Barki Hembrem with mother in law |
सखुआ के पत्तों से पत्तल बनाकर चलता है गुजारा
राजीव मणि
बांका : चांदन प्रखंड में दक्षिण कसवा बसिला ग्राम पंचायत है। दऊवा पहाड़ और घनघोर जंगल यहां की पहचान है। इसी पहाड़ और जंगल के बीच एक छोटा-सा गांव है, नाम है पहाड़पुर। संथाल आदिवासियों का गांव। इस गांव में पहुंचने के लिए कोई रास्ता नहीं है। जंगल और पहाड़ किनारे-किनारे होकर ही आया-जाया जा सकता है। गांव के लोगों का मुख्य पेशा है जंगल से सखुआ के पेड़ से पत्तों को तोड़ना और उससे पत्तल बनाकर बाजार में बेचना। दिनभर कड़ी परिश्रम के बाद कुछ रुपए ही मिल पाते हैं। और वह भी जान जोखिम में डालकर!
Leaf for Pattal |
दरअसल जंगल में जानवर और आदमी दोनों से बराबर खतरा बना रहता है। जहां एक ओर जंगली जानवर का शिकार गांव के कई लोग हो चुके हैं, वहीं नक्सलियों और माओवादियों से भी आदिवासियों को खतरा बना रहता है। इन सबके बावजूद पेट की खातिर जान हथेली पर रखकर जंगल में रहना और पत्तल का करोबार करना पड़ता है।
Barki Hembrem |
पहाड़पुर गांव के वार्ड नंबर 5 की वार्ड सदस्य है बड़की हेम्ब्रम। बड़की हेम्ब्रम सामाजिक कार्यों में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेती रही हैं। वह बताती है कि वार्ड सदस्य बन जाने के बाद भी सुबह उठकर क्रियाक्रम करने के बाद बासी भात खाकर 10 किलोमीटर का रास्ता तय कर दऊवा पहाड़ पहंुचती है। उसके बाद पहाड़ पर चढ़ जंगल में जाती है। यहां सखुआ के पेड़ से पत्ते तोड़ती है। उसे घर लाकर नीम के तिनके से जोड़कर पत्तल बनाती है। और फिर बाजार बेचने को ले जाती है। इस पूरी प्रक्रिया में तीन से चार दिन लग जाते हैं। 20 पत्तलों को बांधकर एक छोटा पैकेट बनाया जाता है। छोटे-छोटे 80 पैकेटों से एक बंडल। बाजार में 20 पत्तलों की कीमत इन्हें दो से तीन रुपए ही मिलती है। यह इनके श्रम से बहुत ही कम है।
बड़की हेम्ब्रम कहती है कि मेरे पति मनरेगा के तहत सड़क के निर्माण में काम कर चुके हैं, मगर पैसा दक्षिण कसवा बसिला ग्राम पंचायत के मुखिया सुदामा बेसरा और रोजगार सेवक प्रमोद यादव मिलकर हड़प लिए। गांव के 14 अन्य लोगों का पैसा भी नहीं मिला। वह बताती है कि विकास के नाम पर गांव के लागों को कोई सुविधा नहीं मिली है। किसी योजना का कोई लाभ यहां नहीं मिल पाता है। मनरेगा के नाम पर तो जैसे लूट ही मची है। गांव के संथाल आदिवासी बस भगवान के भरोसे जी रहे हैं।
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