COPYRIGHT © Rajiv Mani, Journalist, Patna

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गुरुवार, 3 अक्तूबर 2013

मुसहर और महुआ दारू

न्यूज@ई-मेल
पश्चिम पटना में स्थित है दीघा मुसहरी। इसे शबरी कॉलोनी के नाम से भी जाना जाता है। यहां घर-घर में महुआ दारू बनाया जाता है। यहां अब यह धंधा कुटीर उद्योग का रूप ले चुका है। उत्पाद विभाग द्वारा लाख प्रयास किये जाने के बाद भी यह धंधा बंद नहीं हो पा रहा है। इसे मुसहरों ने आजीविका का मुख्य साधन बना लिया है। आरंभ में दीघा मुसहरी के ये महादलित खेतिहर मजदूर थे। दूसरे किसानों के खेत में ये मजदूरी किया करते थे। बाद में किसानों की खेती योग्य जमीन को बिहार राज्य आवास बोर्ड ने अधिग्रहण कर लिया। इस तरह खेत खत्म, तो मजदूरी भी खत्म। अब दीघा मुसहरी की महिलाएं और बच्चे कचरा से रद्दी कागज, प्लास्टिक, लोहा आदि चुनकर बेचते हैं। पुरुष दीघा आम के बगीचा में लकड़ी और ठेका पर काम करने लगे। किसी तरह से इन परिवारों का जीविका चलाने लगा। कुछ लोग पैसे होने पर महुआ और गुड़ खरीदकर महुआ दारू बनाने लगे। दारू का धंधा चल निकला। 
यहां आसानी से बाजार में महुआ और गुड़ मिल जाता है। दो किलो महुआ और एक किलो गुड़ की कीमत 170 रुपए है। इसी तरह 40 रुपए में पांच किलो लकड़ी मिलती है। खाना लकड़ी पर बने या न बने, मगर महुआ दारू लकड़ी पर ही बनाया जाता है। महुआ और गुड़ को पानी में डाल दिया जाता है। फिर मिट्टी के पात्र में रखकर पुलिस से बचाने के लिए जमीन में दबा दिया जाता है। करीब 10 दिनों तक महुआ और गुड़ को सड़ने दिया जाता है। उसके बाद निकालकर आग के ऊपर स्पेशल पात्र में डाल दिया जाता है। फिर साइफन पद्धति से भाप बनकर नली के सहारे नीचे रखे पात्र में दारू टपकना शुरू हो जाता है। एक-डेढ़ घंटे के अंदर महुआ दारू बन जाता है। बनने के बाद दारू गरम रहता है। जितना दारू उतना ही पानी डालकर दारू पीने लायक बनाया जाता है। एक बोतल दारू की कीमत 40 रुपए है। इस तरह लागत कीमत से दोगुना दाम मुसहरों को मिल जाता है। 
हालांकि जितना पुराना इतिहास मुसहरों का महुआ दारू के साथ है, उतना ही पुराना इससे होने वाली मौत का भी। अभी-अभी उर्मिला देवी नामक महिला की मौत यहां हो गयी। उसे सिरोसिस ऑफ लीवर हो गया था। इससे पहले महुआ दारू पीकर यक्ष्मा बीमारी की चपेट में आकर अनगिनत मुसहरों की मौत हो चुकी है। आज महुआ दारू का असर कुछ इस तरह है कि यहां महिलाएं व बड़े बच्चे भी इसे पीने लगे हैं। साथ ही आसपास के लोग भी यहां नियमित आने लगे हैं। सुबह-शाम का नजारा किसी भट्ठी सी होती है। पुलिस का इसी रास्ते आना-जाना होता है, मगर इन्हें इससे कोई फर्क नहीं मिलता। हां, नजराना समय पर मिल जाना चाहिए।

अनुसूचित जनजाति बनाम पिछड़ी जाति

झारखंड के पहाडि़या जाति को बिहार में खैरा जाति बनाकर आरक्षण सुविधा से वंचित कर दिया गया है। इस कारण बांका के 10 हजार पहाडि़या (खैरा) जाति के लोग आरक्षण से मिलने वाली सुविधाओं से अलग हो गये हैं। बिहार से झारखंड का बंटवारा 2000 को हुआ था। जो पहाडि़या जाति के लोग बंटवारे में झारखंड में रह गये, उनको अनुसूचित जनजाति का दर्जा प्राप्त हो गया। बिहार में रह गये लोगों को नौकरशाहों ने खैरा जाति बनाकर पिछड़ी जाति के अंतर्गत रख दिया। एक जन जागरण गीत है - काहे देशवा में ऐसन कानून बबूआ...। अब बांका के पहाडि़या (खैरा) जाति के लोगों को अनुसूचित जनजाति का दर्जा दिलवाने के लिए आंदोलन होने लगा है। अब देखना है कि सरकार क्या कदम उठाती है। 

महाबोधि मंदिर और गरीबों का दर्द

गया के महाबोधि मंदिर में आतंकी हमला के बाद अब वहां का नजारा काफी बदल सा गया है। मंदिर परिसर को किलानुमा दीवार से घेर दिया गया है। अब उस दीवार के बीच में दो जगहों पर गेट लगाने की बात हो रही है। साथ ही गेट पर द्वारपाल भी रखे जायेंगे। नियमित समय पर गेट को खोला और बंद किया जाएगा। इस दिषा में कार्य प्रगति पर है। सुरक्षा को देखते हुए यह जरूरी भी था। लोगों का कहना है कि सुरक्षा की पुख्ता व्यवस्था तो पहले से ही करनी चाहिए थी। 
दूसरा पक्ष यह है कि मंदिर के आसपास छोटी-छोटी दुकानें लगाने वाले सैकड़ों लोग बेरोजगार हो गये हैं। इन्हें यहां से हटा दिया गया है। रूक की बत्ती, पीपल के पत्ते, कमल के फूल, सिक्का, सजावटी सामान, माला, अंगूठी, तस्वीर तथा अन्य छोटी-छोटी चीजें बेचने वाले लोग अब दो वक्त की रोटी के लिए भी सोचने को मजबूर हैं। क्या सरकार इनके बारे में भी कुछ विचार कर रही है ?

छलावा है भूमिहीनों को भूमि देने का आंकड़ा

आवासीय भूमिहीनों को सरकारी भूमि देने का आंकड़ा छलावा दिख रहा है। आज भी काफी संख्या में आवासीय भूमिहीन बोधगया में हैं। वहीं वनभूमि पर रहने वालों को वनाधिकार कानून 2006 के तहत लाभान्वित करने के बदले वन विभाग ने यहां रहने वालों पर मुकदमा कर दिया है। ज्ञात हो कि वनाधिकार कानून 2006 के तहत 13 दिसंबर, 2005 के पहले वनभूमि पर रहने वाले अनुसूचित जनजाति और तीन पुश्त से रहने वाले गैर अनुसूचित जनजाति के लोगों को वनभूमि का स्वामीत्व प्रदान करना है।
बिहार के गया जिले के बाराचट्टी प्रखंड के गोबरियां नामक गांव के 42, बुमेर (टोला आमात्तरी) गांव के 40 और गुलरबंद गांव के 13 व्यक्तियों की जमीन पर कब्जा है। परन्तु, सरकारी कर्मचारियों की लापरवाही के कारण जमीन का पर्चा निर्गत नहीं किया जा सका है। टोला आमात्तरी के 3 लोगों के पास जमीनी कागजात है, परन्तु दबंग व्यक्तियों का कब्जा है। मखदुमपुर में 7 व्यक्तियों के पास पर्चा है, परन्तु जमीन पर कब्जा नहीं। गुलरबंद जमीन पर कब्जा और पर्चा भी है, परन्तु 30 व्यक्तियों का दाखिल खारिज नहीं किया गया है। तिलैया काला में 20 व्यक्ति आवासहीन हैं। 15 लोगों के पास आवास है और उनको वासगीत पर्चा निर्गत नहीं किया गया है। सेवाई (टोला जहजवा) में 10 व्यक्ति आवासहीन हैं। 8 लोगों के पास आवास है, परन्तु वासगीत पर्चा नहीं दिया गया है। गोसाई पेसरा में 6 लोगों के आवास हैं, परन्तु वासगीत पर्चा निर्गत नहीं किया गया है। यहां के 10 लोगों के पास जमीनी कागजात है, परन्तु जमीन पर किसी और व्यक्ति का कब्जा है। बलचर में 9, चांदो में 12, करमा में 25 और रेवदा में 9 व्यक्ति आवासहीन हैं। कोहवरी के लोग वनभूमि पर रहते हैं। वनाधिकार कानून 2006 के तहत वनभूमि पर रहने वाले को मालिकाना हक देने का प्रावधान है। मगर मालिकाना हक देने के बदले वन विभाग ने 29 व्यक्तियों पर मुकदमा कर दिया है। 
इसी तरह मोहनपुर प्रखंड में सुगवां नामक गांव में 25, चोरनीमा में 15, सुखदेवचक में 31 और मुषरसब्दा में 20 लोगों का कब्जा जमीन पर है। परन्तु सरकार के द्वारा पर्चा निर्गत नहीं किया जा रहा है। वहीं सुखदेवचक के 19, वगुला के 10 और मुशरसब्दा के 50 व्यक्ति आवासहीन हैं। बताते चलें कि भूमि सुधार आयोग के पूर्व अध्यक्ष डी. बंधोपाध्याय ने अपनी अनुशंषा में सरकार को वासगीत पर्चा निर्गत करने के लिए शिविर लगाने को कहा था। इसी तरह आवासहीनों को 10 डिसमिल जमीन देने की बात कही गयी थी। इस समय 10 डिसमिल के बदले 3 डिसमिल जमीन आवासहीनों को दी जा रही है। 
पिछले दिनों पुअरेस्ट एरिया सिविल सोसायटी (पैक्स) के सहयोग से प्रगति ग्रामीण विकास समिति के बैनर तले गांव विकास यात्रा निकाली गयी। ये आंकड़े बाराचट्टी, मोहनपुर और बोधगया के प्रखंडों में यात्रा के दरम्यान संस्था को मिलें। बोधगया प्रखंड के 18 गांवों में गांव विकास यात्रा के दरम्यान 866 आवासहीनों की पहचान की गयी। 453 वासगीत पर्चा से महरूम हैं। साथ ही 242 ऐसे लोग हैं, जिनको सरकार ने पर्चा तो दे रखी है, लेकिन गांव के दबंगों का कब्जा है। 

उम्र का घनचक्कर 

गया जिले के बोधगया प्रखंड में मोचारिम पंचायत है। यहीं मोचारिम महादलित टोले में जुगेश्वर मांझी रहते हैं। खास बात यह है कि ये अपनी उम्र के चक्कर में फंस गये हैं। सुनकर यह अजीब भी लगेगा, लेकिन सच है। जुगेश्वर मांझी बताते हैं कि निर्वाचन आयोग के द्वारा जारी पहचान पत्र में बालेश्वर मांझी के पुत्र जुगेश्वर मांझी की उम्र 1.1.1995 को 35 साल दर्शाया गया है। पहचान पत्र की संख्या बीआर/43/253/204202 है। वहीं राज्य सरकार द्वारा जारी मनरेगा कार्ड में 55 साल लिखा गया है। खुद जुगेश्वर मांझी का कहना है कि वे 70 साल के हो गये हैं। उम्र के घनचक्कर में जुगेश्वर मांझी की तरह कई लोग उलझकर रह गए हैं। इस घनचक्कर में इनका कई काम फंसकर रह गया है। कारण कि सरकारी बाबू सही उम्र मानने को तैयार ही नहीं।

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