COPYRIGHT © Rajiv Mani, Journalist, Patna

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रविवार, 16 नवंबर 2014

बहुजनों को जगा रहा ‘महिषासुर’

पुस्तक चर्चा
राजीव मणि
आधुनिक विश्व और भारत को अब यह समझ लेना चाहिए कि किसी भी समाज-देश को इकहरी कहानियों से चलाना खतरनाक है। लोकतंत्र में सबकी कहानियों को सुनने का धैर्य होना चाहिए। हजारों वर्षों से एक नस्लीय दंभ, वर्चस्व की कहानी सुनायी जा रही है। सभी सुन रहे हैं और दूसरों को सुनने के लिए लगातार दबाव भी डाला जा रहा है। इतिहास, शिक्षा, साहित्य, फिल्म, मीडिया और धार्मिक-सांस्कृतिक आयोजनों के जरिए। यह किसी भी रूप में सामाजिक न्याय की आकांक्षा के अनुकूल नहीं है।
सांस्कृतिक उपनिवेशों का खात्मा प्राथमिक होना चाहिए। बुद्ध इसके सबसे बड़े अगुआ हैं। उन्होंने कोई आर्थिक आंदोलन नहीं चलाया। बुद्ध ने ब्राह्मणवादी धर्म-संस्कृति के आधारों पर सीधी चोट की। एक नई वैचारिकी वाली संस्कृति दी दुनिया को और पूरी दुनिया बौद्ध हो गई। 
ये बातें ‘महिषासुर’ नामक पुस्तिका में अश्विनी कुमार पंकज ने अपने लेख ‘दुर्गासप्तशी का असुर पाठ’ में कही हैं। इस पुस्तिका के संपादक हैं प्रमोद रंजन। दुसाध प्रकाशन, लखनऊ द्वारा प्रकाशित इस पुस्तिका में संपादकीय सहित कुल बीस पाठ हैं। पाठों के माध्यम से यह बताने की कोशिश की गई है कि आखिर दुर्गा-महिषासुर की पौराणिक कथा के पुनर्पाठ की आवश्यकता आज क्यों पड़ी। संपादकीय में पुस्तिका के संपादक प्रमोद रंजन ने लिखा है कि यह पुनर्पाठ न्याय की अवधारणा और मनुष्योचित नैतिकता को स्थापित करने के लिए है। सामथ्र्य पर सच्चाई की विजय के लिए है। सैकड़ों वर्षों से जाति-व्यवस्था से त्रस्त भारतीय समाज का अवचेतन इन्हीं कथाओं से बना है। भीषण असमानता से ग्रस्त इस समाज को अपनी मुक्ति के लिए अपने इस अवचेतन में उतरना ही होगा। महज विज्ञान आधारित आधुनिकता के बाहरी औजारों की शल्य क्रिया से इसका मानसिक-मवाद पूरी तरह खत्म न किया जा सकेगा। पौराणिक कथाओं के पुनर्पाठ को इसके मनोवैज्ञानिक इलाज की कोशिश के रूप में भी देखा जाना चाहिए। 
‘एक सांस्कृतिक युद्ध’ शीर्षक पाठ में श्री रंजन ने लिखा है कि सांस्कृतिक गुलामी क्रमशः सामाजिक, राजनैतिक और आर्थिक गुलामी को मजबूत करती है। उत्तर भारत में राजनैतिक, सामाजिक और आर्थिक गुलामी के विरुद्ध तो संघर्ष हुआ, लेकिन सांस्कृतिक गुलामी अभी भी लगभग अछूती रही है। जो संघर्ष हुए भी, वे प्रायः धर्म सुधार के लिए हुए अथवा उनका दायरा हिंदू धर्म के इर्द-गिर्द ही रहा। हिंदू धर्म की नाभि पर प्रहार करने वाला आंदोलन कोई न हुआ। महिषासुर आंदोलन की महत्ता इसी में है कि यह हिंदू धर्म की जीवन-शक्ति पर चोट करने की क्षमता रखता है। 
इसके बाद प्रेमकुमार मणि के दो पाठ ‘किसकी पूजा कर रहे हैं बहुजन?’ और ‘हत्याओं का जश्न क्यों?’ हैं। जैसा कि लेखक परिचय में लिखा गया है कि प्रेमकुमार मणि का यह लेख महिषासुर शहादत आंदोलन का प्रस्थान बिंदु है। ........ ‘फाॅरवर्ड प्रेस’ में प्रकाशित होने के बाद इस महत्वपूर्ण लेख पर बुद्धिजीवियों तथा जेएनयू के छात्रों की नजर गयी, उसके बाद से उत्तर भारत में विशद पैमाने पर महिषासुर विषयक आंदोलन का जन्म हुआ। 
‘देखो मुझे, महाप्रतापी महिषासुर की वंशज हूं मैं’ में अश्विनी कुमार पंकज लिखते हैं कि झारखंड और छत्तीसगढ़ के अलावा पश्चिम बंगाल के तराई इलाके में भी कुछ संख्या में असुर समुदाय रहते हैं। वहां के असुर बच्चे मिट्टी से बने शेर के खिलौने से खेलते तो हैं, लेकिन उनके सिर काट कर। क्योंकि उनका विश्वास है कि शेर उस दुर्गा की सवारी है, जिसने उनके पुरखों का नरसंहार किया था। ........ भारत के अधिकांश आदिवासी समुदाय ‘रावण’ को अपना वंशज मानते हैं। दक्षिण के अनेक द्रविड़ समुदायों में रावण की आराधना का प्रचलन है। बंगाल, उड़ीसा, असम और झारखंड के आदिवासियों में सबसे बड़ा आदिवासी समुदाय ‘संताल’ भी स्वयं को रावण वंशज घोषित करता है। झारखंड-बंगाल के सीमावर्ती इलाके में तो बकायदा नवरात्रि या दशहरा के समय ही ‘रावणोत्सव’ का आयोजन होता है। यही नहीं, संताल लोग आज भी अपने बच्चों का नाम ‘रावण’ रखते हैं। .......... पश्चिमी उत्तर प्रदेश के बदायूं के मोहल्ला साहूकारा में भी सालों पुराना रावण का एक मंदिर है, जहां उसकी प्रतिमा भगवान शिव से बड़ी है और जहां दशहरा ‘शोक दिवस’ के रूप में मनाया जाता हैै। इसी तरह इंदौर में रावण प्रेमियों का एक संगठन है, लंकेश मित्र मंडल! राजस्थान के जोधपुर में गोधा एवं श्रीमाली समाज वहां के रावण मंदिर में प्रति वर्ष दशानन श्राद्ध कर्म का आयोजन करते हैं और दशहरे पर सूतक मानते हैं। गोधा एवं श्रीमाली समाज का मानना है कि रावण उनके पुरखे थे व उनकी रानी मंदोदरी यहीं की मंडोरकी थीं।
झारखंड की सुषमा ‘आदिम जनजाति’ असुर समुदाय से आती है। सुषमा कहती है, ‘मुझे आश्चर्य होता है कि पढ़ा-लिखा समाज और देश अभी भी हम असुरों को ‘कई सिरों’, ‘बड़े-बड़े दांतो-नाखुनों’ और ‘छल-कपट, जादू जानने’ वाला जैसा ही राक्षस मानता है। लोग मुझमें ‘राक्षस’ ढूंढते हैं, पर उन्हें निराशा हाथ लगती है। बड़ी मुश्किल से वे स्वीकार कर पाते हैं कि मैं भी उन्हीं की तरह एक इंसान हूं। हमारे प्रति यह भेदभाव और शोषण-उत्पीड़न का रवैया बंद होना चाहिए। 
‘महिषासुर की याद’ में जितेंद्र यादव लिखते हैं कि महिषासुर बंग प्रदेश के राजा थे। बंग प्रदेश अर्थात् गंगा-यमुना के दोआब में बसा उपजाऊ मैदान जिसे आज बंगाल, बिहार, उड़ीसा और झारखंड के नाम से जाना जाता है। कृषि आधारित समाज में भूमि का वही महत्व था, जो आज ऊर्जा के प्राकृतिक स्त्रोतों का है। बंग प्रदेश की उपजाऊ जमीनों पर अधिकार के लिए आर्यों ने कई बार हमले किए, परंतु राजा महिषासुर की संगठित सेना से उन्हें पराजित होना पड़ा। ‘बल नहीं तो छल, छल का बल!’ महिषासुर की हत्या छल से एक सुंदर कन्या दुर्गा के द्वारा की गई। दुर्गा नौ दिनों तक महिषासुर के महल में रही और अंततः उसने उनकी हत्या कर दी। जितेंद्र आगे लिखते हैं कि महिषासुर को याद करते हुए हम इतिहास में अपने अस्तित्व की खोज कर रहे हैं। हम जानना चाहते हैं कि आखिर समुद्र मंथन के समय जो लोग शेषनाग की मुंह की तरफ थे, जो हजारों की संख्या में मारे गए, उन्हें विष क्यों दे दिया गया? जो लोग पूंछ पकड़े रहे, वे अमृत के हकदार कैसे हो गए? आजादी के आंदोलन को यदि समुद्र मंथन कहें, तो पिछड़ों के हिस्से में तो आज भी विष ही आया है। अमृत तो आज भी पूंछ पकड़ने वालों ने ही गटक लिया है। देश के सत्ता, संसाधनों और नौकरियों पर सवर्णों का ही कब्जा है। 
‘महिषासुर यादव वंश के राजा थे’ में चंद्रभूषण सिंह यादव ने लिखा है कि अनार्य महापुरुष महिषासुर ने जब इनको परास्त किया, तो आर्य खेमे में मायूसी छा गयी। यह मायूसी कैसी थी? यह मायूसी यज्ञ न कर पाने की थी। यज्ञ में क्या होता था? यज्ञ में लाखों गायों, बैलों, भैंसों, घोड़ों, भेड़ों, बकरों को काटकर आर्य लोग चावल मिश्रित मांस पकाकर मधुपर्क के रुप में खाते थे। सोमरस एवं मैरेय पीते थे। जौ, तिल, घी, आग में जलाते थे। अनार्य पशुपालक एवं कृषक थे, जबकि आर्य मुफ्तखोर थे, जो अनार्यों से यह सबकुछ छीनने के लिए युद्ध करते थे। अनार्यों एवं आर्यों के बीच होने वाले इस युद्ध में अनार्यों को यज्ञ विरोधी घोषित कर राक्षस परिभाषित किया जाता था। आर्य सुरा सुन्दरी के सेवनहार थे। अप्सराएं रखना इनका शौक था। समस्त हिंदू धर्मग्रन्थ जारकर्म को पुण्यकार्य घोषित करते हैं। आर्य उपरोक्त कार्यों को वैदिक सनातन धर्म का आवश्यक अंग बताये, तो अनार्यों ने इनके विरुद्ध महिषासुर, बलि, रावण, हिरण्यकश्यप, आदि के रुप में युद्ध किया, जिन्हें इन आर्यों ने सीधी लड़ाई में परास्त करने के बजाय धोखे एवं छल से मारा, जो इन्होंने खुद द्वारा लिखी किताबों में स्वीकार किया है। महिषासुर से वर्षों लड़ने के बाद जब आर्य राजा इन्द्र परास्त कर पाने के बजाय परास्त होकर भाग खड़ा हुआ, तो आर्यों ने ‘छल’ का सहारा लिया और आर्य कन्या दुर्गा को महिषासुर के पास भेजकर महिषासुर का दिल जीतकर उसे मारने की रणनीति बनाई। इसके बाद ही अश्विनी कुमार पंकज का लेख ‘दुर्गासप्तशी का असुर पाठ’ और समर अनार्य का ‘मुक्ति के महाआख्यान की वापसी’ है। 
दिलीप मंडल के ‘धर्म ग्रंथों के पुनर्पाठ की परंपरा’ शीर्षक लेख में उन्होंने लिखा है कि फुले ने मिथकों के पुनर्पाठ के माध्यम से वर्ण-व्यवस्था के मूलाधार ऋग्वेद के पुरुष सूक्त को अवैज्ञानिक और कोरा गप करार दिया है। ऐसा करते समय उनका लक्ष्य सिर्फ यह स्थापित करना है कि हर मनुष्य उत्पत्ति की दृष्टि से समान है। कोई मनुष्य मुंह से पैदा नहीं हो सकता। क्या फुले ऐसा करते हुए किसी की भावनाओं को ठेस पहुंचा रहे थे? हां, मुमकिन है कि इस लेखन से किसी को ठेस पहुंच रही हो, लेकिन इस वजह से सत्य कहने के ऐतिहासिक कार्यभार को फुले ने मुल्तवी नहीं किया। क्योंकि जैसे ही कोई यह मान लेता है कि ब्राह्मण ब्रह्मा के मुंह से पैदा हुए हैं, इसके साथ ही यह भी मान्यता होती है कि इस देश के बहुजन पैर से पैदा हुए हैं। यह बात ऊंच-नीच को धार्मिक मान्यताओं के साथ स्थापित करती है। इसलिए इसका खंडन जरूरी है, बेशक इससे किसी की धार्मिक भावनाओं को ठेस लगती हो। 
इन पाठों के अलावा संजीव चंदन का ‘महिषासुर और दुर्गा की उपकथाएं’, अरविंद कुमार का ‘महिषासुर दिवस की जन्म कथा’, राजकुमार राकेश का ‘महिषासुर: पुनर्पाठ की जरुरत’, सुरेश पंडित का ‘मिथक का सच’, अरुण कुमार का ‘सौ जगहों पर मनाया जा रहा शहादत दिवस’, विनोद कुमार का ‘आर्य व्याख्या का आदिवासी प्रतिकार’ और अभिषेक यादव का ‘इतिहास को यहां से देखिए’ इस पुस्तिका में पढ़ने को मिलेंगे। अभिषेक यादव लिखते हैं कि अगर आप महिषासुर-दुर्गा प्रकरण पर विचार करेंगे, तो पाएंगे कि यह एक देवासुर संग्राम ही है और संयोग वह देखिए कि ब्राम्हणवादी भी इसे देवासुर संग्राम ही मानते हैं। जो बाहर से आए आर्यों और यहां के मूलनिवासियों के बीच हुआ। संसाधनों पर अपने नियंत्रण को बचाने की खातिर महिषासुर, जो कि यहां के मूल निवासियों के नेता थे, ने आर्यों से भीषण संघर्ष किया। आर्य दूसरों की संपत्ति हड़पने के लिए लड़ रहे थे और महिषासुर अपने लोगों की संपत्ति की रक्षा के लिए। बार-बार पराजित हो रहे आर्यों ने दुर्गा का उपयोग किया। महिषासुर मारे गए। इतिहास लिखना आर्यों के हाथ में था, सो धूर्तता करने वाले देवी और देवता कहे गए, और अपनी जनता की रक्षा करने वाले असुर राक्षस और न जाने क्या-क्या।
पुस्तिका के अंत में ‘जिज्ञासाएं और समाधान’ शीर्षक पाठ है। इसके तहत महिषासुर की हत्या कब हुई, महिषासुर शहादत दिवस किस तारीख को मनाया जाना चाहिए और शहादत दिवस का आयोजन कैसे करें, इसकी चर्चा विस्तार से की गई है। कुल मिलाकर पुस्तिका में दुर्गा-महिषासुर युद्ध और महिषासुर के शहादत की चर्चा है। पुस्तिका में महिषासुर की एक रंगीन स्केच चित्र भी छापी गयी है। आवरण ठीक-ठाक है। हां, कुछ अशुद्धियां अवश्य रह गयी हैं। पुस्तिका का मूल्य है 50 रुपए।

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