हम तो ठहरे
खग पशु
हमें पर्वत जंगल भाता
हे मानव !
समझदार होकर भी
कहां तुम्हें कुछ आता
पर्वतों का
नाश किया और
जंगलों का सफाया
धरती पर कंक्रीट फैलाकर
तपता हुआ बनाया
तुम्हारी ही करनी से देखो
रूठ गयीं हैं नदियां
इन्हें बनने में लगे थे
हजारों-हजारों सदियां
खुद को शिक्षित बतलाते
पर गढ़ते हो विनाश
हथियारों से कर रहे
देखो अपना ही नाश
कबतक सहूं
चुप रहूं !
अब हमें कुछ कहने दो
हे मानव !
इस धरती पर
हमें चैन से रहने दो
अपनी चिन्ता नहीं तुम्हें
न आने वाली पीढ़ी का
एकदिन देखना धिक्कारेगा
खून तुम्हारे ‘लाल’ का
अपनी ही करनी से देखो
कितनों का नाश किया
मानव कहते खुद को फिर भी
मानवता को ‘लाश’ किया
तुम से अच्छे तो हम हैं
ईश्वर के सच्चे जन हैं
तुम ना कहना कुछ हमको
अब हमें कुछ कहने दो
हे मानव !
इस धरती पर
हमें चैन से रहने दो।
बिन पानी सब सून
सूखी नदियां
तड़प रहा शहर
सूखा आंखों का पानी
शून्य आत्मा, ईमान, हर पहर
हर रिश्ते में जहर
सूख गये खेत-खलिहान
आह ! मर रहे किसान
तड़प-तड़प निकल रहे प्राण
वीरान गांव चैपाल
हर तरफ कहर
सूखी हज्जत
शून्य मानवता
ढह रहा सभ्य समाज
सूखी जवानी
शून्य उदर, खून
बिन पानी सब सून।
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