COPYRIGHT © Rajiv Mani, Journalist, Patna

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शुक्रवार, 3 जनवरी 2014

तूफान में एक जलता दीपक जमसौत

राजीव मणि

बिहार में मुसहरों की एक बड़ी आबादी है। एक बड़ी आबादी मतलब एक बड़ा वोट बैंक। गरीबी और गंदगी इनकी पहचान है। अशिक्षा इन्हें विरासत में मिलती रही है। सूअर पालना, मजदूरी करना और कचरा से लोहा, प्लास्टिक, कागज आदि चुनना इनकी रोजी-रोटी। बीमारी और उससे होने वाली मौतें इनकी किस्मत में ही जैसे लिखी होती हैं। रोज कमाना, रोज खाना की तर्ज पर गुजरती है इनकी जिन्दगी। अगर किसी दिन काम न किया तो चूहा, मेढ़क, घोंघा या सूअर मारकर भी खाना पड़ता है। महुआ दारू चुआना और उसे बेचना इन लोगों ने कब सीख लिया, इन्हें भी पता नहीं। कुल मिलाकर वह सबकुछ जो इन्हें समाज से अलग बनाता है। और यही कारण है कि इनकी बस्तियां ज्यादातर अलग-थलग जगहों पर ही होती हैं। कोई व्यक्ति इनकी बस्तियों में जाना पसंद नहीं करता।
यह छवि बिहार के सभी मुसहरी के बारे में लोगों के मन में बैठी हुई है। लेकिन, जमसौत मुसहरी की बात ही कुछ और है। यह बिहार की पहली मुसहरी है जो विकास कर सकी है और आज समाज में अपना एक महत्वपूर्ण स्थान रखती है। यूं कह लें कि तूफान के बीच एक जलते दीपक की तरह है जमसौत मुसहरी। वोट बैंक के खेल में इन लोगों को महादलित वर्ग में रखा गया है। सिर्फ नाम का, फायदा कुछ नहीं।
दानापुर से सटे पश्चिम की ओर है जमसौत मुसहरी। करीब 110 घर हैं यहां। करीब 400 की आबादी होगी। वर्ष 2012 में यह मुसहरी अचानक चर्चा में आ गयी। कारण था, इसी मुसहरी का रहने वाला मनोज कुमार ‘कौन बनेगा करोड़पति’ की हाॅट सीट तक जा पहुंचा। जगदेव पथ स्थित एक संस्था है शोषित समाधान केन्द्र। मनोज यहीं रहकर पढ़ाई कर रहा है। इस संस्था की खास बात यह है कि यह संस्था मुसहर लड़कों को निःशुल्क शिक्षा देती है। रहने-खाने की भी यहां व्यवस्था है। सारा कुछ निःशुल्क। इस संस्था में अभी करीब 300 मुसहर बच्चे रहकर पढ़ाई कर रहे हैं। मनोज संस्था की ओर से केबीसी में प्रतिनिधित्व कर रहा था। वहां से वह 25 लाख रुपए जीतकर लौटा।
अन्य मुसहरी से काफी हटकर है यह। इसकी कई वजह हैं। सबसे बड़ा कारण है कि यहां के मुसहर देशी या महुआ दारू का कारोबार नहीं करते। दूसरी बात साफ-सफाई के मामले में यह मुसहरी काफी जागरूक है। यहां जाने पर किसी गांव में होने जैसा भ्रम दिखता है। कहीं से मुसहरी का कोई लक्षण नहीं।
यहीं मुझे बिटेश्वर सौरभ मिलें। इसी मुसहरी में रहते हैं। पत्राचार से एम.ए. कर रहे हैं। इन्होंने बताया कि यहां के 15 बच्चे मैट्रिक पास कर चुके हैं। आठ बच्चे इण्टर और एक बीए है। मैं भी एम.ए. कर रहा हूं। बिटेश्वर सौरभ बिहार शिक्षा परियोजना में सहायक साधन सेवी हैं।
बिटेश्वर बताते हैं कि यहां 110 में से 100 घर इंदिरा आवास योजना के तहत बने हैं। स्वास्थ्य कार्ड 65-70 लोगों के पास है। मनरेगा का यहां बुरा हाल है। सभी को काम नहीं मिल पाता है।
ऐसा नहीं कि जमसौत मुसहरी की किस्मत में सिर्फ खुशियां ही खुशियां हैं। दर्द भी साफ देखने को मिला यहां। कुछ मजबूरी भी। सबसे बड़ी मजबूरी आर्थिक तंगी को लेकर है। वजह साफ है, पैसे के बिना सब सूना। कई घरों के लोग तो यहां दाने-दाने को भी मोहताज दिखे। बीमार पड़ने पर तो भगवान का ही सहारा होता है। बीमारी यहां की सबसे बड़ी समस्या दिखी।
बताया गया कि बीमारी के कारण कई लोग इंदिरा आवास योजना से मिली राशि को खर्च कर लिए। इस कारण मकान आधा-अधूरा पड़ा है। कई घरों की छत ढलाई नहीं हो सकी है। लोग जैसे-तैसे जीवन गुजार रहे हैं। कई वृ़द्धों को वृद्धा पेंशन मिल रहा है। लेकिन, ढेर सारी समस्याओं के बीच मुट्ठी भर पैसा कहां समा जाता है, कुछ समझ में नहीं आता। केनारिक मांझी और उनकी पत्नी सकलबसिया देवी ऐसा ही कहती है।
यहीं रमझडि़या से भी मुलाकात हो गयी। उम्र करीब 70 साल रही होगी। मुझे देखकर कोई सरकार का आदमी समझ बैठी। चिल्ला-चिल्ला कर अपनी जमीन दिखाने लगी। कहने लगी - छह साल पहले यहीं मेरा घर था। पुराना होकर गिर गया। मुखिया घर बनाने को पैसे नहीं देती। एकदम बेकार है वह। मुसहरों की बात कौन सुनेगा। अब आप आए हैं तो मेरा पास करवा ही दीजिए। किसी तरह उसे समझाया गया। भीड़ लग गयी। कुछ पढ़े-लिखे लोगों ने मेरी बात उसे अपनी तरह से समझायी। तब जाकर वह शान्त हुई।
इसी बीच गांव में पूजा की तैयारी होने लगी। पता चला कि आज यहां देवी की पूजा होगी। साल में एक बार की जाती है। खूब तामझाम हुआ। बीच गांव में मिट्टी से बनी देवी को एक तख्ती पर बैठाया गया। औरतें ढोलक लेकर आ गयीं। चारो ओर से पूजा स्थल पर घेरकर बैठ गयीं। देवी गीत गाने लगीं। भक्तिन भी पहुंच गयी। एक बुजुर्ग-सा आदमी वहीं कबूतर की बलि देता है। इसपर भक्तिन ने कहा - देवी प्रसन्न नहीं है। तब बकरे की बलि दी जाती है। देशी दारू भी चढ़ाया जाता है। भक्तिन झूमने लगी। मुझे लगा कि शायद देवी प्रसन्न हो रही है। मैं यहां किसी परंपरा या किसी की भावना को ठेस पहुंचाना नहीं चाहता था। थोड़ा-थोड़ा अंधकार हो चला था। अब जमसौत से पटना लौटने का वक्त था।
मजबूरी थी, लौटना पड़ा। यहां पहुंचकर कुछ बातें साफ थीं। अधिकांश सरकारी योजनाओं का लाभ यहां नहीं पहुंच सका है। जो कुछ इस मुसहरी के लोगों ने किया, अपने बलबूते। यही कारण है कि अन्य मुसहरी के लिए यह एक आदर्श मुसहरी बन चुका है।

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