दलितों के साथ हमेशा से शोषन होता रहा है। महिलाएं कुछ ज्यादा ही प्रभावित हुई हैं। सरकारी आकड़ों के अनुसार, बिहार में 2012 में कुल 4950 घटनाएं अनुसूचित जाति एवं जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम 1989 के तहत दर्ज की गयीं। इनमें 191 घटनाएं केवल दलित महिलाओं पर हुए बलात्कार की थीं। इसके अलावा घरेलू हिंसा, दहेज प्रताड़ना, राजनीतिक हिंसा और डायन का आरोप लगाकर प्रताडि़त करना जैसी घटनाएं इनके जीवन का हिस्सा बनीं। यहां यह ध्यान देने वाली बात है कि एक तिहाई से भी कम महिलाएं शिकायत निवारण प्रणाली तक पहुंच पाती हैं।
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 17 द्वारा अस्पृश्यता का अंत किया गया तथा अनुच्छेद 366, 341 व 342 में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति को परिभाषित कर व्याख्या की गयी। इस वर्ग को शोषण और अत्याचार से मुक्त कराने के उद्देश्य से 1989 में संसद द्वारा अनुसूचित जाति एवं जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 पारित किया गया। कानून के अंतर्गत विशिष्ठ न्यायालयों का गठन करने का प्रावधान किया गया। कानून बनने के लगभग दो दशक बाद, हाल ही में, बिहार के 5 जिलों (पटना, मुजफ्फरपुर, गया, भागलपुर एवं बेगूसराय) में दलितों के लिए विशिष्ठ न्यायालयों की स्थापना की गयी है। इसके अतिरिक्त, दलित उत्पीड़न के दर्ज केसों के त्वरित निराकरण के लिए बिहार में सर्वाधिक (184) फास्ट ट्रैक न्यायालयों का गठन किया गया। बावजूद इसके लगभग 80 हजार केस आज भी विचाराधीन हैं। अतः इस तरह के न्यायिक ढांचे ज्वलंत समस्याओं के लिए अल्पकालीन निवारण मात्र हैं और इन ढांचों में दलित महिलाओं की समुचित सहभागिता के लिए कोई उचित स्थान नहीं है।
घरेलू हिंसा से महिलाओं की सुरक्षा के लिए वर्षों के अथक प्रयास के बाद 2005 में घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम (पीडब्ल्यूडीवीए) पारित किया गया। इस विधेयक को लागू करने के लिए व्यापक नियम बनाये गये, परन्तु इनका पालन बिहार में केवल महिला हेल्प लाइन के माध्यम से किया जा रहा है। इस कानून के प्रचार-प्रसार तथा ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाओं तक पहुंच बनाने की कोशिश न के बराबर की गयी है।
ग्रामीण स्तर पर ज्यादातर घरेलू हिंसा के मामले ग्राम कचहरी में दर्ज किये जाते हैं। एक तरफ जहां महिलाओं के प्रति हिंसा बढ़ी है, वहीं दलित महिलाओं को सशक्त बनाने के प्रयास हो रहे हैं। अभी तक किये गये सारे प्रयास नाकाफी हैं।
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