COPYRIGHT © Rajiv Mani, Journalist, Patna

COPYRIGHT © Rajiv Mani, Journalist, Patna
COPYRIGHT © Rajiv Mani, Journalist, Patna

गुरुवार, 26 सितंबर 2013

बापू ने कहा था

भाग दो आखिरी
नव भारत के निर्माण में महात्मा गांधी के योगदान को उनके भाषण से समझा जा सकता है। अहिंसा के बल पर उन्होंने जो आन्दोलन चलाया, आगे चलकर उसने पूरे विश्व को एक नई दिशा दी। उन्होंने न सिर्फ अंग्रेजों के खिलाफ अपना आन्दोलन चलाया, बल्कि एक स्वस्थ भारत के निर्माण में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। दरअसल बापू भारत में पैठ जमा चुके ऊंच-नीच, छुआछूत और जाति, वर्गों में बंट रहे समाज को लेकर भी काफी चिंतित थे। उनके भाषणों से यह साफ दिखता है। सूचना एवं जनसम्पर्क विभाग, उत्तर प्रदेश ने एक किताब प्रकाशित किया है। इस पुस्तक का नाम है ‘उत्तर प्रदेश में गांधी जी’। इसके लेखक हैं श्रीरामनाथ ‘सुमन’। बापू के भाषणों के अंश यहां इसी पुस्तक से दिए जा रहे हैं। आशा है, पाठक इससे लाभान्वित हो सकेंगे। 
23 नवम्बर, 1920 को महात्मा गांधी ने आगरा के विद्यार्थियों की सभा में भाषण करते हुए कहा - ‘‘...प्रचलित शिक्षा पद्धति हमें कायरता सिखाती है। ...जो तालीम हमारे भय को पुष्ट करती है, वह किस काम की ? जिस शिक्षा में सच्चाई से चलने का अवकाश नहीं, देश-भक्ति का अवकाश नहीं, वह कैसी शिक्षा है ?’’ 
26 नवम्बर, 1920 को काशी में ‘‘...आप जिन परिस्थितियों में पढ़ते हैं, उनमें ऐसी ही शिक्षा मिलती है कि मन में मनुष्य का डर रखना पड़े। परन्तु मैं तो उसे सच्चा एम.ए. कहूंगा जिसने मनुष्य का डर छोड़ कर ईश्वर का डर रखना सीखा हो। ...अंग्रेज इतिहासकार कहते हैं, भारत में तीन करोड़ लोगों को दिन में दो बार पेट भर खाने को नहीं मिलता। बिहार में अधिकांश लोग सत्तू नामक निःसत्व खुराक खाकर रहते हैं। जब भुनी हुई मक्की का यह आटा, पानी और लाल मिर्चों के साथ गले के नीचे उतारते हुए मैंने लोगों को देखा, तो मेरी आंखों से आग बरसने लगी। ...ऐसी स्थिति में आप निश्चिन्त होकर कैसे बैठ सकते हैं? ...यदि हमें आजादी से खाने को न मिले, तो हममें भूखों मरकर आजाद होने की ताकत आनी चाहिए। ...मैं कहता हूं कि यह हुकूमत राक्षसी है, इसलिए उसका त्याग करना हमारा धर्म है। ...शान्तिमय असहयोग करने की ताकत आप में न आये, तो भारत नष्ट हो जायेगा।’’ 
18 अक्तूबर, 1925 को सीतापुर में अस्पृश्यता विरोधी सम्मेलन था। यह सम्मेलन शाम के वक्त हुआ। राजा साहब महेवा इसके अध्यक्ष थे। इसमें गांधीजी ने कहा - ‘‘मैं स्वर्गीय गोखले के इस कथन से पूरी तरह सहमत हूं कि भारतीय अपने कुछ देशवासियों को अस्पृश्य मानकर सारी दुनिया में अस्पृश्य हो गये हैं। ...मेरा निश्चित विश्वास है कि हिन्दू धर्म में अस्पृश्यता का कोई स्थान नहीं है। किसी भी मानव के प्रति अस्पृश्यता का व्यवहार करना पाप है, इसलिए तथाकथित उच्च जाति के लोगों को अस्पृश्यों के बजाय अपनी ही शु़ि़द्ध करनी चाहिए।’’ 
.... 1931 में जब गांधीजी गोलमेज सम्मेलन में गये थे, तब अल्पसंख्यक जातियों के विशेष प्रतिनिधित्व पर बोलते हुए हरिजनों को अलग प्रतिनिधित्व देकर सदा के लिए उनको हिन्दुओं से अलग कर देने की नीति की जबर्दस्त टीका की और यह भी कह दिया था कि ऐसे किसी प्रयत्न का मैं प्राणों की बाजी लगाकर भी विरोध करूंगा। जेल में भी उन्होंने 11 मार्च, 1933 को भारत सचिव को अपना निश्चय दोहराते हुए सूचना दे दी थी। अगस्त में ब्रिटिश सरकार की ओर से प्रधानमंत्री श्री रैमजे मैकडानल्ड का निर्णय प्रकाशित हुआ। इसमें वही सब बातें थीं। 18 अगस्त को गांधीजी ने उन्हें लिखा कि निर्णय में परिवर्तन न होने की स्थिति में 21 सितम्बर से मैं आमरण अनशन करूंगा। ठीक समय पर गांधीजी ने अपना आमरण उपवास शुरू किया। इससे बड़ा तहलका मचा। अंत में 26 सितम्बर को उच्चवर्गीय हिन्दू नेताओं एवं अछूतों के नेताओं के बीच एक समझौता हो गया, जिसे सरकार द्वारा भी स्वीकार कर लिया गया और गांधीजी का उपवास समाप्त हुआ। उच्च वर्ण के हिन्दू नेताओं ने अस्पृश्यता निवारण का कलंक दूर करने की जिम्मेदारी ली थी, इसलिए दिल्ली में अस्पृश्ता निवारण संघ (बाद में हरिजन सेवक संघ) की स्थापना की गयी और इस दिशा में काफी काम भी हुआ, किन्तु गांधीजी को ऐसा प्रतित हुआ कि आन्दोलन पूर्ण सच्चाई और पवित्रता के साथ नहीं चल रहा है। सवर्ण हिन्दुओं का दिल जैसा बदलना चाहिए, नहीं बदला है। इससे उन्हें दुख हुआ और इसे अपनी ही आत्मिक अपूर्णता मानकर उन्होंने बिना किसी शर्त के 8 मई, 1933 से 21 दिन का उपवास करने की घोषणा की। पिछले उपवास में 6 दिनों में ही उनकी हालत बड़ी खराब हो गयी थी, इसलिए न सरकार, न जनता को यह आशा थी कि वह 21 दिन का उपवास पूरा कर सकेंगे। सरकार ने उन्हें रिहा कर दिया, किन्तु छूटने के बाद भी पूना (पर्णकुटी) में रहकर उन्होंने अपना उपवास जारी रखा। प्रभु की कृपा से उपवास पूरा हुआ। 
उनके उपवास से सारे देश का ध्यान उधर ही खिंच गया। 14 जुलाई को सामूहिक सत्याग्रह का आन्दोलन उठा लिया गया। हां, व्यक्तिगत सत्याग्रह की छूट रही। गांधीजी ने साबरमती का सत्याग्रह आश्रम तोड़ दिया और अपना यह निश्चय प्रकट किया कि 1 अगस्त को आश्रम के 32 साथियों के साथ रास स्थान की ओर प्रस्थान करेंगे, जहां किसानों की स्थिति बहुत खराब हो रही थी। 31 जुलाई की रात में उन्हें गिरफ्तार कर पूना के यरवदा जेल में भेज दिया गया। 4 अगस्त को वह इस शर्त के साथ छोड़ दिये गये कि पूना नगर की सीमा के बाहर न जाए, किन्तु गांधीजी ने आज्ञा भंग की और गिरफ्तार कर लिये गये तथा उन्हें एक वर्ष की सादी कैद हुई। 
जेल में हरिजन कार्यों की सुविधा न देने पर गांधीजी ने पुनः उपवास करने का निश्चय किया। बार-बार उपवास से उनका स्वास्थ्य काफी खराब हो गया था। 21 अगस्त को वह सासून अस्पताल ले जाये गये। उनकी हालत तेजी से बिगड़ने लगी। 23 अगस्त को जब उनकी स्थिति खतरनाक हो गयी, सरकार ने उन्हें बिना शर्त रिहा कर दिया। उन्होंने अस्पताल छोड़ने के पूर्व उपवास तोड़ा और पर्णकुटी में रहने लगे। छूटने पर उन्होंने अपना ध्यान हरिजन कार्य में केन्द्रित करने का इरादा जाहिर किया। 
सितम्बर, 1933 में वह सत्याग्रह आश्रम वर्धा चले गये। वहां 6 सप्ताह तक विश्राम करने के बाद उन्होंने अस्पृश्यता निवारण के लिए संपूर्ण देश का दौरा करने का निश्चय किया। यह दौरा वर्धा से ही 7 नवम्बर, 1933 को शुरू हुआ। 
अप्रैल, 1936 में कांग्रेस का अधिवेशन लखनऊ में हुआ। जवाहरलाल जी इसके अध्यक्ष थे। इस अवसर पर कुछ पहले से ही चरखा संघ तथा अखिल भारतीय ग्रामोद्योग संघ ने मिलकर एक विशाल प्रदर्शनी का आयोजन किया था। 28 मार्च को गांधीजी ने इस प्रदर्शन का उद्घाटन किया। इस अवसर पर भाषण देते हुए गांधीजी ने कहा - ‘‘ ...इस तरह की प्रदर्शनी के बारे में बरसों से अपने दिल में जो कल्पना मैं रखता आया था, उसको मैं इस प्रदर्शनी में देखता हूं। 1920 में पहली बार हमारा ध्यान गांवों की ओर गया। ...अहमदाबाद की कांग्रेस के साथ जो प्रदर्शनी हुई थी, उसमें मैंने इस विषय में, अपनी कुछ कल्पनाओं को मूर्त रूप देने की चेष्टा की थी। ...मैंने सदा ही कहा है कि हिन्दुस्तान हमारे चंद शहरों से नहीं, सात लाख गांवों से बना है। ...इन देहातों की जो हालत है, उसे मैं खूब जानता हूं। मेरा ख्याल है कि हिन्दुस्तान को घूमकर जितना मैंने देखा है, उतना कांग्रेस के नेताओं में से किसी ने नहीं देखा है। ...हिन्दुस्तान के देहातों को शहरवालों ने इतना चूसा है कि उन बेचारों को अब रोटी का एक टुकड़ा भी समय पर नहीं मिलता। कहीं तो सिर्फ सत्तू खाकर जीते हैं। ...खादी के अलावा दूसरे भी धंधे हैं, जो गांव वालों के जीवन के लिए बहुत आवश्यक और उपयोगी है और जिनसे उनकी हालत, एक बड़ी सीमा तक सुधारी जा सकती है। इसके लिए हमें यह देखना है कि देहातवाले कैसे रहते हैं, क्या काम करते हैं और उनके काम को कैसे तरक्की दी जा सकती है। 
‘‘ ...इस बार की प्रदर्शनी अपने ढंग की पहली प्रदर्शनी है। इसकी रचना के पीछे कल्पना मेरी है। ...इस नुमाइश के जरिये हम दिखाना चाहते हैं कि भूख से बेहाल इस हिन्दुस्तान में भी आज ऐसे हुनर, उद्योग-धंधे और कला-कौशल मौजूद हैं, जिनका हमें कभी ख्याल भी नहीं होता। इस नुमाइश की यही विशेषता है। ...इसे कुछ सीखने की दृष्टि से देखें, तमाशे की दृष्टि से नहीं। जो एक बार इस नुमाइश को देख लेगा, उसे फौरन ही पता चल जाएगा कि हिन्दुस्तान के देहातों में अब भी इतनी ताकत भरी पड़ी है। देहातों की इस ताकत को पहचान कर जो 28 करोड़ देहातियों की सेवा करता है, वही कांग्रेस का सच्चा सेवक है। जो इन करोड़ों की सेवा नहीं करता है, वह कांग्रेस का सरदार या नेता हो सकता है, सेवक या बंदा नहीं बन सकता।’’ गांधीजी लगभग 15 दिन लखनऊ रहे। वह कांग्रेस अधिवेशन में शरीक नहीं हुए।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें