COPYRIGHT © Rajiv Mani, Journalist, Patna

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बुधवार, 29 जनवरी 2014

विश्व को आदिवासी अर्थ-दर्शन की जरूरत

GLAIDSAN  DUNGDUNG,  WRITER
न्यूज@ई-मेल
ग्लैडसन डुंगडुंग
 कोलकाता के एक प्रसिद्ध विद्वान अधिवक्ता ने ‘ईकोलाॅजी इकोनोमी’ नामक पुस्तक के लोकार्पण समारोह में देश के तथाकथित सभ्य, शिक्षित और विकसित समाज की एक विचित्र हकीकत को हमारे सामने रखने की हिम्मत जुटाई। समारोह में उन्होंने बताया कि वे अपनी पत्नी के साथ एक बंगले में रहते हैं। यहां उनके लिए तीन आधुनिक चारपहिया वाहन हैं। वे दोनों कामकाजी हैं, इसलिए दो चारपहिया वाहनों की जरूरत तो उन्हें समझ में आती है, लेकिन तीसरी वाहन की उपयोगिता उनकी समझ में नहीं आयी। वे कहते हैं कि उनके पास काफी पैसा है, जिसका वे ‘आॅवर कंज्यूम’ यानी जरूरत से ज्यादा उपभोग कर रहे हैं। उस पैसे से वे एक बेहतर जिन्दगी जीते हुए अन्य जरूरतमंदों की मदद कर सकते हैं। यह विषय गंभीर इसलिए है, क्योंकि देश में ऐसे करोड़ों लोग हैं, जो जरूरत से ज्यादा उपभोग कर रहे हैं। दूसरी ओर करोड़ों गरीब हैं, जो दो वक्त अपना पेट भी नहीं भर सकते हैं। क्या यह हमारे देश की विडंबना नहीं है?
दुनिया को विकासवादी सिद्धांत देनेवाले वैज्ञानिक चाल्र्स डारविन के वंशज प्रसिद्ध समाजशास्त्री फेलिक्स पडेल ने ‘इकोलाॅजी इकोनोमी’ पुस्तक को ऐसे समय में दुनिया के पटल पर रखा, जब विश्व के अधिकांश देश ‘ग्रीड बेस्ड मार्केट इकोनोमी’ (लालच पर आधारित बाजारू अर्थव्यवस्था) को अपनाने की वजह से भारी आर्थिक संकट के दौर से गुजर रहे हैं। यह पुस्तक आदिवासी अर्थदर्शन पर लिखी गई है। इसका मूल सार यह है कि धरती और मानव सभ्यता को बचाने के लिए ‘इकोलाॅजी इकोनोमी’ और ‘मार्केट इकोनोमी’ दोनों में से एक को चुनना ही होगा। कारण कि ये दोनों एक दूसरे के विपरीत हैं। इकोलाॅजी इकोनोमी को अपनाने से लोग अपने साथ धरती को भी बचा लेंगे, लेकिन मार्केट इकोनोमी धरती के साथ मानव सभ्यता का अस्तित्व ही समाप्त कर देगी। वजह है कि इसे बरकरार रखने के लिए प्राकृतिक संसाधनों को पैसे में बदलना होगा और इस प्रक्रिया में इकोलाॅजी बड़े पैमाने पर प्रभावित होगी। धरती गर्म होती जायेगी और बर्फ पिछलेगा। इससे धरती पर कयामत आ सकती हैै। दूसरी तरफ लोगों के लिए सबसे बड़ी चुनौती यह है कि अगर वे इकोलाॅजी इकोनोमी को चुनते हैं, तो विलासिता की जिन्दगी उन्हें हमेशा के लिए छोड़नी होगी। यह बहुसंख्यक आबादी के लिए असंभव नहीं तो मुश्किल जरूर है। 
लेकिन प्रश्न यह भी है कि क्या दुनिया सिर्फ इकोलाॅजी इकोनोमी से चल सकती है? क्या दुनिया में मार्केट इकोनोमी की जरूरत नहीं होगी? क्या इंसान को वर्तमान विकास प्रक्रिया को छोड़कर पाषाण काल की ओर मुड़ जाना होगा? क्या धरती को बचाने के लिए हमारे पास कोई दूसरा रास्ता नहीं है? और क्या हमलोग मूलभूत सुविधाओं से वंचित हो जायेंगे? इन प्रश्नों का जवाब ढ़ूढ़ने के लिए ‘इकोलाॅजी इकोनोमी’ यानी परिस्थितिकी पर आधारित अर्थव्यवस्था को समझाना होगा, क्योंकि इकोलाॅजी में इकोनोमी समाहित है, जिसे दुनिया ने नाकार दिया है। यही वजह है कि दुनिया आर्थिक संकट, ग्लोबल वार्मिंग, ग्लोबल कूलिंग जैसी समस्याओं से घिरती जा रही है। और अब धरती के अस्तित्व पर ही सवाल खड़ा हो गया है। इकोलाॅजी इकोनोमी असल में नीड बेस्ड यानी जरूरत पर आधारित अर्थव्यवस्था है। दुनिया के विद्वान अर्थशास्त्री इसे कम्यूनिटी इकोनोमी (सामुदायिक अर्थव्यवस्था) कहते हैं, जिसे हमेशा से ही नाकारात्मक दृष्टि से देखा गया, क्योंकि इसमें जरूरत के अनुसार अवश्यक चीजों को इक्ट्ठा कर आपस में आदान-प्रदान किया जाता है और सेवा तो बिल्कुल मुफ्त में मिलती है। वहीं मार्केट इकोनोमी में गुड्स और सर्विसेेस दोनों के लिए कीमत चुकानी पड़ती है, जिसमें एक व्यक्ति मुनाफा कमाकर उद्योग खड़ा कर लेता है और इस तरह से आर्थिक असामानता बढ़ती जाती है।
इकोलाॅजी इकोनोमी दुनिया में सिर्फ आदिवासियों की बीच मौजूद है। वे प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग अपने रोजमर्रा की जरूरतों को पूरा करने के लिए करते हैं, जबकि मार्केट इकोनोमी में जीने वाले लोग प्राकृतिक संसाधनों का दोहन मूलतः मुनाफा कमाने के लिए करते हैं, क्योंकि मार्केट इकोनोमी का मूल आधार ही मुनाफा कमाना है। मार्केट इकोनोमी हमें प्रत्येक चीज को मुनाफा के नजरिये से देखना सीखाता है। फलस्वरूप आजकल लोग रिश्तों को भी नफा-नुकशान की तराजू में तौलते हैं। आज महिलाओं के खिलाफ बड़े पैमाने पर हिंसा हो रही है।
इकोलाॅजी इकोनोमी का एक बेहतर नमूना सारंडा जंगल में दिखाई देता है। यहां ‘हो’ और ‘मुंडा’ आदिवासी निवास करते हैं। वे अपना घर-बारी बनाने के लिए सखुआ और अन्य पेड़ों का उपयोग करते हैं, लेकिन पेड़ काटकर मुनाफा नहीं कमाते हैं। यही वजह है कि वहां कई दशक पुराना भी सखुआ का पेड़ दिखाई देगा। दूसरी तरफ टिंबर माफिया और वन विभाग के अधिकारी सखुआ के पेड़ चोरी-छुपे काटवाकर लाखों का वारा-न्यारा कर रहे हैं।
मार्केट इकोनोमी दुनिया में लालच को बढ़ावा दे रही है। इससे जरूरत से ज्यादा उपभोग करने की प्रवृति बढ़ती जा रही है और उपभोग-संस्कृति को बढ़ावा मिल रहा है। अब तो दुनिया में कई जगहों पर मौजूद साम्यवाद पर भी खतरा मंडराता दिख रहा है। ऐसा प्रतित होता है कि दुनिया लालच पर आधारित अर्थव्यवस्था में डूब मरना चाहती है। हमारे देश में उदारीकरण से पहले यहां का बाजार लोगों की जरूरतों के हिसाब से वस्तुओं का उत्पादन करता था। उदारीकरण के बाद वस्तुओं का उत्पादन कर विज्ञापनों के द्वारा लोगों को उसकी जरूरत महसूस करायी जाती है। ऐसे में उपभोक्ता तय नहीं कर पाते हैं कि क्या अमुक वस्तु उनके लिए जरूरी है? इसमें बड़े पैमाने पर बच्चों और महिलाओं की भावनाओं का उपयोग कर उन्हें आॅवर कंज्यूम्पशन के लिए प्रेरित किया जाता है। इससे कंपनियों को बेहिसाब मुनाफा मिलता है। इस तरह से व्यक्ति, परिवार और समुदाय की अर्थव्यवस्था चैपट हो रही है। साथ ही जरूरत से ज्यादा उत्पादन करने के कारण इकोलाॅजी भी प्रभावित हो रही है।
दूसरी ओर जंगलों में निवास करने वाले आदिवासी इकोलाॅजी इकोनोमी के साथ जी रहे हैं। उन्हें विकास और आर्थिक तरक्की के नाम पर लालच आधारित बाजारू अर्थव्यवस्था में ढकेलने की पूरी कोशिश की जा रही है। ओडि़सा स्थित नियमगिरी के आदिवासियों ने कहा कि उन्हें कार की जरूरत ही नहीं है तो वे वेदांता कंपनी का पैसा लेकर क्यों कार खरीदेंगे? इसी तरह पोटका के आदिवासियों ने कहा कि उनके गांवों मंे विद्यालय हैं, स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध हैं, गांव में बिजली है, सड़क भी है और उनकी आर्थिक स्थिति भी अच्छी है। लोग अच्छी तरह से जीवन जी रहे हैं, इसलिए जिंदल और भूषण कंपनी को जमीन नहीं देंगे। लेकिन क्या प्रकृति का सौदा करनेवाले इसे समझ पायेंगे? वे तो उल्टे आदिवासियों को ही बेवकूफ कहने से नहीं चुकते? राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने कहा था कि प्रत्येक व्यक्ति की जरूरतों को पूरा करने के लिए धरती में चीजें पर्याप्त हंै, लेकिन लालच को पूरा करने के लिए यह पर्याप्त नहीं है।
क्या यह विडंबना नहीं है कि उद्योगपति मुकेश अंबानी का छह सदस्यी एक परिवार 4,400 करोड़ से निर्मित 27 मंजिला मकान में रहता है। दूसरी तरफ देश में करोड़ों लोगों के पास रहने को मकान नहीं हैं। उत्तराखंड की त्रासदी ने यह संकेत दे दिया है कि मौजूदा अर्थव्यवस्था में जीने वाले लोग आदिवासियों को ‘बोका’ तो बोल सकते हैं, लेकिन प्रकृति के साथ नहीं लड़ सकते। प्रकृति समय के अनुरूप बड़े-बड़े इकोनोमिक और डेवलाॅपमेंट थ्योरी को बदल देती है। ऐसी स्थिति में दुनिया, मानव सभ्यता और अन्य प्राणियों को बचाने के लिए ईकोलाॅजी ईकोनोमी को अपनाना ही होगा। क्योंकि, आदिवासी अर्थ-दर्शन के अलावा धरती को बचाने का कोई दूसरा रास्ता नहीं है। आवश्यकता अविष्कार की जननी है और आवश्यकताएं अनंत हैं। इसलिए हमें यह तय करना ही होगा कि मानव सभ्यता और प्रकृति दोनों के बीच संतुलन बनाकर रखने के लिए आवश्यकताओं की चादर कितनी दूर तक फैलायी जाये। भगवान बुद्ध ने कहा है कि लालसा ही मनुष्य के दुःख का कारण है, लेकिन क्या हम इसे समझने को तैयार है?
ग्लैडसन डुंगडुंग मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं।

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