COPYRIGHT © Rajiv Mani, Journalist, Patna

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सोमवार, 24 नवंबर 2014

पटना में युख्रीस्तीय यात्रा की एक झलक

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Photo : Alok Kumar

ईसाइयों ने पवित्र युख्रीस्तीय यात्रा निकाला

पटना : ईसाई समुदाय ने आशादीप, फेयर फील्ड काॅलोनी से अपना युख्रीस्तीय यात्रा प्रारंभ किया। इसमें पटना और आसपास के करीब पांच हजार लोगों ने भाग लिया। कुर्जी पल्ली के प्रधान पल्ली पुरोहित फादर जोनसन केलकत, येसु समाजी ने कहा कि इस वर्ष की यात्रा का उद्देश्य ‘‘आज के सामाजिक जीवन में पारिवारिक जीवन का महत्व’’ है। इस अवसर पर फादर अनिल मिंज, येसु समाजी ने कहा कि ख्रीस्तीय समुदाय को विश्वास प्रकट करने का यह अच्छा अवसर मिला है, जो अपने विश्वास और अनुभव से अन्य लोगों को प्रभावित कर सके। 
युख्रीस्तीय यात्रा का विशेष आर्कषक सफेद पोशाक पहने बालक व बालिकाएं थे। इस वार्षिक यात्रा में पुष्प बिखेरने का कार्य बच्चे व बच्चियां करती हैं। इन्हें प्रथम परमप्रसाद ग्रहण करने का अवसर प्राप्त हुआ। इन लोगों को 2014 के मई माह में प्रथम परमप्रसाद मिला है। धर्मपरायण महिला ग्रेसी आल्फ्रेड और बेर्नादेक्त सोरेन के नेतृत्व में बच्चों ने पुष्प बिखेरी। 
इसमें पवित्र बाइबिल से ली गयी उक्ति लिपिबद्ध की गयी थी। वहीं आनंद के पांच भेद वाले माला विनती पढ़ी गयी। गीत और भजन गाये गए। बाद में चलकर युख्रीस्तीय यात्रा कुर्जी पल्ली के प्रांगण स्थित प्रेरितों की महारानी ईश मंदिर में पहुंची। यहां पुरोहित ने आशीर्वाद दिए। इसके बाद कुर्जी पल्ली के सहायक पल्ली पुरोहित फादर सुशील साह ने संध्याकालीन मिस्सा पूजा किया। 
युख्रीस्तीय यात्रा के नेतृत्व करने वालों में पल्ली पुरोहित फादर जोनसन, येसु समाजी, सहायक पल्ली पुरोहित फादर सुशील साह, फादर अनिल मिंज और फादर अगस्टीन हेम्ब्रम समेत पल्ली परिषद के सदस्य सुशील लोबो, जेवियर लुइस, चार्ली ग्राब्रिएल, राकेश मोरिस, वरिष्ठ कांग्रेस नेता सिसिल साह, स्टेला साह, राजन साह, ग्रेसी, समाजसेवी आलोक कुमार आदि थे। धन्यवाद ज्ञापन पल्ली पुरोहित फादर जोनसन केलकत ने किया।

बुधवार, 19 नवंबर 2014

एलसीटी घाट मुसहरी में टीबी से कई मरे

न्यूज@ई-मेल
पटना : पश्चिमी पटना स्थित एलसीटी घाट मुसहरी इनदिनों टीबी रोग की चपेट में है। महादलित नौवी मांझी के पिता का नाम रामजी मांझी और माता का नाम मिनता देवी है। दोनों कचरा के ढेर पर जाकर रद्दी कागज आदि चुनते और बेचते हैं। दोनों को यक्ष्मा की बीमारी है। पहले मिनता देवी रोगग्रस्त हुई। आसपास से दवा लेकर खाने लगी। दवा खाती तो ठीक हो जाती और छोड़ने पर फिर रोग पकड़ लेता। परिणाम यह हुआ कि उसकी मौत हो गयी। इसके बाद रामजी मांझी बीमार पड़े। वह दवा के साथ दारू का सेवन भी करता रहा। इस बीच अपने पुत्र नौवी कुमार की शादी कर दी। इसके बाद रामजी मांझी की भी मौत हो गयी। 
इस बीच नौवी मांझी की पत्नी अंजू देवी गर्भवती हो गयी। मगर जन्म के बाद नवजात शिशु की मौत हो गयी। कुछ दिनों के बाद अंजू भी परलोक सिधार गयी। नौवी मांझी कहता है कि टीबी से प्रभावित होने से उसका भी एक तरफ का फेफड़ा खराब हो गया था। महादलित रेखा देवी का कहना है कि हमलोग गरीबी से परेशान हैं। कचरा चुनने जाते हैं। अगर आमदनी नहीं हुई, तो भूखे सो जाना पड़ता है। मुसहरी में काफी गंदगी फैली रहती है। 

युख्रीस्तीय यात्रा 23 नवम्बर को

पटना : ईसाई समुदाय की वार्षिक युख्रीस्तीय यात्रा 23 नवम्बर को होगी। कुर्जी पल्ली परिषद द्वारा आयोजित यात्रा में पटना शहर के ईसाई समुदाय भाग लेंगे। कोई 10 हजार लोगों के भाग लेने की संभावना है। ईसाई धर्मावलम्बी पटना डीनरी के दानापुर, खगौल, फुलवारीशरीफ, मनेर, राजा बाजार, आईजीआईएमएस, पाटलिपुत्र, चकारम, कुर्जी, बालूपर, मखदुमपुर, बांसकोठी, मरियम टोला, फेयर फील्ड काॅलोनी आदि से आकर आशादीप, दीघा में जमा होंगे। 
दीघा फेयर फील्ड काॅलोनी में आशादीप है। यहां दोपहर दो बजे से प्रार्थना सभा का आयोजन होगा। प्रार्थना सभा में शामिल होने वाले लोग कतारबद्ध होकर आगे बढ़ेंगे और प्रार्थना के साथ बीच-बीच में गीत और भजन भी गायेंगे। पवित्र बाइबिल से लिए गए महत्वपूर्ण वाक्यांश को बैनर में लिखकर हाथ में लिए चलेंगे। 
क्या है युख्रीस्तीय यात्रा : ईसाई समुदाय प्रभु येसु ख्रीस्त के प्रति अपनी भक्ति एवं विश्वास की उद्धघोषणा करने के लिए युख्रीस्तीय यात्रा में आते हैं। इस यात्रा के नेतृत्वकर्ता के हाथ में विशेष तरह के बने पात्र में ‘परमप्रसाद’ रहता है। ईसाई समुदाय धार्मिक अनुष्ठान के समय ‘परमप्रसाद’ ग्रहण करते हैं। ऐसी मान्यता है कि इस परमप्रसाद के रूप में प्रभु येसु ख्रीस्त का शरीर ग्रहण किया जाता है। इस युख्रीस्तीय यात्रा को ‘जतरा’ भी कहा जाता है। जतरा के दिन जन्म लेने वाले पुरुष का नाम ‘जतरा’ और स्त्री का नाम ‘जतरी’ भी रखा जाता है। इस नामकरण से सीधे बोध हो जाता है कि अमुख का जन्म युख्रीस्तीय यात्रा के दिन ही हुआ है। 

आदिवासी और वंचित समाज के अधिकारों के लिए पदयात्रा

भोपाल : पिछले कुछ सालों में आदिवासी समुदाय के लिए कई नियम-कानून बनाए गए, जिसके माध्यम से उन्हें अधिकार एवं सम्मान देने का वायदा किया गया। वन अधिकार कानून की प्रस्तावना में यह लिखा गया है कि यह कानून आदिवासियों को अन्याय से मुक्ति दिलाने के लिए बनाया गया है। इसके बावजूद जमीनी हकीकत यह है कि आज भी आदिवासियों के साथ अन्याय हो रहा है। उनके अधिकार छिने जा रहे हैं। उन्हें न्याय नहीं मिल रहा है। शान्ति एवं सम्मान से वे जी नहीं पा रहे हैं। आदिवासियों के साथ हो रहे अन्याय के खिलाफ एकता परिषद और सहयोगी संगठनों द्वारा मध्यप्रदेश में डिंडोरी, मंडला और बालाघाट एवं छत्तीसगढ के कबीरधाम जिले में आदिवासी और वंचित समाज के अधिकारों के लिए एक पदयात्रा का आयोजन किया गया है। पदयात्रा 20 नवंबर को डिंडोरी जिले के बजाग विकासखंड के चाड़ा गांव से प्रारंभ होकर 10 दिसंबर, 2014 को छत्तीसगढ़ के कबीरधाम (कवर्धा) में संपन्न होगी। एकता परिषद की मांग है कि सरकार आदिवासी समुदाय से जुड़े सारे मसलों की जांच के लिए एक स्वतंत्र जांच समिति का गठन जल्द से जल्द करे। 
जन संगठन एकता परिषद के राष्ट्रीय अध्यक्ष एवं भारत सरकार द्वारा गठित राष्ट्रीय भूमि सुधार परिषद के सदस्य राजगोपाल पी.व्ही. ने आयोजित पत्रकार वार्ता में जोरदार ढंग से ये बातें रखीं। उन्होंने कहा कि मध्यप्रदेश में वन अधिकार कानून के क्रियान्वयन का औसत 30 फीसदी है, जो कि बहुत ही कम है। यदि 6 सालों में 10 फीसदी की दर से भी इसपर क्रियान्वयन होता, तो यह आंकड़ा 60 फीसदी तक पहुंच जाता। आदिवासियों के खिलाफ मनगढ़ंत और फर्जी प्रकरणों को भी अभी तक पूरी तरह नहीं हटाया गया है। प्रदेश में डेढ़ लाख प्रकरण हटाए जाने के बाद भी वर्तमान में लगभग 3 लाख फर्जी प्रकरण आदिवासियों के खिलाफ दर्ज हैं। विस्थापन के लिए अंतर्राष्ट्रीय मानक के अनुसार, विस्थापन से पहले विस्थापितों से पूर्व सहमति लिया जाना जरूरी है, पर मंडला, डिंडोरी क्षेत्र में बनने वाले हेरिटेज काॅरिडोर में 600 किलोमीटर का इलाका चला जाएगा, जिससे हजारों लोग विस्थापित होंगे। इसकी योजना बन गई है, पर लोगों को इसके बारे में नहीं मालूम है। प्रदेश की विशेष जनजाति बैगा के लिए बनाए गए बैगा विकास प्राधिकरण के माध्यम से करोड़ों रुपए खर्च किए गए, पर उसका काम पारदर्शी नहीं है। ये सारे मसले बहुत ही गंभीर हैं, जिसकी स्वतंत्र जांच जरूरी है, जिससे कि आदिवासी समाज को न्याय मिल सके और वे शांति एवं सम्मान के साथ जी सकें। सभी मसले की जमीनी हकीकत को ज्यादा करीब से देखने एवं आदिवासी समुदाय को जोड़ने के लिए आदिवासी अधिकार पदयात्रा निकाली जा रही है। पदयात्रा में देश के विभिन्न राज्यों के वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता, आदिवासी व वंचित समाज के प्रतिनिधि, विभिन्न दलों के नेतागण, वरिष्ठ पत्रकार तथा बुद्धिजीवी होंगे। 

बेहाल हैं नगर निगम के मजदूर

पटना : प्रदेश के सभी नगर निगमों में मजदूरों का जमकर शरीरिक व मानसिक शोषण किया जा रहा है। पटना नगर निगम, बांकीपुर अंचल, नूतन राजधानी अंचल, कंकड़बाग अंचल, गया नगर निगम, जहानाबाद नगर निगम, आदि निगमों के मजदूरों की दशा खराब है। ये मजदूर से काम शुरू करते हैं और मजदूर बने रहकर ही अवकाश ग्रहण कर जाते हैं। विडम्बना यह है कि पार्षदों का ध्यान इन असंगठित मजदूरों की ओर नहीं जाता। और तो और, कल्याणकारी सरकार भी इनपर ध्यान नहीं देती। प्रतिमाह इन्हें 26 दिनों की मजदूरी मिलती है। ऐसे निगमकर्मी मजदूरी के रूप में 184 रुपए पाते थे। फिलवक्त इसमें 66 रुपए की वृद्धि की गयी है। अब मजदूरों को प्रतिदिन 250 रुपए मिलेंगे। सूत्र बनाते हैं कि नयी दर पर मजदूरी सितम्बर, 2014 से मिलनी चाहिए थी, मगर बढ़ी मजदूरी मजदूरों को नहीं दी गयी। अब कहा जा रहा है कि यह अक्टूबर माह से मिलेगी। 
बताते चलें कि इन मजदूरों को मालूम ही नहीं है कि भविष्य निधि क्या होता है। श्रम अधिनियम के तहत मिलने वाली सुविधाओं से ये महरूम हैं। चिकित्सा भत्ता, परिवहन भत्ता, आवास भत्ता, नगर निवास भत्ता आदि इनके लिए किसी सपना-सा है। पवन कुमार ‘गौतम’ नामक सफाईकर्मी कहते हैं कि यहां पदोन्नति नहीं मिलती है। मैट्रिक पास होने के बाद भी ‘झाड़ू’ लगाना पड़ता है। 
सफाईकर्मी पवन कुमार ‘गौतम’ ने जाति बंधन तोड़कर मंजू देवी के संग विवाह रचाया था। विवाह के नौ साल के बाद भी संतान नहीं होने पर वे परेशान हैं। आर्थिक स्थिति खराब होने के कारण ढंग से इलाज नहीं करवा पा रहे हैं। वे कहते हैं कि अगर सरकार और नौकरशाह चाहे तो नगर निगमकर्मियों की माली हालत सुधार सकती है। कल्याण और विकास योजनाओं से जोड़कर लाभ दिलवाया जा सकता है। राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना से स्मार्ट कार्ड निर्गत कर स्वास्थ्य क्षेत्र से लाभान्वित करवाया जा सकता है। आवासहीन मजदूरों को जमीन देकर इंदिरा आवास योजना के तहत मकान बनवाया जा सकता है। यहां पेयजल और शौचालय की व्यवस्था की जा सकती है। बच्चों की पढ़ाई की व्यवस्था की जा सकती है। लेकिन, संपूर्ण कार्य नगर निगम के महापौर की दिलचस्पी पर निर्भर है। साथ ही नगर विकास व आवास विकास मंत्री को भी ध्यान देना चाहिए।

‘गया में एक हजार बंधुआ मजदूर’

गया : एकता पीस फाउन्डेशन के सचिव शत्रुध्न कुमार बताते हैं कि बंधुआ मजदूरों की खोज की जा रही है। प्रत्येक माह बैठक की जाती है। सरकारी नौकरशाहों द्वारा बैठकों में जानकारी ली जाती है, मगर जो आंकड़े प्रस्तुत किये जाते हैं, वे सच्चाई से काफी दूर हैं। कम कर आंकड़ा पेश करने का तात्पर्य यह है कि सरकार को बचाया जाता है। लेकिन, सच्चाई सामने आ ही जाती है। गया, मुजफ्फरपुर, सहरसा आदि जिलों के गरीबों को सब्जबाग दिखाकर दलाल ले जाते वक्त स्टेशनों पर पुलिस के हत्थे चढ़ जाते हैं। पलायन करने वालों में अबोध बच्चे और सयाने भी होते हैं। 
शत्रुध्न आगे बताते हैं कि हमलोग ‘बंधुआ मजदूर खोजो अभियान’ शुरू किए हैं। अभी फाउन्डेशन के द्वारा गया जिले के आठ पंचायतों में अभियान चलाया जा रहा है। अभी तक तीन हजार लोगों का सर्वें किया जा चुका है। इनमें एक हजार की संख्या में विशुद्ध बंधुआ मजदूर हैं। 
‘कौन बनेगा करोड़पति’ से लौटे ओम प्रकाश का कहना है कि मेरे पिताजी भजन लाल बंधुआ मजदूर थे। किसान के पास दादाजी पराधीन थे। महज 25 रुपए की लेनदारी थी। दादाजी की मौत के बाद किसान के पास बाबूजी को बंधुआ मजदूर बनना पड़ा। वे किसी तरह सात रुपए अदा कर पाए। किसान के 18 रुपए बकाया रहते बाबूजी फरार हो गए। तब दिल्ली की झुग्गी झोपड़ी में रहकर नये सिरे से जीवन शुरू किया।

रविवार, 16 नवंबर 2014

बहुजनों को जगा रहा ‘महिषासुर’

पुस्तक चर्चा
राजीव मणि
आधुनिक विश्व और भारत को अब यह समझ लेना चाहिए कि किसी भी समाज-देश को इकहरी कहानियों से चलाना खतरनाक है। लोकतंत्र में सबकी कहानियों को सुनने का धैर्य होना चाहिए। हजारों वर्षों से एक नस्लीय दंभ, वर्चस्व की कहानी सुनायी जा रही है। सभी सुन रहे हैं और दूसरों को सुनने के लिए लगातार दबाव भी डाला जा रहा है। इतिहास, शिक्षा, साहित्य, फिल्म, मीडिया और धार्मिक-सांस्कृतिक आयोजनों के जरिए। यह किसी भी रूप में सामाजिक न्याय की आकांक्षा के अनुकूल नहीं है।
सांस्कृतिक उपनिवेशों का खात्मा प्राथमिक होना चाहिए। बुद्ध इसके सबसे बड़े अगुआ हैं। उन्होंने कोई आर्थिक आंदोलन नहीं चलाया। बुद्ध ने ब्राह्मणवादी धर्म-संस्कृति के आधारों पर सीधी चोट की। एक नई वैचारिकी वाली संस्कृति दी दुनिया को और पूरी दुनिया बौद्ध हो गई। 
ये बातें ‘महिषासुर’ नामक पुस्तिका में अश्विनी कुमार पंकज ने अपने लेख ‘दुर्गासप्तशी का असुर पाठ’ में कही हैं। इस पुस्तिका के संपादक हैं प्रमोद रंजन। दुसाध प्रकाशन, लखनऊ द्वारा प्रकाशित इस पुस्तिका में संपादकीय सहित कुल बीस पाठ हैं। पाठों के माध्यम से यह बताने की कोशिश की गई है कि आखिर दुर्गा-महिषासुर की पौराणिक कथा के पुनर्पाठ की आवश्यकता आज क्यों पड़ी। संपादकीय में पुस्तिका के संपादक प्रमोद रंजन ने लिखा है कि यह पुनर्पाठ न्याय की अवधारणा और मनुष्योचित नैतिकता को स्थापित करने के लिए है। सामथ्र्य पर सच्चाई की विजय के लिए है। सैकड़ों वर्षों से जाति-व्यवस्था से त्रस्त भारतीय समाज का अवचेतन इन्हीं कथाओं से बना है। भीषण असमानता से ग्रस्त इस समाज को अपनी मुक्ति के लिए अपने इस अवचेतन में उतरना ही होगा। महज विज्ञान आधारित आधुनिकता के बाहरी औजारों की शल्य क्रिया से इसका मानसिक-मवाद पूरी तरह खत्म न किया जा सकेगा। पौराणिक कथाओं के पुनर्पाठ को इसके मनोवैज्ञानिक इलाज की कोशिश के रूप में भी देखा जाना चाहिए। 
‘एक सांस्कृतिक युद्ध’ शीर्षक पाठ में श्री रंजन ने लिखा है कि सांस्कृतिक गुलामी क्रमशः सामाजिक, राजनैतिक और आर्थिक गुलामी को मजबूत करती है। उत्तर भारत में राजनैतिक, सामाजिक और आर्थिक गुलामी के विरुद्ध तो संघर्ष हुआ, लेकिन सांस्कृतिक गुलामी अभी भी लगभग अछूती रही है। जो संघर्ष हुए भी, वे प्रायः धर्म सुधार के लिए हुए अथवा उनका दायरा हिंदू धर्म के इर्द-गिर्द ही रहा। हिंदू धर्म की नाभि पर प्रहार करने वाला आंदोलन कोई न हुआ। महिषासुर आंदोलन की महत्ता इसी में है कि यह हिंदू धर्म की जीवन-शक्ति पर चोट करने की क्षमता रखता है। 
इसके बाद प्रेमकुमार मणि के दो पाठ ‘किसकी पूजा कर रहे हैं बहुजन?’ और ‘हत्याओं का जश्न क्यों?’ हैं। जैसा कि लेखक परिचय में लिखा गया है कि प्रेमकुमार मणि का यह लेख महिषासुर शहादत आंदोलन का प्रस्थान बिंदु है। ........ ‘फाॅरवर्ड प्रेस’ में प्रकाशित होने के बाद इस महत्वपूर्ण लेख पर बुद्धिजीवियों तथा जेएनयू के छात्रों की नजर गयी, उसके बाद से उत्तर भारत में विशद पैमाने पर महिषासुर विषयक आंदोलन का जन्म हुआ। 
‘देखो मुझे, महाप्रतापी महिषासुर की वंशज हूं मैं’ में अश्विनी कुमार पंकज लिखते हैं कि झारखंड और छत्तीसगढ़ के अलावा पश्चिम बंगाल के तराई इलाके में भी कुछ संख्या में असुर समुदाय रहते हैं। वहां के असुर बच्चे मिट्टी से बने शेर के खिलौने से खेलते तो हैं, लेकिन उनके सिर काट कर। क्योंकि उनका विश्वास है कि शेर उस दुर्गा की सवारी है, जिसने उनके पुरखों का नरसंहार किया था। ........ भारत के अधिकांश आदिवासी समुदाय ‘रावण’ को अपना वंशज मानते हैं। दक्षिण के अनेक द्रविड़ समुदायों में रावण की आराधना का प्रचलन है। बंगाल, उड़ीसा, असम और झारखंड के आदिवासियों में सबसे बड़ा आदिवासी समुदाय ‘संताल’ भी स्वयं को रावण वंशज घोषित करता है। झारखंड-बंगाल के सीमावर्ती इलाके में तो बकायदा नवरात्रि या दशहरा के समय ही ‘रावणोत्सव’ का आयोजन होता है। यही नहीं, संताल लोग आज भी अपने बच्चों का नाम ‘रावण’ रखते हैं। .......... पश्चिमी उत्तर प्रदेश के बदायूं के मोहल्ला साहूकारा में भी सालों पुराना रावण का एक मंदिर है, जहां उसकी प्रतिमा भगवान शिव से बड़ी है और जहां दशहरा ‘शोक दिवस’ के रूप में मनाया जाता हैै। इसी तरह इंदौर में रावण प्रेमियों का एक संगठन है, लंकेश मित्र मंडल! राजस्थान के जोधपुर में गोधा एवं श्रीमाली समाज वहां के रावण मंदिर में प्रति वर्ष दशानन श्राद्ध कर्म का आयोजन करते हैं और दशहरे पर सूतक मानते हैं। गोधा एवं श्रीमाली समाज का मानना है कि रावण उनके पुरखे थे व उनकी रानी मंदोदरी यहीं की मंडोरकी थीं।
झारखंड की सुषमा ‘आदिम जनजाति’ असुर समुदाय से आती है। सुषमा कहती है, ‘मुझे आश्चर्य होता है कि पढ़ा-लिखा समाज और देश अभी भी हम असुरों को ‘कई सिरों’, ‘बड़े-बड़े दांतो-नाखुनों’ और ‘छल-कपट, जादू जानने’ वाला जैसा ही राक्षस मानता है। लोग मुझमें ‘राक्षस’ ढूंढते हैं, पर उन्हें निराशा हाथ लगती है। बड़ी मुश्किल से वे स्वीकार कर पाते हैं कि मैं भी उन्हीं की तरह एक इंसान हूं। हमारे प्रति यह भेदभाव और शोषण-उत्पीड़न का रवैया बंद होना चाहिए। 
‘महिषासुर की याद’ में जितेंद्र यादव लिखते हैं कि महिषासुर बंग प्रदेश के राजा थे। बंग प्रदेश अर्थात् गंगा-यमुना के दोआब में बसा उपजाऊ मैदान जिसे आज बंगाल, बिहार, उड़ीसा और झारखंड के नाम से जाना जाता है। कृषि आधारित समाज में भूमि का वही महत्व था, जो आज ऊर्जा के प्राकृतिक स्त्रोतों का है। बंग प्रदेश की उपजाऊ जमीनों पर अधिकार के लिए आर्यों ने कई बार हमले किए, परंतु राजा महिषासुर की संगठित सेना से उन्हें पराजित होना पड़ा। ‘बल नहीं तो छल, छल का बल!’ महिषासुर की हत्या छल से एक सुंदर कन्या दुर्गा के द्वारा की गई। दुर्गा नौ दिनों तक महिषासुर के महल में रही और अंततः उसने उनकी हत्या कर दी। जितेंद्र आगे लिखते हैं कि महिषासुर को याद करते हुए हम इतिहास में अपने अस्तित्व की खोज कर रहे हैं। हम जानना चाहते हैं कि आखिर समुद्र मंथन के समय जो लोग शेषनाग की मुंह की तरफ थे, जो हजारों की संख्या में मारे गए, उन्हें विष क्यों दे दिया गया? जो लोग पूंछ पकड़े रहे, वे अमृत के हकदार कैसे हो गए? आजादी के आंदोलन को यदि समुद्र मंथन कहें, तो पिछड़ों के हिस्से में तो आज भी विष ही आया है। अमृत तो आज भी पूंछ पकड़ने वालों ने ही गटक लिया है। देश के सत्ता, संसाधनों और नौकरियों पर सवर्णों का ही कब्जा है। 
‘महिषासुर यादव वंश के राजा थे’ में चंद्रभूषण सिंह यादव ने लिखा है कि अनार्य महापुरुष महिषासुर ने जब इनको परास्त किया, तो आर्य खेमे में मायूसी छा गयी। यह मायूसी कैसी थी? यह मायूसी यज्ञ न कर पाने की थी। यज्ञ में क्या होता था? यज्ञ में लाखों गायों, बैलों, भैंसों, घोड़ों, भेड़ों, बकरों को काटकर आर्य लोग चावल मिश्रित मांस पकाकर मधुपर्क के रुप में खाते थे। सोमरस एवं मैरेय पीते थे। जौ, तिल, घी, आग में जलाते थे। अनार्य पशुपालक एवं कृषक थे, जबकि आर्य मुफ्तखोर थे, जो अनार्यों से यह सबकुछ छीनने के लिए युद्ध करते थे। अनार्यों एवं आर्यों के बीच होने वाले इस युद्ध में अनार्यों को यज्ञ विरोधी घोषित कर राक्षस परिभाषित किया जाता था। आर्य सुरा सुन्दरी के सेवनहार थे। अप्सराएं रखना इनका शौक था। समस्त हिंदू धर्मग्रन्थ जारकर्म को पुण्यकार्य घोषित करते हैं। आर्य उपरोक्त कार्यों को वैदिक सनातन धर्म का आवश्यक अंग बताये, तो अनार्यों ने इनके विरुद्ध महिषासुर, बलि, रावण, हिरण्यकश्यप, आदि के रुप में युद्ध किया, जिन्हें इन आर्यों ने सीधी लड़ाई में परास्त करने के बजाय धोखे एवं छल से मारा, जो इन्होंने खुद द्वारा लिखी किताबों में स्वीकार किया है। महिषासुर से वर्षों लड़ने के बाद जब आर्य राजा इन्द्र परास्त कर पाने के बजाय परास्त होकर भाग खड़ा हुआ, तो आर्यों ने ‘छल’ का सहारा लिया और आर्य कन्या दुर्गा को महिषासुर के पास भेजकर महिषासुर का दिल जीतकर उसे मारने की रणनीति बनाई। इसके बाद ही अश्विनी कुमार पंकज का लेख ‘दुर्गासप्तशी का असुर पाठ’ और समर अनार्य का ‘मुक्ति के महाआख्यान की वापसी’ है। 
दिलीप मंडल के ‘धर्म ग्रंथों के पुनर्पाठ की परंपरा’ शीर्षक लेख में उन्होंने लिखा है कि फुले ने मिथकों के पुनर्पाठ के माध्यम से वर्ण-व्यवस्था के मूलाधार ऋग्वेद के पुरुष सूक्त को अवैज्ञानिक और कोरा गप करार दिया है। ऐसा करते समय उनका लक्ष्य सिर्फ यह स्थापित करना है कि हर मनुष्य उत्पत्ति की दृष्टि से समान है। कोई मनुष्य मुंह से पैदा नहीं हो सकता। क्या फुले ऐसा करते हुए किसी की भावनाओं को ठेस पहुंचा रहे थे? हां, मुमकिन है कि इस लेखन से किसी को ठेस पहुंच रही हो, लेकिन इस वजह से सत्य कहने के ऐतिहासिक कार्यभार को फुले ने मुल्तवी नहीं किया। क्योंकि जैसे ही कोई यह मान लेता है कि ब्राह्मण ब्रह्मा के मुंह से पैदा हुए हैं, इसके साथ ही यह भी मान्यता होती है कि इस देश के बहुजन पैर से पैदा हुए हैं। यह बात ऊंच-नीच को धार्मिक मान्यताओं के साथ स्थापित करती है। इसलिए इसका खंडन जरूरी है, बेशक इससे किसी की धार्मिक भावनाओं को ठेस लगती हो। 
इन पाठों के अलावा संजीव चंदन का ‘महिषासुर और दुर्गा की उपकथाएं’, अरविंद कुमार का ‘महिषासुर दिवस की जन्म कथा’, राजकुमार राकेश का ‘महिषासुर: पुनर्पाठ की जरुरत’, सुरेश पंडित का ‘मिथक का सच’, अरुण कुमार का ‘सौ जगहों पर मनाया जा रहा शहादत दिवस’, विनोद कुमार का ‘आर्य व्याख्या का आदिवासी प्रतिकार’ और अभिषेक यादव का ‘इतिहास को यहां से देखिए’ इस पुस्तिका में पढ़ने को मिलेंगे। अभिषेक यादव लिखते हैं कि अगर आप महिषासुर-दुर्गा प्रकरण पर विचार करेंगे, तो पाएंगे कि यह एक देवासुर संग्राम ही है और संयोग वह देखिए कि ब्राम्हणवादी भी इसे देवासुर संग्राम ही मानते हैं। जो बाहर से आए आर्यों और यहां के मूलनिवासियों के बीच हुआ। संसाधनों पर अपने नियंत्रण को बचाने की खातिर महिषासुर, जो कि यहां के मूल निवासियों के नेता थे, ने आर्यों से भीषण संघर्ष किया। आर्य दूसरों की संपत्ति हड़पने के लिए लड़ रहे थे और महिषासुर अपने लोगों की संपत्ति की रक्षा के लिए। बार-बार पराजित हो रहे आर्यों ने दुर्गा का उपयोग किया। महिषासुर मारे गए। इतिहास लिखना आर्यों के हाथ में था, सो धूर्तता करने वाले देवी और देवता कहे गए, और अपनी जनता की रक्षा करने वाले असुर राक्षस और न जाने क्या-क्या।
पुस्तिका के अंत में ‘जिज्ञासाएं और समाधान’ शीर्षक पाठ है। इसके तहत महिषासुर की हत्या कब हुई, महिषासुर शहादत दिवस किस तारीख को मनाया जाना चाहिए और शहादत दिवस का आयोजन कैसे करें, इसकी चर्चा विस्तार से की गई है। कुल मिलाकर पुस्तिका में दुर्गा-महिषासुर युद्ध और महिषासुर के शहादत की चर्चा है। पुस्तिका में महिषासुर की एक रंगीन स्केच चित्र भी छापी गयी है। आवरण ठीक-ठाक है। हां, कुछ अशुद्धियां अवश्य रह गयी हैं। पुस्तिका का मूल्य है 50 रुपए।

बुधवार, 5 नवंबर 2014

ईसाइयों ने मनाया ‘मृतकों का पर्व’

न्यूज@ई-मेल
पटना : जैसा की सभी जानते हैं कि किसी ईसाई के मरने के बाद उसे कब्र में दफनाया जाता है। इन्हीं मरे हुए लोगों की याद में 2 नवम्बर को ‘मृतकों का पर्व’ मनाया जाता है। राजधानी पटना में भी मृतकों का पर्व मनाया गया। इस अवसर पर पूरे कब्रिस्तान को अच्छी तरह सजाया गया। रंग-रोगन का काम हुआ। कब्र को रौनकदार बनाया गया। कब्र पर लगे क्रूसों को ठीक किया गया। फूलवाड़ी को व्यवस्थित किया गया।
राजधानी स्थित कुर्जी कब्रिस्तान में मुर्दों के इस पर्व को लेकर अनुष्ठान किया गया। तीन बार मिस्सा पूजा की गयी। दो बार सुबह की मिस्सा पूजा के बाद तीसरी बार कब्रिस्तान में पूजा की गयी। 
ज्ञात हो कि इस दिन सूबे के सभी ईसाई कब्रिस्तान में मिट्टी को समर्पित हो चुके लोगों की याद में कब्र के पास आंसू बहाते हैं। यह उनकी भावना और अपनों से घनिष्टता को दर्शाता है। इसी क्रम में कब्र पर फूल चढ़ाये गये और अगरबत्ती व मोमबत्तियां जलायी गयीं। पुरोहितों ने धार्मिक अनुष्ठान कर परमप्रसाद आदि रस्म अदायगी कर अंत में सभी कब्रों के पास पहुंचकर पवित्र जल का छिड़काव किया। 
बताते चलें कि इससे ठीक एक दिन पहले यानी एक नवम्बर को ईसाई समुदाय सभी संतों का पर्व मनाते हैं। इस अवसर पर धर्मावलम्बी गिरजाघर पहुंचे। वहां प्रार्थना किया गया। प्रार्थना के दौरान श्रद्धालुओं ने सभी संतों से परिवार में सहयोग देने और कृपा बरसाने का आग्रह किया। पुरोहितों ने पवित्र परमप्रसाद का वितरण किया। 
ज्ञात हो कि ईसाई समुदाय के अनेक संत हैं। कुछ चर्चित संतांे के नामों में जोसेफ, मरिया, जौर्ज, जोन, थोमस, अगस्तीन, लुकस जेवियर, फ्रांसिस आदि हैं। इन्हीं ‘संतों’ के नाम से लोग अपने बच्चों व संस्थाओं के नाम भी रखते हैं। इन संतों के प्रति अपनी आस्था व उन्हें पवित्र मानते हुए ईसाई समुदाय इसे उत्साह से मनाते हैं। लेकिन, बदली परिस्थिति में हिन्दी नाम रखने का प्रचलन भी हो गया है। 

पेट के लिए हजामत बनाने का पुश्तैनी काम छोड़कर बनना पड़ा पुजारी !

पटना : रोजगार की तलाश में पलायन कर रघुनाथ ठाकुर 1960 में वैशाली जिले के लालगंज से पटना आए थे। अब रघुनाथ ठाकुर नहीं रहे। आज उनके तीन पुत्र बोरिंग कैनाल रोड स्थित पंचमुखी मंदिर के पास सड़क पर ही हजामत बनाते हैं। 1975 से इन भाइयों का एक-एक कर यहां आना हुआ। ये आने वाले ग्राहकों को ईंट पर बैठाते हैं। इसके बाद प्रेम से हजामत बनाते हैं। इन्हीं के परिवार के सरोज ठाकुर पुजारी बन गए हैं। काम ना मिलने और हजामत के काम से घर-परिवार ना चल पाने के कारण इन्हें यह करना पड़ा। आज इनकी अच्छी कमाई हो जाती है।
उमा ठाकुर बताते हैं कि पहले डेढ़ रुपए से दाढ़ी बनाने का काम शुरू किये, आज 10 रुपए में दाढ़ी बनाते हैं। इसी अल्प मजदूरी से परिवार की जरूरतों को पूरा करना होता है। वे कहते हैं कि कर्पूरी ठाकुर बिहार के मुख्यमंत्री हुए, लेकिन उन्होंने नाई समुदाय पर ध्यान नहीं दिया। इस कारण यह समुदाय अपने हाल पर ही रह गया। उमा ठाकुर को एक लड़की और दो लड़के हैं। वहीं उसके भाई उमेश ठाकुर को तीन लड़की और एक लड़का। तीसरे भाई ललन ठाकुर को तीन लड़के हैं। 
ललन ठाकुर बताते हैं कि हमलोगों की घरवाली एक स्वयं सहायता समूह की सदस्य हैं। समूह से कर्ज लेती हैं। कम ब्याज पर कर्ज मिलता है। इससे खर्च चल पाता है। खेती योग्य जमीन नहीं है। गांव पर हमलोग छोटा-छोटा घर बनाकर रहते हैं। समझ लें कि घर किसी सुअर के बखौर की तरह है। काफी दिक्कत से जिन्दगी काट रहे हैं। गरीबी के कारण हमलोग फुटपाथ पर ही बैठकर हजामत बनाते हैं। करीब 40 साल के बाद भी किराये पर सैलून न खोल सकें।

पति ने दिया दगा, भटक रही सीता

पटना : पटना जिले के मोकामा ताड़तर गांव में अर्जुन चैहान रहते हैं। उनकी बेटी है सीता देवी। सीता की शादी इन्द्रजीत चैहान के संग हो गयी। दानापुर प्रखंड के बलवा पंचायत के बलवा कठौती गांव में इन्द्रजीत चैहान और सीता देवी रहने लगे। देखते ही देखते दोनों के चार बच्चे हुए। दो लड़की और दो लड़के हैं। इनका नाम सुमन कुमारी, तुलसी कुमारी, पिंटू कुमार और कुंदन कुमार है। सुमन तीसरी में और तुलसी दूसरी कक्षा में पढ़ती है। 
लेकिन, सीता की किस्मत में कुछ और ही लिखा था। पति इन्द्रजीत से धोखा खा बैठी। वह घर छोड़कर चला गया। मगर वह हारी नहीं। हिम्मत कर जालंधर, पंजाब में दिहाड़ी पर काम करने चली गयी। काम नहीं मिलने पर वापस आ गयी। अब पटना में अपने घर पर तीन बच्चों को छोड़ और एक को अपनी गोद में लिए काम की तलाश में आ पहुंची। जब उसका पति घर से फरार हुआ, उस समय वह गर्भवती थी। किसी तरह सीता ने चैथे पुत्र को जन्म दिया। अभी वह दो साल का है। बाद में सीता को ज्ञात हुआ कि तीन साल पहले उसका पति अब इस दुनिया में नहीं रहा। 
काम खोजते-खोजते सीता दीघा पहुंच गयी। दीघा से चलने वाली रेल पर ही उसे रंधीर रविदास और रंभू यादव नामक मजदूर मिल गए। दोनों मजदूरों ने सीता को काम और घर दिलवाने के बहाने पुनाईचक हाॅल्ट पर उतर लिए। आशंका है कि वह किसी गलत हाथों में ना फंस गयी हो। 

परिचर्चा का आयोजन

पटना : पिछले दिनों अन्तरराष्ट्रीय खाद्य दिवस के अवसर पर आॅक्सफैम इंडिया और भोजन का अधिकार अभियान के संयुक्त तत्वावधान में ग्रो सप्ताह के तहत राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून, 2013 के नियमावली पर पैनल परिचर्चा की गयी। इस अवसर पर आॅक्सफैम इंडिया के क्षेत्रीय प्रबंधक प्रवीन्द कुमार प्रवीण ने अतिथियों एवं प्रतिभागियों का स्वागत किया। क्षेत्रीय प्रबंधक ने कहा कि 16 अक्टूबर, 1945 में संयुक्त राष्ट्र द्वारा विश्व खाद्य एवं कृषि संगठन की स्थापना की गई थी। 1979 में विश्व खाद्य एवं कृषि संगठन के सदस्य देशों के 20वें आमसभा में 16 अक्टूबर को विश्व खाद्य दिवस के रूप में मनाने का निर्णय लिया गया। आज ग्रो सप्ताह के तहत अंतरराष्ट्रीय खाद्य दिवस के अवसर पर राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून, 2013 के अंतर्गत लाभान्वितों की पहचान, अनाज का उठाव, भंडारण एवं वितरण, कुपोषण तथा मातृत्व लाभ को शामिल कर चर्चा करेंगे। 
इस मौके पर भोजन अधिकार अभियान (बिहार) के संयोजक रुपेश ने कहा कि दुनिया को भूख से मुक्ति दिलाने को दुनिया भर में खाद्य सुरक्षा के मुद्दे से जुड़े संगठन इस दिवस को मनाते हैं। भारत में इस दिन का महत्व और अधिक है, क्योंकि एक ओर तो देश तेजी से विकास की ओर बढ़ रहा है, दूसरी तरफ आज भी देश के अलग-अलग हिस्सों से भूख से मौत की खबरें आती हैं। बिहार में भी लगातार मौते होती रही हैं। उन्होंने कहा कि विभिन्न रिपोर्टो के अनुसार, राज्य में लगभग 50 प्रतिशत बच्चे कुपोषित हैं। वहीं लगभग 70 प्रतिशत महिलाएं खून की कमी से जूझ रही हैं।
उन्होंने कहा कि गया के सामाजिक कार्यकर्ता शत्रुध्न कुमार और बोधगया प्रखंड के सामाजिक कार्यकर्ता बच्चू मांझी ने जब भूख से होने वाली मौत को गंभीरता से उठाया, तो प्रशासन ने उक्त मौत को भूख से नहीं, परन्तु बीमारी से करार दिया। उन्होंने कहा कि कल्याणकारी सरकार और तथाकथित सभ्य समाज नहीं चाहते कि कोई व्यक्ति भूख से मरे। इसका ही परिणाम है कि लोग चूहा, मेढ़क, घोंघा, सितुआ आदि खाने को विवश हैं। 
परिचर्चा में रुपेश, भोजन का अधिकार अभियान, डीएम दिवाकर, निदेशक, अनुग्रह नारायण समाज अध्ययन संस्थान, प्रतिभा सिन्हा, ओएसडी खाद्य एवं उपभोक्ता संरक्षण विभाग, डाॅ. चांदनी, समेकित बाल विकास परियोजना तथा देवशील प्रसाद, मध्याह्न भोजन निदेशालय के अलावा दलित अधिकार मंच के अध्यक्ष कपिलेश्वर राम ने विचार व्यक्त किए। इस अवसर पर फादर फिलिप मंथरा, डाॅ. शरद, नीलू आदि भी मौजूद थे।