साल भर के अंदर टीबी बीमारी से दर्जनों की मौत
राजीव मणि
पटना : दीघा में एक मुहल्ला है। नाम है शबरी काॅलोनी। यहां मुसहरों की एक बड़ी बस्ती है। अबतक यहां के कई मुसहर टीबी बीमारी से मर चुके हैं। इनमें से ही एक है बुद्ध मांझी। बुद्ध पलम्बर मिस्त्री का कार्य करता था। अच्छी-खासी कमाई होती थी उसकी। पिछले कुछ सालों से बुद्ध टीबी की बीमारी से परेशान था। अच्छी कमाई के बावजूद वह पौष्टिक आहार नहीं लेता था। नियमित रूप से टीबी की दवा भी नहीं लेता था। हां, दारू उसकी कमजोरी बन गई थी। इस कारण टीबी के जीवाणु फैलते चले गये और एक दिन ऐसा भी आया कि उसे खून की उल्टी होने लगी। फिर क्या था, डाॅक्टरों ने जवाब दे दिया था और अंततः उसकी मौत हो गयी।
केवल बुद्ध मांझी ही क्यों, उसके जैसे कई थे, जो अब मर चुके हैं। मुसहरी के लोगों ने तो कइयों के नाम तक भुला दिए। कुछ याद हैं भी तो बस चर्चा या मरणदेवा पूजा तक। जी हां, मरणदेवा पूजा! बताया जाता है कि साल भर के अंदर सिर्फ इस मुसहरी में दर्जनों काल के गाल में समा गये।
मुसहरों का मानना है कि मृत्यु के बाद मनुष्य मरणदेवा बन जाता है। अगर उसकी पूजा नहीं की गई, तो वह काफी आफत मचाता है। पहले घर के लोगों को अपनी चंगुल में लेता है, फिर बाहर वालों को। मौत का सिलसिला शुरू हो जाता है। एक-एक कर लाशों की लाइन लग जाती है।
कुछ ऐसे ही कारणों से बचने को दुखनी देवी ने नेऊरा मुसहरी से ‘भक्तिनी’ को बुलाया है। भक्तिनी बैठकी लगा चुकी है। अपने बाल खोलकर भक्तिनी देवी-देवताओं व मरणदेवा के नाम से भूत खेलाने लगती है। भूत खेलावन कर देवी-देवताओं को खुश कर लिया जाता है। परिवार के सभी मरणदेवा या मनुष्यदेवा को स्मरण कर खुश किया जाता है। इनमें अभी-अभी मृत्यु को प्राप्त बुद्ध मांझी भी है। मरणदेवा को खेलाकर घर के अंदर एक कोने में स्थान दे दिया गया। अब हर साल मरणदेवा या मनुष्यदेवा के रूप में इनकी पूजा होगी। बताया गया कि अगर ऐसा नहीं किया जाता, तो मुसहरी के अंदर किसी की मौत होने पर बुद्ध मांझी को ही जिम्मेवार ठहराया जाता। इसे लेकर दुखनी देवी को प्रताडि़त किया जाता। अब दुखनी देवी सामाजिक प्रताड़ना से बची रह सकेगी।
कुछ माह पहले बुद्ध मांझी और दुखनी देवी के नौजवान बेटा प्रमोद की मौत हो गयी थी। वह किडनी का मरीज था। गरीबी और लाचारी के कारण बेहतर ढंग से इलाज नहीं हो सका। अभी दुखनी देवी भी बीमार है। उसे भी टीबी की बीमारी है।
विडम्बना यह है कि इस बस्ती में सरकारी एवं गैर सरकारी संस्थाओं द्वारा समय-समय पर कार्य किया जाता रहा है। इसके बावजूद अंधविश्वास खत्म होने का नाम नहीं ले रहा है। गंदगी, बीमारी और नशा यहां के लोगों की पहचान और किस्मत, दोनों, बन चुकी है। यह भी सच है कि अभी तक यहां ईमानदार प्रयास नहीं किये गये हैं, अगर किये जाते तो कहानी कुछ और ही लिखी जाती। और यह मुसहरी तो एक उदाहरण भर है, सूबे के सभी मुसहरी की हालत करीब ऐसी ही है। बीमारी और फिर हर दिन डराती मौत, किसी मरणदेवा की तरह! विडम्बना यह भी है कि सूबे के मुख्यमंत्री इसी विरादरी से आते हैं। इसके बावजूद इनकी जिन्दगी जस की तस चल रही है। अभी तक इन महादलितों के लिए कुछ नहीं किया गया। इसे लेकर इनमें आक्रोश भी दिखता है।
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