COPYRIGHT © Rajiv Mani, Journalist, Patna

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बुधवार, 23 अप्रैल 2014

दलित की प्रेम कहानी ने दुनिया को चौकाया

Dashrath Manjhi's Path
खास खबर
राजीव मणि
प्यार में चांद-तारें तोड़ लाने की बात कइयों से सुनी जाती है। लेकिन, किसी ने लाया नहीं। भारतीय इतिहास में भी अमर-प्रेम के दर्जनों किस्से हैं। शाहजहां ने तो अपनी पत्नी की याद में ताजमहल तक बनवा डाला। अमर-प्रेम की इस निशानी को बनवाने में कई हजार मजदूर लगें। वर्षों बीत गये। खजाना तक खाली हो गया। यहां तक कि जनता के सामने भुखमरी छा गयी।
अभी तक जितने भी उदाहरण दिये जाते हैं, उन सबमें दशरथ मांझी का प्रेम महान है। बिहार के गया जिले के इस दलित ने जो कारनामा कर दिखाया, सबपर भारी पड़ा। दशरथ ने अपनी पत्नी की मुहब्बत में विशाल पहाड़ को बीच से काटकर रास्ता बना डाला। प्रेम में किया गया यह काम इसलिए सबपर भारी पड़ा, क्योंकि यह सिर्फ अपनी पत्नी के लिए नहीं, पूरे समाज के लिए था। वह भी अकेले, सिर्फ छेनी, हथौड़ी और खंती के सहारे।
Dashrath Manjhi's Samadhi
इसके बावजूद इस महान कार्य को काफी दिनों तक लोग जान नहीं पाये। कारण कि सुदूर क्षेत्र में है यह गांव। गया जिले से 28 किलोमीटर दूर है वजीरगंज। और यहां से करीब 18 किलोमीटर दूर गहलौर। पहाड़ से घिरा एक गांव। यहीं दशरथ मांझी का घर है।
कहते हैं न कि बात निकलेगी तो दूर तलक जायेगी। सो देर से ही सही, बात निकली भी और दूर तलक गयी भी। सत्यमेव जयते-2 टीवी कार्यक्रम के लिए आमिर खान यहां 25 फरवरी को पहुंचे। फिर क्या था, इसी बहाने इस अमर-प्रेम की चर्चा दूर-दूर तक हो गयी। दशरथ मांझी के इस अनोखे प्रेम ने फाॅरवर्ड प्रेस के इस संवाददाता को भी अपनी ओर खींचा।
अतरी प्रखंड के गहलौर पहुंचकर दशरथ मांझी के पुत्र भागीरथ से मुलाकात हुई। बात ही बात में दशरथ बाबा की कहानी निकली। बाबा का परिवार अब भी इसी गांव मंे उसी मिट्टी के मकान में रहता है। पहाड़ के दूसरी ओर जंगल से लकड़ी काटकर और उसे बेचकर बाबा का गुजारा चलता था। बाबा रोज सुबह लकड़ी काटने पहाड़ की दूसरी ओर कई किलोमीटर दूर पैदल चलकर जाते थे। उनकी पत्नी, फगुनी, रोज दोपहर में खाना लेकर पहुंचती थी। शाम होते-होते वे लकड़ी लेकर लौटते थे।
Dashrath Manjhi's House
एक दिन बाबा की पत्नी खाना लेकर गयी हुई थी। बाबा को तेज प्यास लगी। पानी नहीं था। बाबा ने अपनी पत्नी को पानी लाने भेजा। वह पानी लाने गयी। गांव से मटके में पानी लेकर पहाड़ पर चढ़ने लगी। रास्ते में पैर फिसला और लुढ़ककर बुरी तरह घायल हो गयी। इधर, बाबा प्यास से ब्याकुल। अपनी पत्नी को कोसते बाबा घर की तरफ देखने निकले। रास्ते में खून से लथपथ और बेहोश उनकी पत्नी मिली। मटका टूटा पड़ा था। पानी बह चुका था। फिर क्या था, घर में कोहराम मच गया। अपनी पत्नी को उठाये बाबा घर पहुंचे। पूरे इलाके में डाॅक्टर नहीं, स्वास्थ्य केन्द्र व अस्पताल नहीं! किसी तरह घरेलू चिकित्सा कर खून रोका गया। बाद में अस्पताल पहुंचाया गया। अपनी पत्नी को लाचार, बेवस देखकर बाबा बेचैन हो उठे। गुस्से में ही मुंह से निकला था, अगर यह पहाड़ बीच में नहीं होता तो फगुनिया को अस्पताल समय पर ले जाया जाता। इस पहाड़ ने कइयों की जिन्दगी छीन ली है। मैं इसे खत्म कर दूंगा।
वर्ष 1960 की बात है। दशरथ बाबा हाथ में छेनी, हथौड़ी और खंती लिए अकेले ही निकल पड़े। विशाल पहाड़ के पास पहुंचे। पहाड़ को गौर से देखा। और फिर आसपास के क्षेत्रों में छेनी-हथौड़ी की आवाज गूंजने लगी। और जब 1982 में यह आवाज बंद हुई तो पूरे 22 वर्ष गुजर चुके थे। पहाड़ का सीना चीड़ बीच से रास्ता निकाला जा चुका था। 360 फुट लंबे, 22 फुट चैड़े इस रास्ता ने पूरे गांव को एक नई जिन्दगी दी।
Dashrath Manjhi's Tool
हालांकि बाबा की पत्नी का देहान्त रास्ता बनने से एक साल पहले ही हो चुका था। फिर भी बाबा टूटे नहीं। पत्नी की मौत के बाद और तेजी से लग गये। जैसे फगुनिया मरकर भी बाबा के और करीब आ गयी हो। इसके बाद बाबा ने पहाड़ तथा आसपास के क्षेत्रों में पेड़ लगाना शुरू किया। कुछ ही वर्षों में पूरा इलाका हराभरा हो गया। बाबा के पुत्र भागीरथ बताते हैं कि बाबा ने अपने ही हाथों से एक कुआं भी खोदा था। बाद में धीरे-धीरे यह भर गया।
बाबा को दो संतानें हैं। एक पुत्र, एक पुत्री। बेटी का नाम है लौंगिया देवी। लौंगिया बताती है कि इसके बाद तो बाबा पहाड़ से भी ज्यादा सख्त और मजबूत इरादा वाले हो गये। एक बार बाबा को किसी ने बताया कि दिल्ली बहुत दूर है। वहां जाना आपके बस की बात नहीं। फिर क्या था, बाबा ने सोच लिया कि मैं दिल्ली जाऊंगा और वह भी पैदल। एक दिन बाबा दिल्ली जाने को पैदल ही घर से निकल पड़े और अंततः दिल्ली पहुंचकर ही दम लिया।
दशरथ बाबा की बहू बसंती देवी, दामाद मिथुन और पोती लक्ष्मी, सभी ने बताया कि बाबा सबरी माता के भक्त थे। भगवान श्रीराम को जूठे बेर खिलाती सबरी की तस्वीर वे सदा पास रखते थे। उसकी पूजा करते थे। बाबा चाहते थे कि सबरी माता का एक मंदिर भी गांव में बने। वे प्रयासरत भी थे। लेकिन, इसी बीच 17 अगस्त, 2007 को बाबा चल बसे। अपने पीछे प्यार की बेमिशाल कहानियां छोड़कर। पूरे गांव-समाज के लिए कुछ बनाकर। बसंती देवी कहती है कि गांव के मंदिर में हमलोगों को जल्द घुसने नहीं दिया जाता है। इसलिए ही बााबा अलग से सबरी माता की मूर्ति लगवाना चाहते थे। साथ ही गहलौर को ब्लाॅक का दर्जा भी वे दिलवाना चाहते थे।
Family Of Dashrath Manjhi
मिथुन कहते हैं कि गांव और आसपास के दूर-दूर तक के इलाके में बाबा के समय न कोई स्वास्थ्य केन्द्र था और ना ही कोई विद्यालय। बाबा का यह सपना भी उनके जीते जी पूरा नहीं हो सका। बाबा के मरने के बाद स्कूल खुला। अस्पताल का काम अभी चल रहा है।
आज यहां ना दशरथ मांझी हैं और ना ही फगुनी देवी, लेकिन आसपास के पूरे इलाके में उन्हें महसूस किया जा सकता है। पहाड़ के बीचोबीच रास्ता पर, जंगलों में ‘मांउटेनमैन’ के होने का आभास होता है। बाबा का पूरा परिवार आज उसी मकान में एकसाथ रहता है, जहां बाबा ने अमर-प्रेम की कहानी लिखी। उनकी छेनी, हथौड़ी, खंती आज भी परिवार के पास सुरक्षित है। और साथ ही वह मिट्टी का घर जिसमें बाबा रहते थे।

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