राजीव मणि
अच्छा, अब हम चलते हैं
बहुत निभाया तुमने
इंसान होने का फर्ज
जब तक हम चलन में थे
अपनी जान से भी ज्यादा चाहा
कभी महफिल में सजाया
कभी तिजोरी, तहखानों में
कभी हमें मेज के नीचे से
देते रहे एक दूसरों को
ताकि नजर ना लगे तुम्हें
हम समझ बैठे थे खुद को
कोई मूल्यवान चीज।
और नोटबंदी की खबर सुनते ही
एक ही पल में
उठा फेंका हमें
नदी-नालों में
ताड़-ताड़ कर
बोरा में कसकर
जैसे अब हम
कोई कीमती चीज नहीं
बस, लाश हो गए हों
हां, बस लाश !
तुम भूले जाते हो
कभी हमने ही अपने जिस्म का
सौदा किया था
तुम्हारी बिटिया की शादी में
कभी तुम्हारे बीवी-बच्चों की
हर इच्छा पूर्ति के लिए
.... और कभी
तुम्हारी ऐय्याशी के लिए भी !
हां, यह सच ही तो है
तुम कितना इठलाते थे
हर पांच सौ और
एक हजार के नोटों को पाकर
कभी हमें बताते थे
भारत की संस्कृति
तो कभी भारत की शान
.... और अब कहते हो
कालाधन और आतंकवाद के खिलाफ
सर्जिकल स्ट्राइक है यह !
चलो, हम तो मुक्ति पा गये
तुम्हारे हाथों कटने-लूटने से
लेकिन क्या, सचमुच
हमारे चले जाने से
कालाधन और आतंकवाद की समस्या
खत्म हो जाएगी ?
अगर ऐसा सचमुच होता है
तो हम इसे अपना भाग्य समझेंगे
और समझेंगे कि
हमारा यूं चले जाना ही
राष्ट्र के हित में है
लेकिन, जाते-जाते
हम कहे जाते हैं
हम नोटों को बदलने से अच्छा है
पहले खुद को बदलो
भ्रष्टाचार और बेइमानी के
पालने में यूं ही सोते रहोगे
तो हर एक चीज खोते रहोगे।
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