
मैं और समय
काश ! समय रूक जातापलकों में आकर छिप जाता
बड़े-बड़े वृक्ष होते
ये अम्बर को छूते
इनकी शीतल छाया होती
प्रभु की कुछ माया होती
मैं और सिर्फ समय होता
मैं हंसता, वह रोता
काश ! कुछ ऐसा होता
समय मेरे आंचल में सोता
मेरी धारा में सब बहते
मैं कहता वो करते
पतझड़ में भी फूल खिलते
कभी किसी के आंसू न गिरते
बंद पलकों में समय होता
मैं चलता, वह सोता
काश ! कुछ ऐसा होता
परन्तु न हुआ न होगा वैसा
यह नहीं कुछ ऐसा-वैसा
समय जब तेज चलता है
नहीं किसी की कुछ सुनता है।
तुम्हारी प्रतीक्षा में
तुम्हारा हर प्रेमपत्र
पत्रिका का एक संग्रहणीय अंक की तरह है
यह सोचकर
मैं इसे दिलरूपी डायरी में
नोट कर लेता था
कभी मिलो
तो मैं तुम्हें बताऊं
कि इन प्रेमपत्रों का विशेषांक
कैसे मेरे दिल के छापेखाना से
छपकर तैयार रखा है
तुम्हारी प्रतीक्षा में
तुम्हारे ही हाथों विमोचन के लिए।
शून्य
जन्म से पहले
हम शून्य में थे
जन्म लिए शून्य में आए
लड़कपन गया
जवानी आई
पर शून्य नहीं गया
कुछ देखा, कुछ सुना
पर शून्य में ही रहकर
शून्य को समझ नहीं पाए
शून्य में ही पढ़े
काम किये
कठिनाइयों का सामना किये
और कठिनाइयों से लड़ते
हम बूढ़े हो गए
शून्य में मरकर
हम शून्य को चले गये
हमारी यात्रा शून्य से चलकर
शून्य को समाप्त हो गई
यह कोई मामूली शून्य नहीं
यह है एक विशाल शून्य
और इस शून्य की आत्मा है
हमारे प्रभु, हमारे ईश्वर।
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