COPYRIGHT © Rajiv Mani, Journalist, Patna

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बुधवार, 16 अक्तूबर 2013

जमसौत मुसहरी, दानापुर: एक आदर्श मुसहरी

MANOJ  KUMAR,  KBC
राजीव मणि
दानापुर से सटे पश्चिम की ओर एक मुसहरी है। नाम है जमसौत मुसहरी। करीब 110 घर हैं यहां। करीब 400 आबादी। पिछले ही साल यह मुसहरी अचानक चर्चा में आ गयी। कारण था, इसी मुसहरी का रहने वाला मनोज कुमार ‘कौन बनेगा करोड़पति’ की हाॅट सीट तक जा पहुंचा। जगदेव पथ स्थित एक संस्था है शोषित समाधान केन्द्र। मनोज यहीं रहकर पढ़ाई कर रहा है। इस संस्था की खास बात यह है कि यह संस्था मुसहर लड़कों को निःशुल्क शिक्षा देती है। रहने-खाने की भी यहां व्यवस्था है। सारा कुछ निःशुल्क। इस संस्था में अभी करीब 300 मुसहर बच्चे रहकर पढ़ाई कर रहे हैं। मनोज संस्था की ओर से केबीसी में प्रतिनिधित्व कर रहा था। वहां से वह 25 लाख रुपए जीतकर लौटा। 
POONAM  KUMARI
जमसौत मुसहरी के साथ एक और उपलब्धि जुड़ने वाली है। इसी वर्ष आने वाले दिनों में यह फिर चर्चा में होगी। इस बार आठवीं वर्ग में पढ़ने वाली पूनम कुमारी की वजह से। पूनम ‘नारी गूंजन संस्था’ की छात्रा है। लालकोठी छात्रावास में रहकर पढ़ाई कर रही है। यहां मुसहर लड़कियों को निःशुल्क शिक्षा दी जाती है। रहने-खाने की व्यवस्था के साथ। पूनम अपने स्कूल में शिक्षा पाने के साथ कराटे सीख रही है। और इसी माह वह अन्य 11 लड़कियों के साथ संस्था की ओर से इटली जाने वाली है। वहां वह इटली की लड़कियों के साथ कराटे का मुकाबला करेगी।
अन्य मुसहरी से काफी हटकर है यह। इसकी कई वजह हैं। सबसे बड़ा कारण है कि यहां के मुसहर देशी या महुआ दारू का कारोबार नहीं करते। दूसरी बात साफ-सफाई के मामले में यह मुसहरी काफी जागरूक है। यहां जाने पर किसी गांव में होने जैसा भ्रम दिखता है। कहीं से मुसहरी का कोई लक्षण नहीं। 
यहीं मुझे बिटेश्वर सौरभ मिलें। इसी मुसहरी में रहते हैं। पत्राचार से एम.ए. कर रहे हैं। इन्होंने बताया कि यहां के 15 बच्चे मैट्रिक पास कर चुके हैं। आठ बच्चे इण्टर और एक बीए है। मैं भी एम.ए. कर रहा हूं। बिटेश्वर सौरभ बिहार शिक्षा परियोजना में सहायक साधन सेवी हैं। 
बिटेश्वर बताते हैं कि यहां 110 में से 100 घर इंदिरा आवास योजना के तहत बने हैं। स्वास्थ्य कार्ड 65-70 लोगों के पास है। मनरेगा का यहां बुरा हाल है। सभी को काम नहीं मिल पाता है। 
ऐसा नहीं कि जमसौत मुसहरी की किस्मत में सिर्फ खुशियां ही खुशियां हैं। दर्द भी साफ देखने को मिला यहां। कुछ मजबूरी भी। सबसे बड़ी मजबूरी आर्थिक तंगी को लेकर है। वजह साफ है, पैसे के बिना सब सूना। कई घरों के लोग तो यहां दाने-दाने को भी मोहताज दिखे। बीमार पड़ने पर तो भगवान का ही सहारा होता है। बीमारी यहां की सबसे बड़ी समस्या दिखी। 
बताया गया कि बीमारी के कारण कई लोग इंदिरा आवास योजना से मिली राशि को खर्च कर लिए। इस कारण मकान आधा-अधूरा पड़ा है। कई घरों की छत ढलाई नहीं हो सकी है। लोग जैसे-तैसे जीवन गुजार रहे हैं। कई वृ़द्धों को वृद्धा पेंशन मिल रहा है। लेकिन, ढेर सारी समस्याओं के बीच मुट्ठी भर पैसा कहां समा जाता है, कुछ समझ में नहीं आता। केनारिक मांझी और उनकी पत्नी सकलबसिया देवी ऐसा ही कहती है। 
यहीं रमझडि़या से भी मुलाकात हो गयी। उम्र करीब 70 साल रही होगी। मुझे देखकर कोई सरकार का आदमी समझ बैठी। चिल्ला-चिल्ला कर अपनी जमीन दिखाने लगी। कहने लगी - छह साल पहले यहीं मेरा घर था। पुराना होकर गिर गया। मुखिया घर बनाने को पैसे नहीं देती। एकदम बेकार है वह। मुसहरों की बात कौन सुनेगा। अब आप आए हैं तो मेरा पास करवा ही दीजिए। किसी तरह उसे समझाया गया। भीड़ लग गयी। कुछ पढ़े-लिखे लोगों ने मेरी बात उसे अपनी तरह से समझायी। तब जाकर वह शान्त हुई। 
इसी बीच गांव में पूजा की तैयारी होने लगी। पता चला कि आज यहां देवी की पूजा होगी। साल में एक बार की जाती है। खूब तामझाम हुआ। बीच गांव में मिट्टी से बनी देवी को एक तख्ती पर बैठाया गया। औरतें ढोलक लेकर आ गयीं। चारो ओर से पूजा स्थल पर घेरकर बैठ गयीं। देवी गीत गाने लगीं। भक्तिन भी पहुंच गयी। एक बुजुर्ग-सा आदमी वहीं कबूतर की बलि देता है। इसपर भक्तिन ने कहा - देवी प्रसन्न नहीं है। तब बकरे की बलि दी जाती है। देशी दारू भी चढ़ाया जाता है। भक्तिन झूमने लगी। मुझे लगा कि शायद देवी प्रसन्न हो रही है। मैं यहां किसी परंपरा या किसी की भावना को ठेस पहुंचाना नहीं चाहता था। थोड़ा-थोड़ा अंधकार हो चला था। अब जमसौत से पटना लौटने का वक्त था। 
लौटते-लौटते कई सवाल यूं ही रह गये। मन तो नहीं कर रहा था आने को, पर मजबूरी थी। मुझे अपना गांव याद आ रहा था। महादलित समुदाय के इन मुसहरों ने जैसे मुझे सम्मोहित कर दिया था। फिर मिलने की बात कह मैं वहां से विदा हुआ। 

एलसीटी घाट मुसहरी: शाम अस्त तो मुसहर मस्त

पटना के राजापुल के पास ही एक मुहल्ला है। नाम है एलसीटी घाट। यहीं यह मुसहरी है। एलसीटी घाट मुसहरी में करीब 36 घर हैं। इनमें 60 परिवार रहते हैं। कचरा से लोहा, प्लास्टिक, कागज आदि चुनना यहां के लोगों का मुख्य पेशा है। ये इन्हें कबाड़ी के यहां बेचते हैं। और इनसे मिले पैसों से ही इनका गुजारा चलता है। कुछ लोग अब मजदूरी भी करने लगे हैं। दोनों वक्त अगर इनके घर चुल्हा जल जाए तो समझा जा सकता है कि मुसहर ने आज खाने भर का कमा लिया है। बात साफ है। और कुछ लिखने लायक नहीं। 
इस मुसहरी की एक खास पहचान है। चारो ओर गंदगी और देशी दारू की महक। यहां मैं बदबूं शब्द का प्रयोग नहीं करना चाहता। कारण कि 14-15 वर्षों से मैं इन्हें समझने के प्रयास में ऐसी जगहों पर जाता रहा हूं। अब तो आदत सी हो गयी है। लेकिन, एक चीज जो अच्छी नहीं लगती। यहां 6-7 दारू की दुकानें हैं। दिन-रात लोगों की भीड़ लगी रहती है। दो कबाड़ की दुकानें भी हैं। हल्की हवा से भी कागज-प्लास्टिक उड़कर आपके मुंह पर आ जाए तो कोई नयी बात नहीं। 
कुछ लोगों ने यहां सूअर भी पाल रखा है। इन्हें खाने के लिए। यहां के मुसहरों का चूहा या मेढक खाना कोई नयी बात नहीं है। जब खाने को लाले पड़ जाते हैं, तो ये ऐसा करते हैं। यहां जाने से पहले काफी कुछ की आदत डालनी होगी। 
बीमारी और उससे होने वाली मौतें तो जैसे इस मुसहरी की पहचान बन गयी है। पिछले 14-15 वर्षों में मैं अखबार के लिए यहां होने वाली सैकड़ों मौत की खबर लिख चुका हूं। अब तो कइयों के नाम तक याद नहीं। किस-किस के नाम याद रख पाता! मुझमें इतनी क्षमता नहीं। हां, अभी रामजी मांझी, राजेन्द्र मांझी, शंकर मांझी और कुछ अन्य लोग बीमार हैं। बताया गया कि इस साल पांच लोग मर चुके हैं। इनमें एक बच्चा भी था।
पूरी मुसहरी में दो चापाकल हैं। बीपीएल में कुछ ही लोगों का नाम जुड़ पाया है। आंगनबाड़ी केन्द्र भी है, लेकिन बच्चों के मन पर है कि वे पढ़ने जायें या नहीं। वैसे भी यहां पढ़ने-लिखने की बात कोई नहीं करता। सो मैं आपको सावधान करता हूं। 
यह मुसहरी उत्तरी मैनपुरा पंचायत के अंतर्गत आती है। पहले यहां के मुखिया थे रंजीत सिंह। इनकी हत्या के बाद इनके ही छोटे भाई पिछले चुनाव में मुखिया चुने गये। मुसहरों का कहना है कि रंजीत सिंह ने मुसहरों के लिए काफी काम किया था। अब उनके भाई सुधीर मुखिया तो यहां झांकने तक नहीं आते। मुसहरों को देखकर दूर से ही भगा देते हैं। 

लालू नगर मुसहरी: नाम बड़े और दर्शन छोटे

राजधानी पटना का कुर्जी-दीघा क्षेत्र पूरे बिहार में कई अच्छे मिशनरी स्कूलों के लिए जाना जाता है। यहां बालूपर रोड है। इसके पास ही है लालू नगर मुसहरी। कभी पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद ने इस मुसहरी को बसाया था। यहां 16 घर बनवाये गये थे। सभी एक कमरे का। सभी घरों को अलग-अलग मुसहरों के नाम पर एलाॅट किया गया था। लालू प्रसाद खुद यहां आये थे मुसहरों को घर देने। 
आज यहां के कई घर सिर्फ नाम के घर रह गये हैं। कई टूट चुके हैं। कई रहने लायक नहीं रह गये। किसी तरह 15 परिवार यहां अब भी रह रहे हैं। इन मुसहरों का मुख्य पेशा है कचरा से कागज, प्लास्टिक, लोहा आदि चुनना। अब कुछ खेतों में भी काम करने लगे हैं। हां, यहां शराब बनायी या बेची नहीं जाती। लेकिन, पीने वाले कई हैं। दूसरी मुसहरी में इनका अड्डा लगता है। कई मुसहर कर्ज के बोझ तले दबे हैं। कोई ज्यादा कर्ज नहीं है। 4-5 हजार का ही है। लेकिन इन मुसहरों के लिए यह 4-5 हजार किसी 4-5 लाख रुपए जैसा है। 
पंचायत क्षेत्र में है यह मुसहरी। कई मुखिया आए-गये। काम को देखा जाए तो यहां पता ही नहीं चलता। एक कमरे का एक मकान यहां बनता दिख रहा है। पता चला कि इंदिरा आवास योजना के तहत बनाया जा रहा है। छोटन मांझी का मकान है यह। मुखिया का काफी नाम लेते हैं। चुनाव में काफी मदद किया था। 
अगर छोटन मांझी की बात छोड़ दी जाए तो हर कोई मुखिया को काफी भला-बुरा कहता है। सबको वृद्धा पेंशन नहीं। छोटन बीए पास है और एक फैक्ट्री में काम करता है। इसकी बेटियां सरकारी स्कूल में पढ़ रही हैं। भाई बी.एससी. का छात्र है। बाकी सभी लोग अंगूठा छाप। पढ़ाई से दूर-दूर तक रिश्ता नहीं। रोज कमाना, रोज खाना की तर्ज पर गुजर रही है जिन्दगी।

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