केन्द्र की बात करते हैं। यहां महादलित वर्ग के लोग अभी रह रहे हैं। इनके बीच ही समेकित बाल विकास सेवा परियोजना के तहत आंगनबाड़ी केन्द्र चल रहा है। कायदे से यह केन्द्र पुरानी पानापुर ग्राम पंचायत के महादलित टोली में रहना चाहिए था। लेकिन, गंगा नदी से होने वाले कटाव के कारण इसे लोगों के साथ भी विस्थापित होना पड़ा। अब प्लास्टिक का टेंट बनाकर इसमें ही चलाया जा रहा है। केन्द्र की सेविका उर्मिला देवी और सहायिका मिन्ती देवी हैं। यहां पर कुछ बच्चों को सहायिका मिन्ती देवी पढ़ा रही हैं। सेविका उर्मिला देवी केन्द्र कम ही आती हैं। ऐसे में यह सवाल उठना लाजिमी है कि जब बच्चों को सहायिका पढ़ा रही हैं, तो बच्चों का खाना कौन बनाएगा और खिलाएगा?

आंख की रोशनी नहीं तो क्या

आरा : भोजपुर जिले के उदवंतनगर थानान्तर्गत बेलाउर पंचायत के चक्रधर टोला में बादशाह राम और उनकी पत्नी कमली देवी रहती हैं। इनकी सात संतानें हैं। चार लड़का और तीन लड़की। सबसे पहला निर्मल कुमार राम जब सात साल का था, तब 1998 में उसकी आंख की रोशनी धीरे-धीरे चली गयी। इसके बाद 2003 में सुनील कुमार राम और उसके पहले 2002 में सोनामुन्नी कुमारी की आंख की रोशनी गायब हो गयी। ये दलित परिवार के हैं।
इससे अन्य खेतिहर मजदूरों में हड़कंप मच गया। परिवार में एक के बाद एक तीन बच्चे अंधे हो गए। वहीं चार अन्य बच्चे सामान्य हैं। इनके मां-बाप परेशान हो उठे। तीनों को कई जगहों पर ले जाकर इलाज करवाया, मगर सुधार नहीं हो सका। भोजपुर के सिविल सर्जन भी इनकी रोशनी वापस लाने में कामयाब नहीं हो सके। हां, अपाहिज प्रमाण पत्र जरूर मिल गया। निर्गत विकलांग प्रमाण पत्र पेश करने से निःशक्ता सामाजिक सुरक्षा पेंशन मिल पा रहा है।
आज निर्मल कुमार राम एमए पास कर चुका है। सुनील कुमार राम बीए है और सोनामुन्नी कुमारी दसवीं की परीक्षा देने वाली है। दोनों अंधे भाई विभिन्न प्रतियोगिता परीक्षा की तैयारी कर रहे हैं। कई जगह बाहर जाकर परीक्षा भी दे चुके हैं। आंखों की रोशनी इनके लिए बाधक नहीं। बल्कि ये अपने क्षेत्र के लोगों के लिए एक उदाहरण बन चुके हैं।

महादलितों में साक्षरता दर काफी कम

पटना : पिछले दिनों पटना में महिला किसान सम्मेलन का आयोजन किया गया। इस अवसर पर योजना एवं विकास विभाग के प्रधान सचिव विजय प्रकाश ने कहा कि यदि हम राज्य में महिला किसानों की संख्या पर गौर करते हैं, तो पाते हैं कि 1961 में 16 प्रतिशत, 1971 में 2 प्रतिशत, 2001 में 5 प्रतिशत और 2011 में 7 प्रतिशत महिला किसानों की संख्या रही है। कुल मिलाकर 30 लाख महिला किसान हैं। वहीं किसानों की कुल संख्या 1 करोड़ 61 लाख है।
उन्होंने कहा कि त्रिस्तरीय ग्राम पंचायत में 50 प्रतिशत, शिक्षिकाओं की बहाली में 50 प्रतिशत, पैक्स में 50 प्रतिशत और पुलिस विभाग के इंस्पेक्टर की बहाली में 35 प्रतिशत आरक्षण महिलाओं को दी जा रही है। इसके अलावा समेकित बाल विकास परियोजना महिलाओं के ही जिम्मे हैं। आंगनबाड़ी केन्द्र में 90 लाख सेविका और 90 लाख सहायिका सेवारत हैं। इसमें सीडीपीओ भी महिला ही हैं। अभी स्वयं सहायता समूह की महिला सदस्यों की संख्या 64 लाख 61 हजार है। वहीं 1 लाख 10 हजार स्वयं सहायता समूह हैं। इस दिशा में मेजर परिवर्तन हो रहा है। शिक्षा के संदर्भ में जिक्र करते हुए उन्होंने आगे कहा कि 2001-11 तक 20 प्रतिशत साक्षरता दर में वृद्धि हुई है। कुल मिलाकर 53 से 73 प्रतिशत साक्षरता दर में इजाफा हुआ है।
उन्होंने हासिये पर रहने वाले महादलित मुसहर समुदाय के लोगों के बारे में कहा कि 1961 में ढाई प्रतिशत से बढ़कर 2001 में 9 प्रतिशत साक्षरता दर हो गयी है। इस समुदाय में साक्षरता दर की रफ्तार काफी धीमी है। अगर इसी तरह का हाल रहा तो 500 साल में ये महादलित साक्षर हो सकेंगे। सभागार में बैठे महिला किसानों से उन्होंने कहा कि महिला किसान होने के साथ शिक्षा का अधिकार भी लेने की जरूरत है, तब जाकर सही मायने में अधिकार मिल सकेगा। शिक्षा के क्षेत्र में लड़का और लड़की की संख्या में समानता के लिए सरकार गंभीरता से काम कर रही है। इसी तरह खेत में पुरुष और महिला को ‘समान अधिकार समान पहचान’ की दिशा में कार्य करने की जरूरत है।

जमीन के बदले जेल

पटना : पिछले दिनों पटना में एकता परिषद के द्वारा एक सभा का आयोजन किया गया। इस अवसर पर पूरे सूबे से संस्था के कार्यकर्ता, पदाधिकारी व प्रमुख लोग आए। एकता परिषद के राष्ट्रीय समन्वयक प्रदीप प्रियदर्शी ने कहा कि जहां नरसंहार कर धरती को लाल कर दिया जाता था, आज गैर सरकारी संस्थाओं और ग्रामीणों के सहयोग से वहां खेती संभव हो सकी है। भोजपुर, गया, अरवल, जमुई, पश्चिम चम्पारण, पूर्वी चम्पारण, सहरसा, मधेपुरा आदि जिलों में सकारात्मक परिणाम सामने आने लगे हैं। उन्होंने कहा कि वनभूमि पर रहने वाले आदिवासी और गैर आदिवासियों को 13 दिसम्बर, 2005 से पहले रहने का प्रमाण देने पर वनाधिकार कानून, 2006 के तहत सरकार द्वारा वनभूमि का पट्टा देकर मालिकाना हक देना है। यह बिहार में मंथरगति से संचालित है।
प्रियदर्शी ने कहा कि खेत का तीन हिस्सा कार्य महिलाएं ही करती हैं। एक हिस्से का कार्य पुरुष किया करते हैं। इसके बावजूद खेती कार्य में महिलाओं की पहचान ही नहीं है। वे उपेक्षा का दंश झेलती हैं। उन्होंने कहा कि पूरे देश में बिहार अव्वल है जहां कृषि कैबिनेट बनाया गया। सरकार से आग्रह किया गया है कि कृषि कैबिनेट को महिला केन्द्रित कार्य वाला बनाना चाहिए।
इस अवसर पर पश्चिम चम्पारण जिले के बगहा की रहने वाली ज्ञान्ति देवी ने कहा कि भले ही हमलोग अनपढ़ हैं, मगर खेती कार्य अच्छी तरह कर लेते हैं। खेत में सभी चीज उपजा लेते हैं। अब तो पश्चिम चम्पारण के लोग वनभूमि पर खेती करने लगे हैं। वनभूमि कानून, 2006 के तहत वनभूमि का पट्टा नहीं दिया जा रहा है। जमीन का पट्टा देने के बदले लोगों को जेल में बंद कर दिया जा रहा है। झूठा मुकदमा कर दिया जाता है। सरकार दलित, महादलित, आदिवासी व वंचित समुदायों की मदद करने के बदले उसे सताने में लगी है।

शुक्रवार, 3 जनवरी 2014

तूफान में एक जलता दीपक जमसौत

राजीव मणि

बिहार में मुसहरों की एक बड़ी आबादी है। एक बड़ी आबादी मतलब एक बड़ा वोट बैंक। गरीबी और गंदगी इनकी पहचान है। अशिक्षा इन्हें विरासत में मिलती रही है। सूअर पालना, मजदूरी करना और कचरा से लोहा, प्लास्टिक, कागज आदि चुनना इनकी रोजी-रोटी। बीमारी और उससे होने वाली मौतें इनकी किस्मत में ही जैसे लिखी होती हैं। रोज कमाना, रोज खाना की तर्ज पर गुजरती है इनकी जिन्दगी। अगर किसी दिन काम न किया तो चूहा, मेढ़क, घोंघा या सूअर मारकर भी खाना पड़ता है। महुआ दारू चुआना और उसे बेचना इन लोगों ने कब सीख लिया, इन्हें भी पता नहीं। कुल मिलाकर वह सबकुछ जो इन्हें समाज से अलग बनाता है। और यही कारण है कि इनकी बस्तियां ज्यादातर अलग-थलग जगहों पर ही होती हैं। कोई व्यक्ति इनकी बस्तियों में जाना पसंद नहीं करता।
यह छवि बिहार के सभी मुसहरी के बारे में लोगों के मन में बैठी हुई है। लेकिन, जमसौत मुसहरी की बात ही कुछ और है। यह बिहार की पहली मुसहरी है जो विकास कर सकी है और आज समाज में अपना एक महत्वपूर्ण स्थान रखती है। यूं कह लें कि तूफान के बीच एक जलते दीपक की तरह है जमसौत मुसहरी। वोट बैंक के खेल में इन लोगों को महादलित वर्ग में रखा गया है। सिर्फ नाम का, फायदा कुछ नहीं।
दानापुर से सटे पश्चिम की ओर है जमसौत मुसहरी। करीब 110 घर हैं यहां। करीब 400 की आबादी होगी। वर्ष 2012 में यह मुसहरी अचानक चर्चा में आ गयी। कारण था, इसी मुसहरी का रहने वाला मनोज कुमार ‘कौन बनेगा करोड़पति’ की हाॅट सीट तक जा पहुंचा। जगदेव पथ स्थित एक संस्था है शोषित समाधान केन्द्र। मनोज यहीं रहकर पढ़ाई कर रहा है। इस संस्था की खास बात यह है कि यह संस्था मुसहर लड़कों को निःशुल्क शिक्षा देती है। रहने-खाने की भी यहां व्यवस्था है। सारा कुछ निःशुल्क। इस संस्था में अभी करीब 300 मुसहर बच्चे रहकर पढ़ाई कर रहे हैं। मनोज संस्था की ओर से केबीसी में प्रतिनिधित्व कर रहा था। वहां से वह 25 लाख रुपए जीतकर लौटा।
अन्य मुसहरी से काफी हटकर है यह। इसकी कई वजह हैं। सबसे बड़ा कारण है कि यहां के मुसहर देशी या महुआ दारू का कारोबार नहीं करते। दूसरी बात साफ-सफाई के मामले में यह मुसहरी काफी जागरूक है। यहां जाने पर किसी गांव में होने जैसा भ्रम दिखता है। कहीं से मुसहरी का कोई लक्षण नहीं।
यहीं मुझे बिटेश्वर सौरभ मिलें। इसी मुसहरी में रहते हैं। पत्राचार से एम.ए. कर रहे हैं। इन्होंने बताया कि यहां के 15 बच्चे मैट्रिक पास कर चुके हैं। आठ बच्चे इण्टर और एक बीए है। मैं भी एम.ए. कर रहा हूं। बिटेश्वर सौरभ बिहार शिक्षा परियोजना में सहायक साधन सेवी हैं।
बिटेश्वर बताते हैं कि यहां 110 में से 100 घर इंदिरा आवास योजना के तहत बने हैं। स्वास्थ्य कार्ड 65-70 लोगों के पास है। मनरेगा का यहां बुरा हाल है। सभी को काम नहीं मिल पाता है।
ऐसा नहीं कि जमसौत मुसहरी की किस्मत में सिर्फ खुशियां ही खुशियां हैं। दर्द भी साफ देखने को मिला यहां। कुछ मजबूरी भी। सबसे बड़ी मजबूरी आर्थिक तंगी को लेकर है। वजह साफ है, पैसे के बिना सब सूना। कई घरों के लोग तो यहां दाने-दाने को भी मोहताज दिखे। बीमार पड़ने पर तो भगवान का ही सहारा होता है। बीमारी यहां की सबसे बड़ी समस्या दिखी।
बताया गया कि बीमारी के कारण कई लोग इंदिरा आवास योजना से मिली राशि को खर्च कर लिए। इस कारण मकान आधा-अधूरा पड़ा है। कई घरों की छत ढलाई नहीं हो सकी है। लोग जैसे-तैसे जीवन गुजार रहे हैं। कई वृ़द्धों को वृद्धा पेंशन मिल रहा है। लेकिन, ढेर सारी समस्याओं के बीच मुट्ठी भर पैसा कहां समा जाता है, कुछ समझ में नहीं आता। केनारिक मांझी और उनकी पत्नी सकलबसिया देवी ऐसा ही कहती है।
यहीं रमझडि़या से भी मुलाकात हो गयी। उम्र करीब 70 साल रही होगी। मुझे देखकर कोई सरकार का आदमी समझ बैठी। चिल्ला-चिल्ला कर अपनी जमीन दिखाने लगी। कहने लगी - छह साल पहले यहीं मेरा घर था। पुराना होकर गिर गया। मुखिया घर बनाने को पैसे नहीं देती। एकदम बेकार है वह। मुसहरों की बात कौन सुनेगा। अब आप आए हैं तो मेरा पास करवा ही दीजिए। किसी तरह उसे समझाया गया। भीड़ लग गयी। कुछ पढ़े-लिखे लोगों ने मेरी बात उसे अपनी तरह से समझायी। तब जाकर वह शान्त हुई।
इसी बीच गांव में पूजा की तैयारी होने लगी। पता चला कि आज यहां देवी की पूजा होगी। साल में एक बार की जाती है। खूब तामझाम हुआ। बीच गांव में मिट्टी से बनी देवी को एक तख्ती पर बैठाया गया। औरतें ढोलक लेकर आ गयीं। चारो ओर से पूजा स्थल पर घेरकर बैठ गयीं। देवी गीत गाने लगीं। भक्तिन भी पहुंच गयी। एक बुजुर्ग-सा आदमी वहीं कबूतर की बलि देता है। इसपर भक्तिन ने कहा - देवी प्रसन्न नहीं है। तब बकरे की बलि दी जाती है। देशी दारू भी चढ़ाया जाता है। भक्तिन झूमने लगी। मुझे लगा कि शायद देवी प्रसन्न हो रही है। मैं यहां किसी परंपरा या किसी की भावना को ठेस पहुंचाना नहीं चाहता था। थोड़ा-थोड़ा अंधकार हो चला था। अब जमसौत से पटना लौटने का वक्त था।
मजबूरी थी, लौटना पड़ा। यहां पहुंचकर कुछ बातें साफ थीं। अधिकांश सरकारी योजनाओं का लाभ यहां नहीं पहुंच सका है। जो कुछ इस मुसहरी के लोगों ने किया, अपने बलबूते। यही कारण है कि अन्य मुसहरी के लिए यह एक आदर्श मुसहरी बन चुका है।

कब गुलजार होगी इन महादलितों की बस्ती

राजीव मणि

पटना जिले के दानापुर प्रखंड में पुरानी पानापुर ग्राम पंचायत है। इसी पंचायत में महादलितों के करीब 160 घर हैं। ये यहां सौ वर्षों से रहते आ रहे हैं। नौ बीघा जमीन पर इनकी बस्ती कभी गुलजार हुआ करती थी। पिछले जुलाई माह में गंगा का पानी बढ़ा और देखते ही देखते पूरी की पूरी बस्ती गंगा में समा गई। अब ये सभी खुले आकाश के नीचे प्लास्टिक तानकर रहने को विवश हैं।
अभी इन लोगों ने जहां शरण ले रखी है, वहां कई समस्याएं हैं। सबसे पहले तो असामाजिक तत्वों से इन्हें परेशानी होती है। साथ ही, साप, बिच्छा से भी हमेशा डर बना रहता है। इसके अलावा ठंड का प्रकोप। इन्हीं लोगों में से रंजीत कुमार बताते हैं कि हमलोग चमार जाति के हैं। करीब 800 की जनसंख्या है यहां। अधिकांश लोग मजदूरी करते हैं। कुछ मकान बनाने में राजमिस्त्री के साथ, तो कुछ खेतों में। पहले इंदिरा आवास योजना से मकान बना था, अब नहीं रहा। गंगा में मकान बह गया। सभी लोगों को राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना के तहत स्मार्ट कार्ड मिला है। कुछ को अंत्योदय योजना के तहत निःशुल्क राशन मिलता है। 25 लोगों को पीला कार्ड और अन्य सभी को लाल कार्ड निर्गत किया गया है।
रंजीत कहते हैं कि बस्ती में 15 मैट्रिक पास हैं। इनमें 6 महिलाएं हैं। यहां के लोगों ने अखिल भारतीय रविदासिया धर्म संगठन का निर्माण कर रखा है। अबतक अपनी समस्याओं को राज्यपाल के समक्ष रख चुके हैं लोग। साथ ही, मुख्यमंत्री के जनता दरबार में भी आवेदन दिया गया है। लेकिन, कोई फायदा नहीं हुआ। संगठन के अध्यक्ष जनार्दन राम का कहना है कि ठंड से चुल्हन राम की मौत हो चुकी है। यहां कोई देखने वाला नहीं है।
संगठन के सचिव जेके दास की मांग है कि विस्थापितों को कहीं सुरक्षित जगह पर बसाया जाये। साथ ही इंदिरा आवास योजना के तहत मकान बनवाया जाये, ताकि लोगों का जीवन फिर से पटरी पर आ सके।
कटाव पीडि़तों का आरोप है कि पुरानी पानापुर पंचायत की मुखिया बेबी देवी और उनके पति अशोक राय उर्फ इंजीनियर साहब महादलित विरोधी हैं। ये पुनर्वास कराने में सहयोग नहीं कर रहे हैं। हमलोगों ने सीओ को गंगा नदी के दक्षिणी भाग की जमीन का व्योरा दिया है। यहीं पुनर्वास कराने की मांग की जा रही है। राजद के सांसद रामकृपाल यादव ने भी लोगों को बसाने का सरकार से आग्रह किया है।
इस बीच दानापुर प्रखंड के अंचलाधिकारी कुमार कुन्दन लाल द्वारा विस्थापितों को दानापुर के दियारा क्षेत्र के मानस दह में बसाने का प्रयास किया गया। इसे विस्थापितों ने नकार दिया। विस्थापितों का कहना है कि मानस दह में बरसात के समय 10 से 12 फीट पानी रहता है। मानस दह गड्ढ़ा वाली जमीन है। यहां 12 पंचायतों का पानी गिरता है। उसी गड्ढ़े में रहने के लिए सीओ साहब बोल रहे हैं। बाढ़ खत्म हो जाने के बाद भी यहां पानी लगा है। इसे भरने में कितना बालू लगेगा, यह सोच से परे है। हम गरीबों के साथ यह खेल नहीं तो और क्या है।