COPYRIGHT © Rajiv Mani, Journalist, Patna

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शनिवार, 28 सितंबर 2013

बापू ने कहा था

भाग एक
नव भारत के निर्माण में महात्मा गांधी के योगदान को उनके भाषण से समझा जा सकता है। अहिंसा के बल पर उन्होंने जो आन्दोलन चलाया, आगे चलकर उसने पूरे विश्व को एक नई दिशा दी। उन्होंने न सिर्फ अंग्रेजों के खिलाफ अपना आन्दोलन चलाया, बल्कि एक स्वस्थ भारत के निर्माण में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। दरअसल बापू भारत में पैठ जमा चुके ऊंच-नीच, छुआछूत और जाति, वर्गों में बंट रहे समाज को लेकर भी काफी चिंतित थे। उनके भाषणों से यह साफ दिखता है। सूचना एवं जनसम्पर्क विभाग, उत्तर प्रदेश ने एक किताब प्रकाशित किया है। इस पुस्तक का नाम है ‘उत्तर प्रदेश में गांधी जी’। इसके लेखक हैं श्रीरामनाथ ‘सुमन’। बापू के भाषणों के अंश यहां इसी पुस्तक से दिए जा रहे हैं। आशा है, पाठक इससे लाभान्वित हो सकेंगे। 
1934 में भारत के विभिन्न प्रान्तों में अस्पृश्यता निवारण कार्य के लिए दौरा करने के बाद गांधीजी उत्तर प्रदेश, तब संयुक्त प्रान्त, में आये और 22 जुलाई से 2 अगस्त तक उन्होंने प्रमुख स्थानों और नगरों का दौरा किया। बापू की यात्रा के कुछ अंश यहां दिये जा रहे हैं। 
22 जुलाई को कानपुर नगरपालिका और जिला बोर्ड ने एक ही जगह अपने-अपने मानपत्र गांधीजी को दिये। ये मानपत्र भी डाॅ. जवाहरलाल रोहतगी के बंगले पर, जहां गांधीजी ठहराये गये थे, दिये गये। नगरपालिका की विवरणी से ज्ञात हुआ कि उन्होंने प्रशंसनीय हरिजन सेवा की है। 1932 के पूर्व ही उसने पन्द्रह हजार रुपए खर्च करके हरिजन कर्मचारियों के लिए कुछ मकान बनवा दिये थे। बा. ब्रजेन्द्रस्वरूप के अध्यक्ष चुने जाने के बाद से इस दिशा में और भी प्रगति हुई। एक साल के अंदर ही नगरपालिका ने 48,000 रुपए मूल्य के 188 अच्छे हवादार और साफ-सुथरे मकानों की व्यवस्था अपने हरिजन कर्मचारियों के लिए कर दी। 
कानपुर की जिला परिषद् ने यह निश्चय किया कि अन्य जाति के विद्यार्थियों की तरह हरिजन विद्यार्थी भी परिषद् के स्कूलों में भरती किये जाए और जो अध्यापक इस निश्चय के विरूद्ध जाएं, उन्हें अर्थदंड दिया जाए। प्राइमरी पाठशालाओं में हरिजन लड़कों से कोई फीस नहीं ली जाती। लड़कियों को सूत कातना सिखाया जाता है। 
जिला परिषद् की कन्याशालाओं में सूत कताई सिखाने की चर्चा करते हुए गांधीजी ने कहा - ‘‘खादी में मेरा आज भी वैसा ही अटल विश्वास है। हरिजनों से तो खादी का बहुत अधिक संबंध है। सैकड़ों-हजारों हरिजन स्त्रियों और जुलाहों की इससे सेवा हो रही है। कातने या बुनने का काम अगर हम इन्हें न देते, तो ये भूखों मर जाते, क्योंकि अन्य धंधों के रास्ते तो उनके लिए बिल्कुल ही बंद हैं। इसी तरह खादी से कितने ही मुसलमानों का भी काम चल रहा है। ...हजारों अधभूखे भारतीयों की कुछ न कुछ सहायता तो चरखा कर ही रहा है। दरिद्रनारायण की सेवा बिना खादी के हो ही नहीं सकती। ...’’
22 जुलाई को सार्वजनिक सभा हुई। इसमें गांधीजी को नागरिकों की ओर से मानपत्र और ग्यारह हजार की थैली भेंट की गयी। गांधीजी ने इस अवसर पर भाषण करते हुए कहा - ‘‘आपने मुझे जो यह 11,000 रुपए की थैली दी है, उसके लिए मैं आपका आभारी हूं। ...कानपुर में कुछ लोग ऐसे हैं, जो मेरी हरिजन प्रवृति को पाप कार्य समझते हैं। इनकी ओर से जनता में बहुत से पर्चे बांटे गये हैं जो सरासर असत्य से भरे हुए हैं। बड़े दुख की बात है कि सनातन धर्म के नाम पर मिथ्या बातों का प्रचार किया जा रहा है। मैं सनातनियों से प्रार्थना करता हूं कि वे मिथ्या प्रचार की इस हीन प्रवृति को रोकें।’’ 
‘‘आपने यदि इस हरिजन प्रवृति का महत्व समझा होता, तो मुझे हजारों की जगह लाखों रुपए दिये होते। परन्तु धन तो अस्पृश्यता का अंत नहीं कर सकता। वह तो तभी हो सकता है, जब सवर्ण हिन्दुओं के हृदय पिघल जाए। दाताओं ने यदि अनुभव कर लिया है कि अस्पृश्यता धर्म पर कलंक है, तो उनके दान का महत्व सैकड़ों गुना बढ़ जाता है। यह तो आत्मा शुद्धि की प्रवृति है। संख्या से इस प्रवृति का कोई संबंध नहीं। ...धर्म के नाम पर अपने पांच करोड़ भाइयों के प्रति हम जो अत्याचार कर रहे हैं, उसके लिए यदि दुनिया हमारे धर्म से घृणा करे तो यह उचित ही है। यदि कोई शुद्ध रीति से शास्त्रों को, गीता को और वेदों को पढ़े, तो उस धर्मग्रन्थों में उसे कहीं अस्पृश्यता नहीं मिलेगी। आज तो हम हिन्दू धर्म को भूल बैठे हैं।’’ 
‘‘...काली झंडियां दिखानेवालों का मुझे उतना ही ख्याल है, जितना सुधारकों का ...पर सत्य के अनुकूल आचरण करना मैं अपना धर्म समझता हूं। धर्म को कैसे छोड़ दूं ? ईश्वर क्या कहेगा ? सवर्ण हिन्दू मेरा निरादर करें, मुझ पर पत्थर फेंके या बम या रिवाल्वर चलावें, ऐसी बातों से मैं डिगने का नहीं। ...जो सनातनी धर्म का इजारा लेकर बैठ गये हैं, उनसे मैं कहना चाहता हूं कि जिन शास्त्रों को वे मानते हैं, मैं भी उन्हीं को मानता हूं, परन्तु हमारा मतभेद तो शास्त्रों का अर्थ लगाने में है।’’ 
‘‘...हरिजन आन्दोलन ऊंच-नीच के भाव तक ही सीमित है, रोटी-बेटी संबंध से इसका कोई वास्ता नहीं। ...मंदिर प्रवेश के विषय में यह बात है कि जब तक किसी मंदिर में पूजा करने वाले सवर्ण हिन्दुओं का काफी बहुमत उसके पक्ष में न हो, तब तक वह हरिजनों के लिए न खोला जाए। मंदिर तो हमारे प्रायश्चित स्वरूप ही खुलने चाहिए...।’’ 
24 जुलाई को कानपुर में तिलक हाॅल का उद्घाटन करते हुए गांधीजी ने कहा - ‘‘...जब मैं पहली बार कानपुर आया था, तब मेरी यहां किसी से जान-पहचान नहीं थी। कानपुर आकर मैं गणेश शंकर विद्यार्थी को कैसे भूल सकता हूं ? उन्होंने ही मुझे अपने यहां टिकाया था। उस समय किसी और में यह हिम्मत नहीं थी। ...सद्भावना से तिलक महाराज भी उसी दिन इस नगर में आये थे। उनको उस जमाने में अपने घर टिकाना आसान काम न था। निर्भीक युवक गणेश शंकर से ही वह संभव था। इस नगर के साथ उनकी स्मृति हमारे हृदय में जुड़ी हुई है। ...उन्होंने वीर मृत्यु पायी। उनको इस अवसर पर मैं कैसे भूल सकता हूं ?’’ 
‘‘...तिलक महाराज ने अपना सारा ही जीवन भारत की उन्नति के लिए दे दिया। ...यदि वह हिन्दू धर्म को नहीं जानते थे, तो उसे कोई नहीं जानता। ...परन्तु उन्होंने कभी ख्याल नहीं किया कि हम उच्च हैं और वे नीच हैं। उनके साथ मैंने इस विषय पर काफी बहस की थी। ...उनकी विद्वता, उनकी आत्मशुद्धि और उनका संयम तो जब तक हिन्दुस्तान जीवित रहेगा, सारी दुनिया में अमर रहेगा। ...तिलक महाराज का यह स्मारक अमर रहे, ईश्वर से मेरी यही प्रार्थना है।’’ 
24 जुलाई को कानपुर में प्रान्त के विविध स्थानों से आये हरिजन कार्यकर्ताओं को लगभग तीन घंटे का समय गांधीजी ने दिया और कार्य करने की पद्धति तथा उनकी कठिनाइयों के संबंध में उन्हें उपयुक्त परामर्श दिया। 
शाम को विद्यार्थियों एवं हरिजनों की एक संयुक्त सभा में भाषण करते हुए गांधीजी ने कहा - ‘‘...यदि हिन्दुस्तान के विद्यार्थी अपने अवकाश का समय हरिजन सेवा में लगा दें, तो अस्पृश्यता निवारण की गति दस गुनी तेज हो जाए। अपने भाइयों की सेवा करना ही तो शिक्षा का श्रेष्ठ अंश है।’’ मेहतरों के मानपत्र का उत्तर देते हुए उन्होंने कहा - ‘‘आप लोग समाज की जो सेवा करते हैं, वह एक पवित्र धंधा है। जो आपसे घृणा करते हैं, अधर्म करते हैं, पर आप भी शौचादि के नियमों का पालन करें, मुर्दार मांस खाना छोड़ दें, दारू पीना और जुआ खेलना छोड़ दें।’’ 
गंधीजी ने लगातार दो दिनों तक कानपुर नगर की हरिजन बस्तियों का निरीक्षण किया। उन्होंने फाब्र्स कंपाउण्ड, विपत खटिक का हाता, लक्ष्मीपुरवा, हड्डी गोदाम, मीरपुर, मोतीमहल, बैरहना, केटल बैरक और ग्वालटोली की बस्तियों को बड़े ध्यान से देखा और वहां रहनेवाले हरिजनों से पूछताछ की। लक्ष्मीपुरवा, हड्डी गोदाम, बैरहना और ग्वालटोली की बस्तियों की दुर्दशा देखकर उन्हें बड़ा क्लेश हुआ और उन्होंने इनमें तुरन्त सुधार किये जाने की आवश्यकता की ओर नागरिकों तथा म्युनिस्पल अधिकारियों का ध्यान आकर्षित किया।
25 जुलाई को सुबह कुछ घंटे गांधीजी ने लखनऊ में बिताये। यहां उन्होंने दो भाषण दिये। पहले महिलाओं की सभा में, बाद में सार्वजनिक सभा में। सनातनियों का एक मानपत्र भी उन्होंने स्वीकार किया। इन सभी सभाओं में उन्होंने यही कहा कि अस्पृश्यता हिन्दू धर्म पर लगा हुआ महान कलंक और मनुष्यता के विरूद्ध अपराध है तथा हिन्दू धर्म की रक्षा के लिए ही यह आवश्यक है कि हम अपनी त्रुटियों का सुधार करें और प्रायश्चित भावना से हरिजन भाइयों को गले लगायें। 
गंधीजी 27 जुलाई को कानपुर से काशी आ गये। इस पवित्र पुरी में ही आत्मशुद्धि के इस प्रवास यज्ञ की पूर्णाहुति वह करना चाहते थे। पर शुरू के कई दिन अन्य कार्यो में ही निकल गये। 29 जुलाई को अखिल भारतीय हरिजन सेवक संघ की बैठक में वह जरूर शामिल हुए और संघ के आय-व्यय, उसके प्रबंधन कार्य और हरिजन सेवकों के लिए एक प्रशिक्षण संस्था स्थापित करने की आवश्यकता पर एक घंटे से भी ज्यादा बोले। 
28-29 जुलाई को काशी विद्यापीठ में हरिजन सेवक संघ के केन्द्रीय बोर्ड की बैठक हुई थी। 29 जुलाई को बैठक के अंत में सदस्यों को संबोधित करते हुए गांधीजी ने कहा - ‘‘दो प्रश्न हैं जिनके संबंध में मुझे आप लोगों से कुछ कहना है- एक तो यह कि संघ का गठन किस प्रकार का हो, दूसरे एक ऐसी प्रशिक्षण संस्था, जिसमें सदस्य या कार्यकर्ता हरिजन सेवा की शिक्षा पा सकें। ...मैं इस नतीजे पर पहुंचा हूं कि चुनाव या जनतंत्र जैसी किसी चीज के लिए हमारे संघ में स्थान नहीं है। हमारी संस्था तो एक भिन्न प्रकार की है। मामूली अर्थ में वह कोई लोक संस्था नहीं है। हम तो एक प्रकार के ट्रस्टी हैं, जिन्हें हमने अपने आप नियुक्त कर रखा है। पैसा केवल ट्रस्टी के रूप में हम अपने पास रखते हैं और केवल हरिजनों के हितार्थ उसका उपयोग करते हैं और इस ढंग से कि वह सीधे हरिजनों की जेब में जाए। हमारे संघ का संगठन इस विचार को सामने रखकर हुआ है कि जिन भाइयों को हमने सदियों से तुच्छ मान रखा है, उनके प्रति हम अपना कर्तव्य पालन करें। ...कुछ लोग कहते हैं कि प्रबंध कार्य में पैसा देने वालों की भी आवाज होनी चाहिए। मेरी राय में वे भूलते हैं। मेरी दृष्टि में तो एक पाई देनेवाला और दस से पचास हजार तक देनेवाला ...समान दाता है। ...घनश्यामदास के दस हजार रुपयों से भी उस एक पाई की कीमत स्यात अधिक हो। उड़ीसा में मैंने खुद अपनी आंखों देखा है कि वहां के गरीब आदमी किस प्रकार अपने फटे-पुराने चीथड़ों की गांठ में बड़े जतन से बंधे हुए पैसे-पाई को बड़े प्रेम से हमारी झोली में डालते थे। हजारों रुपयों की अपेक्षा ...मुझे तो गरीब की गांठ की वह कौड़ी ही पाकर अधिक आशा और प्रसन्नता हुई है। आत्मशुद्धि के इस यज्ञ में गरीब की कौड़ी के बिना हजारों की थैलियां किसी अर्थ की नहीं। किन्तु आपके उस जनतंत्र में उन हजारों गरीबों को तो वोट मिलेगा नहीं, प्रबंध में उन बेचारों की तो आवाज होगी नहीं। हम उनके नाम तक तो जानते नहीं। फिर भी हमारी उनके प्रति उतनी ही या उससे भी अधिक जवाबदेही है, जितनी हजारों की थैलियां देनेवाले बड़े-बड़े धनियों के प्रति। हमारी तो यह एक दातव्य संस्था है, जिसका अस्तित्व प्रामाणिक और योग्य प्रबंध पर निर्भर करता है। ...मेरे लिए तो यह विशुद्ध सेवा और प्रायश्चित का ही आन्दोलन है। ...’’ 
इसके बाद गांधीजी ने आजीवन हरिजन सेवा करनेवालों का महत्व बताते हुए उनके लिए दक्षिण अफ्रीका के ट्रेपिस्ट मिशन जैसी कोई शिक्षण संस्था बनाने की आवश्यकता पर जोर दिया। 
31 जुलाई को गांधीजी विविध हरिजन शिक्षणशालाओं के लगभग 500 बच्चों से मिले। उन्होंने कहा - ‘‘बच्चों को देखकर हमें संतोष नहीं हुआ। वे ठीक तरह से साफ-सुथरे नहीं रखे जाते। हरिजन पाठशालाओं के शिक्षकों को सबसे पहले तो सफाई पर ही ध्यान देना चाहिए। स्वच्छता ही तो धर्म का सार है।’’ 
31 जुलाई को सार्वजनिक सभा हुई। सभा कई दृष्टियों से अपूर्व थी। गांधीजी के विरूद्ध जहर उगलनेवाले बड़े ही गंदे पर्चे बांटे गये थे। आशंका थी कि सभा में कहीं कोई अनिष्ट न हो, परन्तु सब आशंकाएं निर्मूल निकलीं। सभा बड़े शान्त वातावरण में हुई। काशी के विद्वान पंडितों के मंडल ने भी गांधीजी को एक मानपत्र भेंट किया। एक विशेष आनंद की बात यह थी कि वर्णाश्रम स्वराज्य संघ तथा भारत धर्म महामंडल के प्रतिनिधि स्वरूप पं. देवनायकाचार्य जी को मुख्य शिकायत मंदिर प्रवेश बिल के संबंध में थी। उनके बाद मालवीयजी महाराज ने अस्पृश्यता निवारण के समर्थन में संक्षिप्त किन्तु जोरदार भाषण दिया तथा शास्त्रों से अनेक प्रमाण देते हुए यह सिद्ध किया कि हरिजनों को भी अन्य हिन्दुओं की तरह समस्त सामाजिक और धार्मिक अधिकार मिलने चाहिए। इस सभा में भाषण देते हुए गांधीजी ने कहा - ‘‘...हरिजन आन्दोलन धार्मिक आन्दोलन है। इसमें दुराग्रह को स्थान नहीं है। मैं कितना ही जतन क्यों न करूं, मुझसे भी गलतियां हो सकती हैं और हुई भी हैं। ...जिस रूप में अस्पृश्यता इस समय मौजूद है, उसके लिए शास्त्र में स्थान नहीं है। अस्पृश्यता हिन्दू धर्म पर कलंक है। ...जलाशय पर एक कुत्ता भले ही चला जाए, परन्तु प्यासा हरिजन बालक वहां नहीं जा सकता। यदि गया तो मार खाने से बच नहीं सकता। इस समय की अस्पृश्यता मनुष्य को कुत्ते से भी हीन मानती है। ...ऐसी अस्पृश्यता को शास्त्र सम्मत न मेरी बुद्धि मान सकती है, न मेरा हृदय। ...काशी के पंडितों की ओर से मुझे जो स्वागत पत्र मिला है, उसके लिए मैं आभार मानता हूं। उसे मैं आप लोगों का आशिर्वाद समझता हूं।’’ 
1 अगस्त को हिन्दू विश्वविद्यालय की सभा में भाषण करते हुए गांधीजी ने कहा - ‘‘हिन्दू विश्वविद्यालय मेरे लिए कोई नयी वस्तु नहीं है। जब से यह आरंभ हुआ, तभी से मालवीयजी महाराज ने मेरा संबंध उससे बांध दिया है और आजतक वैसा ही बना हुआ है। ...मुझे आशा है कि विद्यार्थी लोग विद्या प्राप्त करके उसका सद्व्यय करेंगे और संकुचित अर्थ में धर्म को ग्रहण नहीं करेंगे।’’ इसके बाद आचार्य ध्रुव के अनुरोध पर गीता द्वारा अपने जीवन पर पड़े प्रभावों का उन्होंने उल्लेख किया। 
2 अगस्त को हरिश्चन्द्र हाई स्कूल में जुड़ी महिलाओं की सभा में भाषण करते हुए गांधीजी बोले - ‘‘...हिन्दू धर्म में बहुत दिनों से छुआछूत का भूत दाखिल हो गया है, जिससे दया और धर्म प्रतिदिन क्षीण होते जा रहे हैं। हम सब एक ही ईश्वर के बनाये हैं। तब कोई उनमें भेद-भाव कैसे कर सकता है ? ...शास्त्र यही समझता है कि सबसे महान यज्ञ इस जगत में सत्य है। आप माताओं से मेरी प्रार्थना है कि छुआछूत के भूत को भूल जाए। ...दूसरी बात यह है कि आपको विदेशी तथा मिलों के वस्त्र को त्याग देना चाहिए और खद्दर पहनना चाहिए। तीसरी बात, सब माताओं को कुछ न कुछ विद्याभ्यास करना चाहिए। चैथी बात यह कि आभूषणों का त्याग करें। माताओं की शोभा आभूषणों से नहीं, हृदय से है। ...हे राष्ट्र की माताओं, हे धर्म की रक्षिकाओं, तुम्हारा कल्याण हो। भगवान हमारी पवित्र भारत भूमि का भला करें।’’ 
2 अगस्त को गांधीजी ने इंग्लिसिया लाइन, चेतगंज, मलदहिया और कबीरचैरा की बस्तियां देखीं। फिर कबीर मठ में गये। वहां की स्वच्छता और सादगी से तथा इस सूचना से उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुई कि कबीरपंथियों में अस्पृश्यता नहीं मानी जाती। 
इस प्रकार गांधीजी का देशव्यापी हरिजन प्रवास समाप्त हुआ। इस यात्रा में लगभग 8 लाख रुपए एकत्र हुए। करोड़ों व्यक्तियों तक अस्पृश्यता निवारण का संदेश पहुंचा और देश में अभूतपूर्व जागृति आयी, छुआछूत की भावना कम हुई, सैकड़ों मंदिरों के द्वार हरिजनों के लिए खुल गये और उनकी दुर्दशा की ओर सरकार, स्थानीय सभाओं तथा जनता का ध्यान गया।

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